अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने ‘बेगम का तकिया’ नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।
व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ‘ज्ञानकोश’ नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग ‘शब्दों का सफर’ की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।
बात यह समझ में आई कि
शब्दों की पड़ताल विशेषज्ञता और एक किस्म का जुनून माँगती है। अजित वडनेरकर के
अलावा मुझे नवभारत टाइम्स दिल्ली के नीरेंद्र नागर का नाम याद है, जिन्होंने न
केवल हिंदी, बल्कि रोज़मर्रा की अंग्रेजी पर आलिम
सर के नाम से काफी रोचक साहित्य रचा
है। ये दोनों भाषा विज्ञानी नहीं हैं। पत्रकार के
रूप में हिंदी को बरतते रहे हैं। हाल के वर्षों में डॉ रमेश चंद्र मेहरोत्रा ने
हिंदी के शब्दों को लेकर काफी साहित्य-सृजन किया, जो पाठकों के लिए उपलब्ध है। इसी क्रम में याद आती है भोलानाथ तिवारी की
छोटी सी किताब ‘शब्दों का जीवन।’ 1954 में पहली बार
प्रकाशित उस किताब में उन्होंने शब्द जनमते हैं, शब्द बढ़ते हैं, शब्द उलटते हैं,
शब्द बोलते हैं, शब्द मनोरंजक होते हैं, शब्द चलते हैं, शब्द मोटे होते हैं, शब्द
संगति से प्रभावित होते हैं, शब्द उन्नति करते हैं, शब्द अवनति करते हैं, शब्द
दुबले होते हैं, शब्द घिसते हैं से लेकर शब्द मरते हैं तक छोटे-छोटे अध्याय लिखे
हैं, जो बड़ी रोचक कहानी कहते हैं।
जो शब्द समय की धारा
में बह नहीं पाते, वे डूब भी जाते हैं। डॉ अमरनाथ झा ने हिंदी के कुछ ऐसे शब्दों
की जानकारी दी थी, जो अब प्रचलन से पूरी तरह बाहर हो गए हैं। हिंदी की तुलना में
दूसरी भाषाओं में भी काफी काम हुआ होगा, पर मेरी सीमित जानकारी हिंदी को लेकर है,
और दिलचस्पी भी उसमें है। केवल शब्दों में ही नहीं भाषा की कला, संस्कृति, राजनीति
और कारोबार में भी। इसी क्रम में डॉ सुरेश पंत की ताज़ा पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ का आगमन हुआ
है, जिसमें 128 छोटे-छोटे अध्यायों में हिंदी के शब्दों और भाषा से जुड़े कुछ और
मसलों पर सरल और रोचक विवरण दिया गया है।
तमाम शब्द ऐसे होते हैं, जो दूर से एक ही अर्थ
देते प्रतीत होते हैं, पर उनके नज़दीक जाएं, तो शक्ल बदल जाती है। पंत जी ने ‘अर्थ,
आशय, अभिप्राय, तात्पर्य और भावार्थ’ शब्दों के
अलग-अलग और मिलते अर्थों पर एक छोटा सा अध्याय लिखा है। एक जगह ‘अधिक, अधिकांश और अधिकतर’ शब्दों का
विवेचन किया है। उसे पढ़ते समय मुझे अधिसंख्य शब्द याद आ गया। नवभारत टाइम्स, लखनऊ
में काम करते समय हमारे स्थानीय संपादक रामपाल सिंह जी ने सच्चिदानंद हीरानंद
वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के कुछ निर्देशों का ज़िक्र किया था। तब हम अधिकांश और अधिसंख्य के
फर्क को व्यक्त करने में सावधानी बरतने लगे।
शब्दों के अर्थ जो भी हों, महत्व उनके रूढ़
होने का होता है। कार्यवाही या कार्रवाई? पंत जी ने लिखा है कि अर्थ की दृष्टि
से ‘कार्यवाही और कार्रवाई’
में विशेष अंतर नहीं है। पहले का संबंध संस्कृत से है और दूसरे का फारसी से। फारसी
में कार का अर्थ कार्य है और रवाई का अर्थ है कार्य पूरा होना। हिंदी में
धीरे-धीरे कार्रवाई शब्द अंग्रेजी के ‘एक्शन’ और कार्यवाही ‘प्रोसिडिंग’ के
अर्थ में रूढ़ होते जा रहे हैं। इस सिलसिले में वात्स्यायन जी का एक सुझाव मुझे
जँचा था, जो रूढ़ नहीं हो पाया। वे चाहते थे कि विज्ञानी शब्द का इस्तेमाल ‘साइंटिस्ट’ के लिए और वैज्ञानिक का ‘साइंटिफिक’ के लिए किया जाए, तो अंतर पता लग
सकेगा। फिलहाल वैज्ञानिक शब्द दोनों अर्थ देता है।
ऊपर मैंने बात तकिया शब्द से शुरू की थी। पंत
जी ने ‘तकिया कलाम उर्फ टेक’
शीर्षक से एक अध्याय लिखा है, जिसमें उन्होंने बताया है कि तकिया किस तरह से टेक
का काम करते-करते ‘तकिया कलाम’ बन
जाता है। तकिया कलाम के साथ ही उन्होंने कुछ प्रारंभक शब्दों का ज़िक्र किया है,
जिनसे अक्सर लोग अपनी बात की शुरुआत की है। आप किसी टीवी चैनल पर विमर्श सुनें या
एंकर और संवाददाता के बीच का संवाद सुनें, तो पाएंगे की जवाब देने वाला पहला शब्द
बोलता है, देखिए, ऐसा है वगैरह। यह प्रारंभक है। उन्होंने कुछ प्रारंभक गिनाए हैं।
जैसे: बात यह है, ऐसा है, सुनिए, हाँ तो, असल में,
मैं कह रहा था, अच्छा देखो, दरअसल या खाली जी।
हिंदी में तमाम शब्द दो शब्दों के मेल से बने
हैं। इन्हें जोड़ने के लिए संधियों के नियम हैं। काफी लोग संस्कृत में इन नियमों
को खोजते हैं। काफी संधियाँ संस्कृत वाली हिंदी पर लागू हो जाती हैं, पर आचार्य
किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार ‘हिंदी सर्वत्र संस्कृत
नियमों से बँधी नहीं है, संस्कृत में जहाँ दीनबंधु चलता है, हिंदी ने वहाँ दीनानाथ
भी स्वीकार किया है।’ पंत जी के अनुसार दीनानाथ संस्कृत व्याकरण
के अनुसार अशुद्ध है, दीन और नाथ में समास करने से दीननाथ बनता है, पर हिंदी में
दीनानाथ ही ठीक है। बावजूद इसके कि दीनानाथ का संधि विच्छेद करने पर दीन+अनाथ
होगा और पद का अर्थ ही बदल जाएगा। इसी तरह उत्तर और खंड मिलकर उत्तराखंड। कहने का
मतलब यह कि यह तर्क ठीक नहीं कि संस्कृत में जैसा है, हिंदी में भी ठीक वैसा ही
होना चाहिए।
हिंदी में रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं
हैं। आशीर्वाद को आप कई जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। शिरोरेखा रेफ यानी
अक्षर के सिरपर मुकुट की तरह विराजने वाले के ‘र्’ के
अलावा एक तरफ झुके हुए डैश की तरह व्यंजन के पैरों से जुड़ने वाला स्वर सहित पूरा ‘र’ जब किसी हलंत व्यंजन
से जुड़ता है, तो उसकी आकृति दो तरह से बनती है। एक क्रुद्ध, द्रव्य, प्रूफ की तरह
और दूसरी राष्ट्र, ट्रेन और ड्रामा की तरह। हलंत ‘र्’ का क अन्य प्रकार है, जो देवनागरी में हैं, पर उसका हिंदी
में इस्तेमाल देखा नहीं गया है। यह कोंकणी, मराठी और नेपाली में देखा गया है।
हिंदी की सहभाषाओं जैसे ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी और कुमाउँनी की बोलचाल में व्यवहृत है।
किताब में कुछ टैबू शब्दों का ज़िक्र भी है।
इनमें ऐसे शब्द हैं, जो पूरे देश में ही टैबू माने जाते हैं और कुछ ऐसे शब्द हैं,
जो किसी इलाके में टैबू या अटपटे हैं और दूसरे इलाके में स्वीकार्य। यह रोचक विवरण
है। सबसे अंत में पूर्ण विराम पर छोटा सा विमर्श है। हिंदी में खड़ी पाई और
अंग्रेजी के बिंदु या डॉट की तरह से पूर्ण विराम लगाने की पद्धति का इस्तेमाल हो
रहा है। उन्नीसवीं सदी के पहले तक की हिंदी में संस्कृत की पद्धति से खड़ी पाई का
प्रयोग ही होता था। संभवतः उन्नीसवीं सदी के शुरू में हिंदी के छापाखाने और
प्रकाशन का विस्तार होने के साथ अंग्रेजी से जब विरामादि चिह्न उधार में लिए गए
होंगे, तब डॉट वाला पूर्ण विराम भी साथ में आया।
ऐसी तमाम बातें इस किताब में हैं, जो सामान्य
पाठक की जानकारी में तो हैं, पर वह उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। भाषा का इस्तेमाल
बढ़ता है, तो उसके साथ कई तरह की बारीकियाँ जुड़ती है, जो पढ़ने और लिखने वालों की
दिलचस्पी का विषय हो सकती हैं। डॉ सुरेश पंत ने इस पुस्तक के सिलसिले में अपनी
फेसबुक पोस्ट में जो लिखा है, उससे भी कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
उन्होंने लिखा, ‘मुझे बताया
गया है कि पुस्तक मेले के दौरान "शब्दों के साथ-साथ" की माँग अन्य किसी
भी पुस्तक की अपेक्षा अधिक रही। यह तब है जब मेला शुरू होने के तीन दिन बाद पुस्तक
स्टॉल में पहुँच पाई। उसके लिए न तो विमोचन, लोकार्पण जैसे
तामझाम हुए; न चर्चा गोष्ठियाँ या भाषण सत्र और न
किन्हीं बड़े हस्ताक्षरों या स्वनामधन्यों के साथ फोटो सेशन…कुछ पाठकों का प्रोफ़ाइल सरसरी तौर पर खँगालते हुए लग
रहा है कि पाठकों में विविध प्रकार के लोग हैं- वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षक, विद्यार्थी, प्रशासक, मीडिया संस्थानों व
विज्ञापन कार्यालयों में कार्य करने वाले, फ्रीलांसर और
सिविल सेवा तथा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के परीक्षार्थी और स्वांत:सुखाय पढ़ने
वाले हिंदी प्रेमी। हिंदी क्षेत्र के ही नहीं अहिंदी भाषी क्षेत्रों से भी। नेपाल, यूएई, यूके और यूएस से भी
लोगों ने जानना चाहा है कि उन्हें कैसे मिल सकेगी।’
किताब का प्रकाशन एक बड़ा आयोजन है, जो ठीक से
छप जाए, तो सामान्य बात है, पर उसमें छोटी सी गलती रह जाए, तो बड़ी बात होती है।
पुस्तक में ‘कुछ कहना है…’ शीर्षक से
लिखी गई भूमिका में एक वाक्य है, ‘स्वतंत्रता प्राप्त के
बाद इस भावना को उड़ान के लिए नए पंख तब मिले जब इसे संविधान द्वारा राष्ट्रभाषा
का सम्मान दिया गया।’ यह टाइपो है। यहाँ राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा पढ़ा जाना चाहिए। पंत जी की
फेसबुक पोस्ट से भी लगता है कि प्रकाशन में तेजी के बावजूद पुस्तक को मेले तक आने
में तीन दिन का विलंब हुआ। ऐसे में इस प्रकार की त्रुटि बड़ी बात नहीं है, पर बच्चों
को राजभाषा और राष्ट्रभाषा के फर्क को बताने की जरूरत भी है। बहरहाल पुस्तक रोचक और
बहुपयोगी है।
शब्दों के साथ-साथ
लेखक: डॉ सुरेश पंत
प्रकाशक: हिन्द पॉकेट बुक्स, पेंगुइन रैंडम हाउस
पृष्ठ: 286, मूल्य: 250 रुपये
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