सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार 20 नवंबर को राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति देने के लिए पहले इसी अदालत द्वारा निर्धारित अपनी ही समय-सीमा वापस ज़रूर ले ली, पर असाधारण स्थितियों में राज्यों के लिए अदालत का दरवाज़ा भी खुला रहने दिया है। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाले पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायालय कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकता।
न्यायालय ने यह भी कहा है जब कोई राज्यपाल कानून बनाने की प्रक्रिया में ‘लंबी, अस्पष्ट और अनिश्चित’ देरी का कारण बने, तब राज्य सरकार अदालत की शरण ले सकती है। इस तरह से अदालत ने केंद्र और राज्यों के बीच एक जटिल राजनीतिक मुद्दे में नाज़ुक संतुलन बनाने की कोशिश की है। अदालत ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि 8 अप्रैल के फैसले के कारण तमिलनाडु के जिन 10 कानूनों पर राज्यपाल की स्वीकृति मान ली गई थी, उनकी स्थिति क्या होगी। कुछ संविधान विशेषज्ञ मानते हैं कि वे कानून बन चुके हैं और उनकी अधिसूचना गजट में भी हो चुकी है, इसलिए उन्हें स्वीकृत मान लेना चाहिए।
दशकों से देश राज्यपालों की भूमिका को लेकर
विमर्श कर रहा है, पर रास्ता अभी तक नहीं निकला है। हाँ इतना
जरूर हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के बोम्मई मामले में फैसले के बाद राज्यों में सरकारों
की बर्खास्तगी का चलन खत्म हो गया और सरकारों के बनने-बिगड़ने का स्वीकृत सिद्धांत
बन गया। अप्रैल में न्यायिक-हस्तक्षेप ऐसे समय में हुआ था, जब गैर-भाजपा दलों
द्वारा शासित राज्यों में राज्यपालों और सरकारों के बीच तनाव चरम पर था। खासतौर से
तमिलनाडु में एमके स्टालिन की डीएमके सरकार भाषा तथा मेडिकल प्रवेश के लिए
राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा ‘नीट’ से छूट को लेकर केंद्र
सरकार के साथ टकराव की मुद्रा में थी। इस मामले को लेकर तमिलनाडु सरकार 2023 में
सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुकी है। गत 15 नवंबर को उन्होंने एक और याचिका
दायर की है।
इस सलाह के संदर्भ में मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा
है कि सुप्रीम कोर्ट की राय का ‘8 अप्रैल, 2025 के फैसले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।’ उन्होंने
यह भी कहा कि जब तक संविधान में संशोधन करके इसे सुधारा नहीं जाएगा, हम चैन से नहीं बैठेंगे। इन बातों को अगले छह
महीनों में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव की पूर्व-पीठिका के रूप में भी
देखना चाहिए। देश में शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है। इसे लेकर कई तरह के टकराव
हैं। पिछले कुछ समय से तमिलनाडु सरकार ने तीन भाषा सूत्र, चुनाव-क्षेत्र परिसीमन
और ‘नीट’ जैसे मसलों को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ
मोर्चा खोल रखा है। इन मामलों के कारण राजनीतिक-कोलाहल तो हुआ है, पर बुनियादी तौर
पर कुछ हुआ नहीं है।
इस साल अप्रैल में, उच्चतम
न्यायालय के दो-न्यायाधीशों वाले पीठ ने राज्यपालों के लिए लंबित विधेयकों पर
कार्रवाई करने हेतु एक समय-सीमा निर्धारित की थी। अदालत ने पहली बार यह निर्धारित
किया था कि राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा विचारार्थ रखे गए विधेयकों पर तीन महीने के
भीतर निर्णय करें। यह निर्णय इस बात की स्वीकृति थी कि, हाल
के दिनों में, राजभवनों ने विपक्ष शासित राज्यों में राज्य
विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों में देरी करके एक अवरोधक भूमिका निभाई है।
चूँकि अदालत ने राष्ट्रपति को विलंब के परिणामों
पर सख्त समय-सीमा का निर्देश दिया था, इसलिए न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का सवाल
उठा। मई में सर्वोच्च न्यायालय को भेजे एक संदर्भ में, राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मू ने इस फैसले पर 14 महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे। मुख्य मुद्दा यह है कि
क्या न्यायालय ने राज्यपालों द्वारा उत्पन्न संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के
प्रयास में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का अतिक्रमण किया है, जो संविधान के मूल ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
अदालत ने अब संतुलित रुख अपनाते हुए अपनी सलाह
में कहा है कि न्यायपालिका को ‘विधायी प्रक्रिया में दखलंदाज़ी’ की अनुमति देना ‘शक्तियों
के पृथक्करण की दीवारों को तोड़ना’ होगा।’ साथ
ही यह भी कहा, ‘इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि न्यायिक समीक्षा भी मूल
ढाँचे का एक हिस्सा है... हालाँकि, यह न्यायिक समीक्षा कोई
बेलगाम दायरा नहीं है जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को नकार या नष्ट कर
सके।’
केंद्र सरकार ने भी अप्रैल के फैसले को लेकर
टकराव पैदा करने के बजाय, न्यायालय से राय माँगकर अच्छा
किया। वस्तुतः राज्यपाल को ‘रबर स्टैंप’ मानना भी अनुचित
है। संविधान ने राज्यपाल को एक ऐसी कड़ी के रूप में देखा है जो बहुस्तरीय व्यवस्था
के दो स्तरों को जोड़ती है, न कि उन्हें विभाजित करती है। अलबत्ता
अब न्यायालय की राय यह भी दर्शाती है कि उसकी भूमिका ‘स्पष्ट परिस्थितियों’ तक
सीमित है।
अब अदालत ने
अपनी सलाह में कहा है कि राज्यपालों की तथाकथित ‘निष्क्रियता’
के बावजूद, ‘संवैधानिक न्यायालय राज्यपाल और राष्ट्रपति के
विवेक और विचारों का स्थान नहीं ले सकते।’ तमिलनाडु विधानसभा से पास होने के
बावज़ूद दस विधेयकों को रोक कर रखने के राज्यपाल आरएन रवि के फैसले को अवैध करार
देते हुए अप्रैल में उच्चतम न्यायालय ने एक संवैधानिक पेच को खोल ज़रूर कर दिया, पर
इससे केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपालों की भूमिका से जुड़ी पहेलियों का हल पूरी
तरह नहीं हुआ था।
हाल के वर्षों में कुलपतियों की नियुक्ति,
राज्य विधान परिषदों में नामांकन और राज्यपाल द्वारा पारंपरिक
अभिभाषण के संपादन या सदन को बुलाने पर दुर्भाग्यपूर्ण रस्साकशी तो हुई ही है,
विधानमंडलों से पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी या इनकार जैसे
कार्य भी हुए हैं। तमिलनाडु, केरल और बंगाल में सरकारों और राज्यपालों के बीच ऐसे
कई विवाद खड़े हुए हैं।
विधानमंडल से पास हुए विधेयकों को रोकने की
शक्ति को लेकर 2023 में, पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम
कोर्ट ने माना था कि राज्यपाल निर्वाचित विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर
समयबद्ध तरीके से कार्य करने के लिए बाध्य हैं। अदालत के अप्रैल के फैसले ने उस
समयबद्धता को परिभाषित भी कर दिया। इससे विधानमंडल से पास हुए विधेयकों के बारे
में राज्यपालों का विशेषाधिकार सीमित हो गया था। इस निर्णय का महत्व तमिलनाडु के राज्यपाल
की निंदा से कहीं अधिक था।
अप्रैल में न्यायालय ने कहा था कि संविधान के
अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को ‘शीघ्रता से काम करना चाहिए’ और किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक रोककर वे ‘पॉकेट
वीटो’ का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अनुच्छेद 200 को अनुच्छेद 163 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जो राज्यपाल
को कैबिनेट की सलाह पर काम करने के लिए बाध्य करता है। यदि कैबिनेट की सलाह के
विपरीत राज्यपाल किसी विधेयक को मंजूरी नहीं देते हैं या उसे सुरक्षित रखते हैं,
तो उन्हें ऐसा तीन महीने के भीतर करना होगा। दोबारा पारित विधेयकों
के लिए समय-सीमा घटाकर एक महीना कर दी गई।
तमिलनाडु सरकार ने शनिवार (15 नवंबर) को सुप्रीम
कोर्ट का रुख करते हुए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) से छूट देने वाले विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी न दिए जाने के फैसले को फिर चुनौती दी है। ‘नीट’ से छूट हासिल करना राज्य के दशकों पुराने नीतिगत
विमर्श का फिलहाल अनिर्णीत अध्याय है।
केंद्रीय नीति के खिलाफ राज्य का कानून बनाने का
इतना लंबा कोई अन्य प्रयास नहीं रहा है। सितंबर 2017 में,
‘नीट’ विरोधी दो विधेयकों का राष्ट्रपति भवन में यही हश्र हुआ। चार साल बाद,
सत्तारूढ़ डीएमके ने, ‘नीट’ से छूट को
अपना चुनावी वायदा बनाया। सरकार बनाने के बाद जस्टिस एके रंजन कमेटी की सिफारिशों
के आधार पर विधानसभा में 2021 में विधेयक पारित किया। उसे स्वीकृति नहीं मिली,
जिसे लेकर सरकार अब फिर सुप्रीम कोर्ट गई है।

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