टिल्लन रिछारिया ने काफी पहले मुझसे भारती जी पर लेख लिखने को कहा था। मैंने भी लिखने में देरी की। टिल्लन जी के निधन से अवरोध पैदा हुए होंगे। इस वजह से किताब के प्रकाशन में भी देरी हुई होगी। बहरहाल 2025 के जनवरी में यह प्रकाशित हुई, जिसमें मेरा यह लेख भी शामिल है।
साहित्यकार के मुकाबले पत्रकार का मूल्यांकन
केवल उसकी निजी-रचनाओं के मार्फत नहीं किया जा सकता। वह लेखक भी होता है और आयोजक
भी। वह अपने विचार लिखता है और दूसरों के विचारों का वाहक भी होता है। उसका
मूल्यांकन किसी एक या अनेक रिपोर्टों या टिप्पणियों के आधार पर किया जाना चाहिए। यह
एक कसौटी है। दूसरी कसौटी है वह समग्र-आयोजन जिसमें वह अनेक रचनाधर्मियों को
जोड़ता है। इस कसौटी पर खरा उतरना बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि इसमें तमाम लोग
जुड़े होते हैं, जो कंकड़-पत्थर नहीं इंसान हैं।
धर्मयुग: एक दीर्घ रचना-प्रक्रिया
इस लिहाज से धर्मयुग अपने आप में एक
रचना-प्रक्रिया थी। उसकी साप्ताहिक, मासिक या वार्षिक-योजना, सहयोगियों की
कार्य-क्षमता का मूल्यांकन, कार्य-वितरण और देश-काल के साथ चलने की सामर्थ्य का
विवेचन लोगों ने किया है और होता रहेगा। उसमें एक दौर भारती जी का था और वह 27
वर्ष का था, यानी काफी लंबा। उसे भारती जी की पत्रकारिता का दौर कह सकते हैं।
काफी लंबा होने का मतलब यह भी है कि उन्हें
अपनी दृष्टि, विवेक और क्षमताभर काम करने का मौका मिला, जिसका श्रेय बेनेट कोलमन
कंपनी और उसके प्रबंधकों को भी जाता है। या उस विशेष मुद्रण प्रक्रिया को, जिसके
कारण धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, फिल्मफेयर और फेमिना जैसी पत्रिकाओं की अलग
पहचान थी। उस दौर को भी जिसमें इन पत्रों का मुकाबला करने वाले नहीं थे।
भारती जी का उपन्यास गुनाहों का देवता मैंने
1962-63 में कभी पढ़ा होगा। तब मैं किसी भी कहानी या उपन्यास को पढ़ लिया करता था।
12-13 की उम्र के लिहाज से उस उपन्यास को ठीक से समझ पाना भी मेरे लिए आसान नहीं
रहा होगा, पर उन दिनों मैं चंदामामा से लेकर मामा बरेरकर के उपन्यासों तक कुछ भी
पढ़ लेता था।
दूसरों से अलग
मथुरा के चौबियापाड़े की एक गली में छोटा सा समाज कल्याण पुस्तकालय और वाचनालय था, जो आसपास के लोगों की मदद से चलता था। शाम को दो बेंचें लगा दी जाती थीं, जिनमें बैठकर लोग अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते थे। चंदामामा, मनमोहन, पराग और बालक से लेकर धर्मयुग तक। नंदन का प्रकाशन तब शुरू हुआ नहीं था। बहरहाल धर्मयुग और भारती जी के रिश्ते या उसके महत्व को मैं तब समझता नहीं था। वह पत्रिका दूसरी पत्रिकाओं से अलग लगती थी, अपने आकार, बनावट, छपाई और सजावट की वजह से। इसी पुस्तकालय से एक किताब घर ले जाने की व्यवस्था भी थी। इसी निशुल्क-व्यवस्था के तहत मैंने इब्ने सफी बीए से लेकर गुरुदत्त और रवींद्रनाथ ठाकुर तक के उपन्यास पढ़ डाले।
धर्मयुग का मुरीद मैं बना 1967 में जब मैंने
लखनऊ में हिंदी-आंदोलन की लहर देखी और उसके बाद भाषा, राजभाषा और राष्ट्रीय-एकता
पर बहस चली। उन्हीं दिनों उर्दू और हिंदी को लेकर भी विवाद खड़े होने लगे। इस
विवाद को बहस के रूप में समेटा धर्मयुग ने। महत्वपूर्ण लेखकों के विचार एक तरफ आम
जनता के विचार की सीरीज भी धर्मयुग में पढ़ने को मिलीं।
शिवानी से लेकर मन्नू भंडारी तक के धारावाहिक
उपन्यास और कहानियाँ धर्मयुग की विशेषता थीं। धर्मयुग में कहानी छपने का मतलब था,
लेखक के रूप में मान्यता प्राप्त होना। पत्रिका में एक व्यंग्य-लेख भी होता था, जो
बहुत पढ़ा जाता था। शरद जोशी के एक व्यंग्य लेख का शीर्षक मुझे अभी तक याद है, ‘उत्तम शीक्षा की व्यवस्था, शिघ्र प्रवेश
लें।’ इसमें शीक्षा और शिघ्र से सारी कहानी बयान हो जाती थी। बहरहाल शीर्षकों का
बेहतरीन इस्तेमाल धर्मयुग में दिखाई पड़ता था। धर्मयुग से जुड़े रहे पुराने
पत्रकार बताते हैं कि भारती जी एक-एक शीर्षक पर अपने सहयोगियों के साथ बातचीत करते
थे और जब तक ढंग का शीर्षक मिल नहीं जाता था, खोज जारी रहती थी।
यह धर्मयुग की विशेषता
थी कि खेल जैसे विषय पर एएफएस तल्यार खां और अरविंद लवकरे जैसे लेखकों की रचनाएं
हमें पढ़ने को मिल जाती थीं, जो आमतौर पर अंग्रेजी अखबारों में लिखते थे। मुस्लिम
सत्यशोधक मंडल और हमीद दलवाई के बारे में मुझे धर्मयुग से ही जानकारी मिली। इन सब
बातों से अलग धर्मयुग के सेना और नौसेना विशेषांकों का भी मैं उल्लेख करना
चाहूँगा। इस विषय पर हिंदी में जितनी तथ्यपूर्ण और विश्वसनीय जानकारी धर्मयुग ने
प्रकाशित की, शायद ही किसी दूसरी पत्रिका ने दी हो। और आबिद सुरती की ढब्बूजी जैसी
कार्टून पट्टी को भी भुलाया नहीं जा सकता है।
संपादक की
भूमिका
बेशक इसमें अनेक
व्यक्तियों की भूमिका रही होगी, पर इसके आयोजन, समन्वय और जोड़ने वाले धर्मवीर
भारती का अपना महत्व था। यह बात मुझे तब समझ में आई, जब मैं खुद पत्रकारिता के व्यावहारिक
कर्म से होकर गुजरा। निजी तौर पर मुझे भारती जी से मिलने का
अवसर कभी नहीं मिला। अलबत्ता उनके प्रशंसक और आलोचकों से मिलने का या उनके बारे
में पढ़ने का अवसर मिलता रहा। सत्तर के दशक में जब से मैंने पत्रकारिता को अपनी
रोज़ी-रोटी का ज़रिया बनाया, तब से पत्रकार के रूप में भारती जी को प्रशंसा की
निगाहों से देखा।
सत्तर के दशक में जब मैं लखनऊ के स्वतंत्र भारत
में काम करता था, संभवतः 1975 में हमारे दो सहयोगी शचींद्र त्रिपाठी और मधुर
चतुर्वेदी बेनेट कोलमन की जर्नलिस्ट ट्रेनी स्कीम में मुंबई गए। वे जब भी लखनऊ
वापस आए, तब उनसे टाइम्स ऑफ इंडिया की कार्य-संस्कृति पर बात होती, तो भारती जी और
धर्मयुग पर भी बात होती थी। धर्मयुग यानी घर-परिवार की नंबर एक पत्रिका।
1983 में लखनऊ से नवभारत टाइम्स का प्रकाशन
शुरू हुआ, जिसकी पहली टीम में मैं भी शामिल था। प्रकाशन के कुछ समय बाद पहले
रामकृपाल सिंह और क़मर वहीद नक़वी मुंबई दफ्तर से लखनऊ तबादला होकर आए। दोनों के
पास नवभारत टाइम्स के अलावा धर्मयुग की स्मृतियाँ भी थीं। बाद में धर्मयुग से आलोक
मेहरोत्रा भी आए, जिनके पास धर्मयुग के फर्स्ट हैंड अनुभव थे। बातचीत के केंद्र
में भारती जी की कार्य-शैली रहती थी, जो सामान्य से कुछ अलग थी। कुछ परंपराओं की
बात भी है। लखनऊ में मुझे उर्दू के लेखक रामलाल ने बताया कि आमतौर पर लोग इंटरव्यू
करने आते हैं। उनका इंटरव्यू जहाँ भी प्रकाशित होता है, वे संस्थान इंटरव्यू लिखने
वालों को तो पारिश्रमिक देते हैं, पर उसे नहीं देते, जिसका इंटरव्यू किया गया है।
उन्होंने बताया कि धर्मयुग ने मेरा इंटरव्यू प्रकाशित किया, तो मुझे भी पारिश्रमिक
दिया। रामलाल जी ने इस बात की तारीफ की।
अगस्त 1998 में मैं सहारा टेलीविजन की टीम में
शामिल हुआ। वहाँ उदयन शर्मा से भेंट हुई। ज़ाहिर है कि भारती जी के अनुभव भी उनसे
सुनने को मिले। संयोग से सहारा की भाषा-शैली का काम मेरे हाथ में आया, तो उदयन जी
ने धर्मयुग की शैली-पुस्तिका लाकर दी, जो भारती जी ने तैयार की थी। रचनात्मकता के
इस पहलू को वही समझ सकता है, जो इस प्रक्रिया से गुजरा हो।
लखनऊ में कला महाविद्यालय के कॉमर्शियल आर्ट
विभाग के अध्यक्ष योगेंद्र नाथ वर्मा योगी धर्मयुग की डिजाइन के प्रशंसक थे।
खासतौर से उन्होंने मेरा ध्यान कई बार इसी तरफ खींचा कि देखिए किस तरह धर्मयुग में
शीर्षक, ब्लर्ब और इंट्रो में एक ही फैमिली के फॉन्ट का इस्तेमाल किया गया है। बाद
में कुछ मित्रों ने बताया कि भारती जी कागज, पेंसिल और रबर के इस्तेमाल से हरेक
अंक की डिजाइन डमी खुद तैयार करते थे। आज जब हिंदी में फॉन्टों की कमी नहीं है,
छपाई और डिजाइनिंग में बड़े बदलाव हो चुके हैं और हम मुद्रित पत्रकारिता के दौर को
पार करने के बाद डिजिटल दौर को भी पार करने जा रहे हैं, ये बातें मामूली लगेंगी,
पर मैं जानता हूँ कि उस दौर कि लिहाज से वह असाधारण काम था।
पेज का कंपोजीशन, फोटो को कतरना और शीर्षकों के
अक्षरों की गिनती साहित्यिक-कर्म नहीं है। पत्रकारिता से जुड़े ऐसे रचनात्मक-कर्म
हैं, जिनके महत्व को सामान्य पाठक समझ भी नहीं सकते। भारती जी की तुलना अज्ञेय,
रघुवीर सहाय, कमलेश्वर और कन्हैया लाल नंदन से करें, तो पाएंगे कि प्रस्तुति,
रंग-योजना, लेआउट वगैरह की जो बारीकियाँ धर्मयुग में थीं वे दिनमान और सारिका में
नहीं थीं। शायद उनके विषय को देखते हुए इनकी जरूरत नहीं थी, पर यह एक शुद्ध
पत्रकारीय कर्म था। इसके पीछे टाइम्स हाउस के प्रोफेशनलिज़्म का हाथ भी रहा होगा।
मैंने इस आलेख में पहले उनकी शैली-पुस्तिका का
उल्लेख किया है। उन्होंने भाषा से जुड़े बड़े बदलाव किए। एक बदलाव उल्लेखनीय है
खड़ी पाई के बजाय फुल स्टॉप के रूप में पूर्ण विराम का इस्तेमाल। इसके पीछे का
तर्क यह था कि हिंदी में जब हमने सभी अंग्रेजी विरामादि चिह्न स्वीकार किए हैं, तब
पूर्ण विराम ने क्या गलती की है? संस्कृत में एक खड़ी पाई से अर्ध विराम
और दो पाई से पूर्ण विराम बनता है। हालांकि बिंदु वाले पूर्ण विराम का इस्तेमाल
फोर्ट विलियम कॉलेज के समय से ही चल रहा है, पर हाल के वर्षों में खड़ी पाई का
ज्यादा इस्तेमाल होता है। यह बहस अभी जारी है कि बेहतर क्या है।
कार्यालय का अनुशासन
भारती जी के प्रशंसकों
की काफी बड़ी संख्या है, तो आलोचक भी हैं। इस आलोचना में दूसरे पहलुओं के अलावा
काम करने की उनकी पद्धति पर टिप्पणियाँ की गई हैं। वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर व्यास ने अपनी वैबसाइट पर हिंदी के चुनींदा संपादकों पर एक
लेखमाला लिखी थी, जिसमें उन्होंने धर्मवीर भारती को भी शामिल किया था। उन्होंने
लिखा है, ‘तर्क है कि कुछ भी हो भारती के संपादन में प्रोडक्ट लाजवाब था! पर
ऐसा होना क्या टाइम्स ग्रुप की बहुरंगी रोटरी प्रिंटिंग मशीन, आर्ट विभाग, लेआउट टीम की डिजाइनिंग और मार्केटिंग
से नहीं था? क्या पूँजी की ताकत से नहीं था? सवाल है हिंदी का वह प्रोडक्ट क्या ‘टाइम’, ‘न्यूजवीक’,
‘इकोनॉमिस्ट’ जैसी उन वीकली पत्रिकाओं वाला हुआ, जिससे हिंदीभाषी लोगों को खबर-विश्लेषण-बुद्धि की गंगोत्री मिलती?’ व्यास जी ने अपने आलेख में हैरल्ड इवांस की पत्रकारिता का जिक्र
किया है।
यह बात समूची हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी है। सितंबर
2020 में जब प्रसिद्ध ब्रिटिश पत्रकार हैरल्ड इवांस के निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई
है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की
मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा
समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान
की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92
साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने
किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश
किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा
को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा। पर उनके पहले कृतित्व के
पीछे लंदन टाइम्स के पुराने स्वामी थे और जब नए स्वामी आए, तो उन्हें हटना पड़ा।
हैरल्ड इवांस ने करीब 14 साल तक ‘संडे टाइम्स’
के सम्पादक के रूप में खोजी पत्रकारिता के मानक स्थापित किए। सन 1981 में रूपर्ट
मर्डोक ने अखबार को खरीद लिया और वे एक साल तक लंदन टाइम्स के दैनिक संस्करण के
सम्पादक रहे। फिर मर्डोक के साथ सम्पादकीय अधिकारों को लेकर असहमति होने पर
उन्होंने पद त्याग दिया। उनका कहना था कि ब्रिटिश सरकार ने मर्डोक को यह अखबार
खरीदने की अनुमति इस शर्त के साथ दी थी कि इसकी सम्पादकीय स्वायत्तता बनी रहेगी। टाइम्स
ऑफ इंडिया या दूसरे संस्थानों की पत्रकारिता भी आज वैसी नहीं है, जैसी सत्तर या अस्सी
के दशक में होती थी।
व्यास जी बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट कुछ सप्ताह
‘धर्मयुग’ में रहे। उन्होंने भारती जी की कार्यशैली की आलोचना की है। खासतौर से
हाजिरी के रजिस्टरों का जिक्र किया है, जो सीनियर और जूनियर पत्रकारों के लिए
बनाया गया था। ठीक साढ़े नौ बजे से शाम साढ़े पांच बजे की हाजिरी की सख्त समय
पाबंदी। यदि तय समय के अनुसार पत्रकार नहीं पहुंचा तो आधे दिन की तनख्वाह कटी। व्यास
जी के अनुसार भारती जी सुझाव पसंद नहीं करते थे। दफ्तर की इस अंदरूनी व्यवस्था के
बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं। मुझे नहीं मालूम कि गणेश मंत्री, उदयन शर्मा,
एसपी सिंह और हरिवंश जैसे पत्रकारों ने उनकी व्यवस्था को किस नजरिए से देखा।
मैंने धर्मयुग में काम कर चुके जितने पत्रकारों
से बात की, उनका कहना है कि भारती जी का बाहर के लोगों से भेंट करने का समय 12 से
1.00 बजे का था। शेष समय वे दफ्तर में ही रहते थे और सहयोगियों से बातें करते थे। संपादकीय
टीमों की गुणवत्ता और उनके लीडर की गुणवत्ता में जब मेल होता है, तभी कोई पत्र
श्रेष्ठ बनकर सामने आता है।
अनुशासन पर इतना जोर देने के कई दूसरे मायने भी
हैं, जिनकी परिणति पत्रिका की गुणवत्ता के रूप में प्रकट होती है। संपादक के पास
कोई अपनी योजना है, तब भी वह उसे अकेले लागू नहीं कर सकता। उसके लिए टीम होती है,
जिसके सदस्य इंसान होते हैं, मशीन नहीं। इन प्रसंगों को मैंने अपने आलेख में केवल
इसलिए रखा है, क्योंकि यह भी प्रासंगिक हैं और इन्हें लिखने वाले भी। भारती जी की
टीम की राय क्या थी, मुझे नहीं पता। अलबत्ता बताने वालों का कहना है कि भारती जी
समय के इतने पाबंद थे कि उनके आने और जाने से घड़ी मिलाई जा सकती थी। किसी ने यह
भी बताया कि ऐसा लोकल ट्रेन के समय के कारण था। वे लोकल ट्रेन से आते-जाते थे।
साहित्यकार-पत्रकार
भारती जी साहित्यकार के रूप में स्थापित थे,
इसलिए उन्हें धर्मयुग के संपादक का पद मिला। हिंदी में शुद्ध-पत्रकार की परंपरा थी
नहीं और थी भी तो क्षीण थी। संपादक बनने के पहले वे इलाहाबाद विवि में हिंदी के
प्राध्यापक थे, पर उनके पास पत्रकारिता से जुड़े अनुभव भी थे। 1946-47 में अपनी
एमए की पढ़ाई के दौरान उन्होंने मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित पत्रिका अभ्युदय
में अंशकालीन पत्रकार के रूप में काम किया था। उसके बाद 1948-50 के दौरान संगम में
काम किया, जिसमें उनके साथ ओंकार शरद भी काम करते थे, जो बाद में उसी लीडर प्रेस के
दैनिक भारत के संपादक बने।
संगम का प्रकाशन 15 अगस्त, 1947 से शुरू हुआ
था। उसके संपादक इलाचंद्र जोशी थे। इस दौरान उन्होंने जो लिखा, शायद वह उससे
ज्यादा था, जितना उन्होंने धर्मयुग में रहकर लिखा होगा। वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम
राव ने एक जगह लिखा है, धर्मयुग में डॉ भारती ने स्वयं काफी कम लिखा। उनसे पूछा तो
वे बोले, खुद लिखता रहूंगा तो दूसरे को पढ़ नहीं पाऊंगा। हिंदी के प्राध्यापक रहते
हुए वे नयी कविता और निकष के परामर्शदाता भी थे। पर उस पत्रकारिता को उनके
साहित्यिक-कर्म के साथ ही जोड़ना चाहिए।
युद्ध-रिपोर्ताज
धर्मयुग में उन्होंने बांग्लादेश-युद्ध के जो
रिपोर्ताज लिखे, वे उल्लेखनीय हैं। पत्रकारिता और रचनात्मकता दोनों लिहाज से। 7
मार्च 1971 को जब उन्होंने सुना कि शेख मुजीबुर्रहमान ने पूर्वी पाकिस्तान के अवाम
को आगाह कर दिया है कि वे आरपार की लड़ाई के लिए तैयार रहें, तो भारती जी को भी
लगा कि हालात को खुद चलकर देखा जाए, पर कैसे? बांग्ला
भाषा आती नहीं और कुछ पता भी नहीं। बहरहाल कलकत्ता विवि के हिंदी प्राध्यापक और
अपने मित्र विष्णुकांत शास्त्री और टाइम्स ऑफ इंडिया के फोटोग्राफर बालकृष्ण को
साथ लेकर निकल पड़े।
कलकत्ता में भारतीय सेना के पूर्वी कमान के
मुख्यालय में आने के बाद पता लगा कि दिल्ली से अनुमति के बगैर पूर्वी कमान किसी
पत्रकार को भारतीय सीमा पार करके कहीं जाने की अनुमति नहीं देगा। अनुमति लेने में
चार-पाँच तो लगेंगे ही। ऐसे में उनकी मुलाकात मनुभाई भीमानी से हुई। पुराने
स्वतंत्रता सेनानी और राम मनोहर लोहिया के सहयोगी रह चुके भीमानी जी की पूर्वी
बंगाल में जूट मिलें थीं और अच्छे संपर्क भी थे। उन्होंने कहा, चलो बिना सेना की
अनुमति के। कालीगंज क्षेत्र से स्टीमर पर बैठकर नदियों के रास्ते चल दिए। पर
शुरुआती दिनों में यह स्पष्ट नहीं था कि किस इलाके पर पाकिस्तानी सेना का अधिकार
है और किसपर मुक्तिवाहिनी का। 30 नवंबर 1971 को कालीगंज से लौटकर जेसोर रोड पर
चले। कार्यक्रम था कि वहाँ से सीमा पार करके मुक्तिवाहिनी के जेसोर सेक्टर में
प्रवेश करेंगे।
आगे जाकर पता लगा कि सीमा तो दूर इच्छामती के
पुल से ही रास्ता बंद है। उस पार जाना असंभव। उधर तीन स्पेशल बसों में भरकर दो सौ
के आसपास देशी-विदेशी पत्रकार और पहुँचे हुए थे। दिल्ली से परमीशन आ गई थी, पर
पूर्वी कमान के पीआरओ डायरेक्टर कर्नल रिखी ने पत्रकारों को शिलांग भिजवा दिया। फिर
पता लगा कि शिलांग से सैकड़ों मील दूर मेघालय और सिलहट की सीमा पर स्थित बलाट से
सीमा पार करेंगे। इस दौरान वे शरणार्थी शिविरों से होकर भी गुजरे। युद्धक्षेत्र
में उनकी यात्रा मेजर जनरल गंधर्व नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर से साथ शुरू हुई। उनसे
कहा गया, ‘यह समझ लीजिए कि जो हम आएंगे, वह आप खाएंगे, जहाँ हम सोएंगे वहाँ आप
सोएंगे। और याद रखिए यह युद्ध का मैदान है।’
युद्ध का माहौल कैसा रहा होगा, इसका अनुमान
उनकी एक रिपोर्ट के एक पैरा ग्राफ से लगाएं: ‘…और हमारा मुड़ना था कि शू…शू…शू…शिक! कोई चीज़ हमारे पास से गुजरती है और पास की रेत में धँस जाती है। रेत
का गुबार उठता है। पलक मारते ब्रिगेडियर क्लेर लेट जाते हैं और अपने साथ जनरल को
खींच लेते हैं-लाई डाउन!
दुश्मन फायर कर रहा है…और वाक्य पूरा नहीं
होता। हम लेट भी नहीं पाते कि शू…शिक और फिर बौछार। मेरी आँखों के आगे एक क्षण के
लिए घुप अंधेरा-सा और फिर लाल चकत्ते से। शायद भय, शायद…! साथ
के दो विदेशी फोटोग्राफर कंक्रीट स्लैब के नीचे हैं, उसके बाद बाहर जनरल नागरा और
सबसे इधर खुले में मैं। वे चीजें हमारे ऊपर से गुजर रही हैं और बस 5 गज़, 6 गज़ की
दूरी पर गिर रही हैं। दिल की धड़कनें रुकने सी लगी हैं। क्लेर कुछ कहते हैं पर
हमारे कान सिर्फ शू…शू…शिक! सुन रहे हैं।’
एक पैरा ग्राफ की
शुरुआत इस तरह से होती है, ‘और मृत्यु-यात्रा का
दूसरा चरण शुरू होता है।’ एक और वाक्य, ‘यह
मुक्ति-संग्राम, यह रक्त-मुक्ति में उभरता नया देश, यह करवट लेते हुए खेत…कहाँ है
भय? कहाँ है निरर्थकता, क्या किसी ऐसे ही क्षण में
बांग्लादेश की किसी नदी संध्या के क्षण में रवींद्र ने कहा था: शून्यमने कोथाय ताकास/सकतल बातास, सकल आकाश…।’ रिपोर्टों में किसी न किसी नए कारनामे का विवरण होता।
धर्मयुग की उन रिपोर्टों को जब वे प्रकाशित
होती थीं, लखनऊ में हम अपने मोहल्ले में सामूहिक रूप से पढ़ते थे और धर्मयुग के वे
अंक अलग से सहेज दिए जाते थे। धर्मयुग में ‘मुक्त
क्षेत्रे-युद्ध क्षेत्रे’ शीर्षक से प्रकाशित ये रिपोर्टें बाद
में युद्ध-यात्रा के नाम से पुस्तकाकार भी छपीं। इन रिपोर्टों को आप साहित्यिक या
पत्रकारीय विवरण जैसा चाहे पढ़ें।
इस पुस्तक में प्रकाशित लेखों का अनुक्रम
सृजनात्मक गर्मियाँ इलाहाबाद की/ डॉ धर्मवीर
भारती, अंतरंग धर्मयुग/ पुष्पा भारती, पत्रकारिता की कसौटी पर धर्मवीर भारती/ अच्युतानंद
मिश्र, भारती जी की कविताओं में भी पत्रकारिता की बू आती है/ उषा किरण खान,
‘अभ्युदय’ से पत्रकारिता का जीवन प्रारम्भ करने वाले भारती जी/ डॉ. धनञ्जय चोपड़ा,
धर्मयुग: एक दीर्घ रचना-प्रक्रिया/ प्रमोद जोशी, लिखते समय पत्रकार अकेला नहीं
होता: डॉ. धर्मवीर भारती/ आलोक तोमर, मेरी प्रतिबद्धता/ उदयन शर्मा, मैं निडर होकर
‘मुक्ति संग्राम’ के मोर्चे पर था: धर्मवीर भारती/ रमेश निर्मल, डॉ धर्मवीर भारती:
एक वार-रिपोर्टर/ के विक्रम राव, हिंदी और धर्मवीर भारती की पत्रकारिता/ शांता
कुमार, हिंदी लिटरेचर और जर्नलिज्म के सुपरस्टार भारती जी/ विनोद तिवारी, तो भारती
जी इतने बड़े थे/ अरविन्द मोहन, ‘लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट’ कप्तान थे भारती जी/
विश्वनाथ सचदेव, डॉक्टर सा’ब पत्रकारिता का ‘हेड मास्टर’!/ रविन्द्र श्रीवास्तव,
धर्मयुग से नाता बचपन से ही जुड़ गया था/ पुष्पेश पंत, ‘गुनाहों का देवता’ …यह थी
डॉ धर्मवीर भारती से मेरी पहली भेंट/ त्रिलोक दीप, उस गली से इस गली तक/ चित्रा
मुद्गल, भारती जी हिंदी पत्रकारिता के सूर्य हैं/ सुरेन्द्र शर्मा, मेरे गुरुओं के
गुरु डॉ धर्मवीर भारती/ संतोष भारतीय, कठोर संपादक का स्नेहिल अवतार : धर्मवीर
भारती/ बुद्धिनाथ मिश्र, सत्ताईस बरस अनवरत/ महेश दर्पण, वो दो चार महीने का वक्फा/
दिनेश लखनपाल, सर्जक धर्मवीर भारती/ राजीव सक्सेना, डेढ़ गो बोझा दीयर में खलिहान/
चंद्रकिशोर जायसवाल, ‘धर्मयुग’ भारती जी के समग्र व्यक्तित्व का प्रतिबिंब था/
सविता मनचंदा. डॉ भारती मेहनत करने और कराने वाले संपादक थे/ अनुराग चतुर्वेदी,
मधुरिम रिश्तों के बीच डा धर्मवीर भारती/ प्रो सुशील राकेश, धर्मयुग का भारती
कुलम्/ टिल्लन रिछारिया, रिश्ते बनाने और निभाने में बड़े माहिर रहे भारती जी/
अनिता गोपेश, अपना लोकनाथ किसी से उन्नीस नहीं पड़ना चाहिए/ यश मालवीय, धर्मयुग का
शिखर काल और संपादक धर्मवीर भारती/ डॉ सीमान्त प्रियदर्शी, संपादकों के संपादक
धर्मवीर भारती/ राजकुमार सिंह, हमारी शरारतें और भारती जी की अन्तरंग पत्रकारिता/
सुरेन्द्र सुकुमार, धर्मयुग की पत्रकारिता, भारती
जी और हम/ सुनील श्रीवास्तव, पत्र… ‘संपादक धर्मयुग’ के नाम/ अरविन्द मालवीय
धर्मवीर भारती की शख्सियत और पत्रकारिता
संपादक: रवींद्र श्रीवास्तव, सुनील श्रीवास्तव और (स्व.) टिल्लन रिछारिया

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