प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के साथ बिहार विधानसभा चुनाव के पहले दौर का प्रचार चरम पर पहुँच रहा है। देश की निगाहें इस वक्त दो-तीन कारणों से बिहार पर हैं। महामारी के दौर में हो रहा यह पहला चुनाव है। चुनाव प्रचार और मतदान की व्यवस्थाओं का कोरोना संक्रमण पर असर होगा। राजनीतिक दल प्रचार के जुनून में अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कर रहे हैं। चुनाव आयोग असहाय है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद सात विधानसभाओं के चुनाव भी हुए थे। और इस साल के शुरू में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों का निष्कर्ष है कि फिलहाल वोटर के मापदंड लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए अलग-अलग हैं। उत्तर भारत की सोशल इंजीनियरी के लिहाज से बिहार के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। सन 2015 के चुनाव में बिहार ने ही महागठबंधन की अवधारणा दी थी। प्रकारांतर से भारतीय जनता पार्टी ने विरोधी दलों की उस रणनीति का जवाब खोज लिया और उत्तर प्रदेश में वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। बिहार में भी अंततः महागठबंधन टूटा।
उसके बाद कर्नाटक
में गठबंधन बना और टूटा। पिछले साल महाराष्ट्र के प्रयोग ने बीजेपी को चौंकाया। और
अब बिहार को लेकर एक प्रकार की अनिश्चितता है कि चुनाव-पूर्व बने गठबंधन चुनाव के
बाद बने भी रहेंगे या नहीं। राज्य में दो बड़े गठबंधनों के अलावा एक ग्रैंड डेमोक्रेटिक
सेकुलर फ्रंट भी मैदान में है। वह सीट भले ही नहीं जीते, पर दूसरों का खेल बिगाड़ सकता है। आरएलएसपी की अगुवाई वाले
इस मोर्चे में बसपा और एआईएमआईएम सहित कई दूसरी छोटी पार्टियां शामिल हैं। बिहार
के पिछले चुनावों में करीब बीस फीसदी वोट छोटे दलों को मिले थे। ये दल अलग-अलग
होते हैं, तो बिखरे रहते हैं। इसबार इनकी सामूहिक ताकत
क्या गुल खिलाती है, यह देखना है।
एनडीए की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने अकेले लड़ने का
फैसला किया है। उसका जेडीयू के नीतीश कुमार के साथ रिश्ता बन नहीं पा रहा है। रामविलास
पासवान के निधन के बाद संभव है कि इस पार्टी को हमदर्दी के वोट मिलें। रामविलास
पासवान के पुत्र चिराग जहाँ नीतीश कुमार की आलोचना कर रहे हैं वहीं मोदी और बीजेपी
की तारीफ कर रहे हैं।
लोजपा ने 22 टिकट
भाजपा के बागियों को दिए हैं। इन 22 में से 21 उम्मीदवार जदयू के खिलाफ हैं। लोजपा
की घोषणा है कि हम भाजपा के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं उतारेंगे। संभव है कि राज्य
के समीकरण चुनाव परिणाम आने के बाद बदलें। इस चुनाव में जहाँ नीतीश कुमार और सुशील
मोदी जैसे वरिष्ठ नेताओं की परीक्षा है, वहीं दो उत्तराधिकारियों की परीक्षा भी
है। तेजस्वी यादव और चिराग पासवान भविष्य के सितारे बनकर उभरेंगे।
पहले दौर की 71
सीटों पर 28 अक्तूबर को मतदान होना है। पहला दौर मतदाता के मिजाज का पता बताता है।
कोरोना का असर वोटर पर किस प्रकार का है? केंद्र और राज्य ने गरीबों को इस दौरान सहायता पहुँचाने की जो घोषणाएं की थीं,
क्या लोगों तक पहुँचीं? प्रवासी मजदूरों
का सवाल क्या चुनाव का मुद्दा बनेगा? बेरोजगारी को लेकर राज्य
के लोग परेशान हैं या नहीं? सुशासन बाबू का
विकास का नारा क्या इसबार भी काम करेगा? क्या 10 लाख रोजगार देने का वायदा तेजस्वी यादव को सफलता दिलाएगा? और मुफ्त में कोरोना
वैक्सीन देने के बीजेपी के वायदे का जादू क्या जनता पर चलेगा? पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि बिहार की जनता
मुद्दों पर वोट देती है या जाति और धर्म पर?
ऐसे बुनियादी
सवाल सभी राज्यों के हैं, पर बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में सोशल इंजीनियरी
की जबर्दस्त भूमिका है। दूसरी तरफ सामाजिक कल्याण की योजनाओं को भी वोटर नजरंदाज
नहीं करता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सफलता के पीछे केवल पुलवामा का
प्रकरण ही नहीं था। आयुष्मान भारत, स्किल इंडिया, मुद्रा
योजना, जन-धन, उज्ज्वला, सौभाग्य और गरीबों को मुफ्त आवास
जैसी योजनाओं का असर भी कहीं न कहीं था।
नब्बे के दशक में
बिहार में लालू यादव के जातीय गणित ने जबर्दस्त जादू किया था। उनका मुसलमान+यादव यानी माय फॉर्मूला उसके पीछे था। पर उस फॉर्मूले की
विसंगतियाँ भी थीं। उसके बाद 2005 और 2010 में लालू-विरोध और सुशासन के वायदे ने
जादू का काम किया। सन 2015 का चुनाव बीजेपी-विरोधी महागठबंधन राजनीति की विजय थी। अब
इसबार का चुनाव सकारात्मक सवाल पूछ रहा है। एनडीए का गठबंधन राज्य में बनी सड़कों,
शिक्षा, ग्रामीण बिजली तथा केंद्र सरकार की प्रायोजित योजनाओं के सहारे जीतना
चाहता है। इनके साथ मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे की परीक्षा भी है। कांग्रेस, राजद और
वामदलों का गठबंधन एंटी इनकंबैंसी का फायदा उठाना चाहता है। राज्य में कांग्रेस का
आधार क्षीण है। वह मूलतः राजद के सहारे है। यह चुनाव कांग्रेस के भविष्य से जुड़ा
है।
शुक्रवार से राज्य
में नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की रैलियाँ शुरू हो गई हैं।
इन नेताओं को सुनने के लिए भीड़ उमड़ रही है, जिससे सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का
उल्लंघन हो रहा है। हाल में प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा
था कि लॉकडाउन हटा है, वायरस नहीं गया है। पर शुक्रवार को सासाराम में उनकी पहली
सभा में ही भारी भीड़ के कारण सोशल डिस्टेंसिंग की अनदेखी हुई। मंच पर और आगे की
कुर्सियों पर बैठे लोगों के बीच दूरियाँ थीं, पर पीछे की तरफ भीड़ नियमों का पालन
करने की स्थिति में नहीं थी।
सिर्फ पीएम मोदी
की ही रैली नहीं,
राहुल गांधी और तेजस्वी
यादव की रैलियों में भी ऐसी ही तस्वीरें देखने को मिल रही है। नवादा में तेजस्वी
यादव और राहुल गांधी की साझा रैली में भारी भीड़ आई। हालांकि राजनीतिक दलों ने सभाओं
में डिजिटल स्क्रीन लगाकर भाषण सुनाने की व्यवस्था की है, पर भीड़ स्टार प्रचारक
को करीब से देखना चाहती है। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से नियमों का पालन करने
को कहा है, लेकिन व्यावहारिक
स्थितियाँ बेकाबू हैं।
राजनीतिक दल भी
चाहते हैं कि मीडिया में ज्यादा से ज्यादा भीड़ दिखाई पड़े, ताकि लोगों को उसकी
सांगठनिक क्षमता का पता लगे है। पर यह बात सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से खतरनाक
है। इस वक्त देश में कोरोना संक्रमण के कम होने की खबरें हैं, पर बिहार की
तस्वीरें भय पैदा कर रही हैं। अब भी समय है, भीड़ को रोकिए।
दिमाग बन्द कर चुनाव लड़ा जाता है
ReplyDeleteफ़िर कोरोना कहां खयाल में आता है।