नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 26 मार्च तक देश की अदालतों में चार करोड़ 54 लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 46.43 लाख से ज्यादा केस 10 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 से 15 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है। सामान्य व्यक्ति के नजरिए से देखें तो अदालती चक्करों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते।
सरकार और न्यायपालिका लगातार कोशिश कर रही है कि कम से कम समय में मुकदमों का निपटारा हो जाए। यह तभी संभव है जब प्रक्रियाएं आसान बनाई जाएँ, पर न्याय व्यवस्था का संदर्भ केवल आपराधिक न्याय या दीवानी मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का अधिकार देने, मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने, मानवाधिकारों तथा अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए भी उपयुक्त न्यायिक संरक्षण की जरूरत है। उसके पहले हमें अपनी न्याय-व्यवस्था की सेहत पर भी नज़र डालनी होगी, जिसके उच्च स्तर को लेकर कुछ विवाद खड़े हो रहे हैं।
इस समय सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? अक्सर कहा जाता है कि देश में न्यायपालिका का ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर उसके भीतर और बाहर से सवाल उठने लगे हैं। उम्मीदों के साथ कई तरह के अंदेशे हैं। कई बार लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है। पर न्यायिक जवाबदेही को लेकर हमारी व्यवस्था पारदर्शी नहीं बन पाई है।
न्यायपालिका को स्वतंत्र होना चाहिए और उसे सरकारी दबाव से भी बाहर होना चाहिए। सच यह भी है कि संविधान ने कानून बनाने और न्यायिक नियुक्तियों के अधिकार विधायिका और कार्यपालिका को दिए हैं। दो राय नहीं कि कार्यपालिका को भी निर्द्वंद नहीं होना चाहिए। न्यायपालिका को लेकर संदेह व्यक्त करना, न्यायिक अवमानना की श्रेणी में इसीलिए रखा जाता है, क्योंकि वह संदेह से परे होनी चाहिए। सवाल है कि यदि न्यायपालिका के भीतर के मसले अस्पष्ट और अपारदर्शी हैं और उन्हें लेकर भीतर से ही सवाल उठ रहे हैं, तो उनका निदान क्या है?
दिल्ली में नोटों की जलती गड्डियों ने इन सारे सवालों को एकसाथ उठा दिया है? हम किधर जा रहे हैं? न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर नोटों की गड्डियों से जुड़े विवाद के बीच, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 2014 में संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम का जिक्र करते हुए मंगलवार को कहा कि न्यायिक नियुक्तियों की व्यवस्था को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द नहीं किया होता तो ‘चीजें अलग होतीं।’ धनखड़ ने इस मुद्दे पर चर्चा के लिए पार्टियों के नेताओं के साथ बैठक भी की। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह बैठक कॉलेजियम प्रणाली, पर राजनीतिक दलों, खासतौर से विरोधी दलों का दृष्टिकोण जानने का प्रयास हो सकता है।
सरकार ने इस सिलसिले में कोई प्रस्ताव नहीं रखा है, इसलिए इस बैठक से कोई बात निकल कर नहीं आई, पर लगता है कि न्यायपालिका को लेकर राजनीतिक दलों के भीतर वह आमराय भी इस समय नहीं है, जैसी 2014 में थी। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से जुड़ा विधेयक 2014 में संसद ने पास किया था, लेकिन 2015 में उच्चतम न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। एनजेएसी अधिनियम में कहा गया था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में छह सदस्यीय निकाय द्वारा की जाएगी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो ‘प्रतिष्ठित’ व्यक्ति शामिल होंगे। दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन प्रधानमंत्री, सीजेआई और लोकसभा में विरोधी दल के नेता वाले पैनल द्वारा किया जाना था।
उच्चतम न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए कहा कि ऐसी वैकल्पिक प्रक्रिया को स्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता जो जजों के चयन और नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका की प्रधानता सुनिश्चित नहीं करती हो। 2014 में, दोनों सदनों में, एआईएडीएमके को छोड़कर, जो मतदान में शामिल नहीं रही थी, सभी दलों ने इसका अनुमोदन किया। बाद में 50 प्रतिशत से अधिक राज्यों ने, जिनमें कांग्रेस और वामपंथी दलों द्वारा शासित राज्य भी शामिल थे, एनजेएसी कानून का अनुमोदन किया था। पर यह आमराय तभी तक रही।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विरोधी दलों के एक खेमे की राय है कि उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति पर सरकारी नियंत्रण नहीं होना चाहिए। औपचारिक रूप से ये नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं जो संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल की अनुशंसाओं को मानते हुए ऐसा करते हैं। देश का संविधान ऐसे समय तैयार किया गया था जब राजनेताओं की ईमानदारी और लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा को लेकर बड़े संशय नहीं थे। शुरुआती वर्षों में कार्यपालिका द्वारा शक्ति के दुरुपयोग के उदाहरण भी देखने को नहीं मिले। पर समय के साथ राजनीतिक माहौल बदल गया है।
घूम-फिरकर सारी बातें राजनीति पर आती हैं, जिसकी गैर-जिम्मेदारी भी जाहिर है। सवाल केवल न्यायिक प्रणाली में सुधार का ही नहीं है, संपूर्ण व्यवस्था के स्वास्थ्य का है। 2018 में जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसफ ने मुख्य न्यायाधीश और अपने सहयोगी जजों को चिट्ठी लिखी थी, जिसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बचाए रखने की अपील की गई थी। पद पर बने रहते हुए ही न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने न्यायाधीशों के चयन के लिए बनाए गए 'कॉलेजियम' व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। इसके पहले जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक संवाददाता सम्मेलन में न्यायपालिका के भीतर के सवालों को उठाया था।
आम शिकायत है कि देश में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग आपस में रेवड़ियाँ बाँटते हैं। अदालतों में वरिष्ठ और नामी-गिरामी वकीलों की पौबारह देखी जा सकती है। परिवारों का परिवारों से रिश्ता, भाई-भतीजावाद छिपाए नहीं छिपता। इस सिलसिले में जस्टिस कुरियन जोसफ और जस्टिस चेलमेश्वर की एक घोषणा ने ध्यान खींचा था। उन्होंने कहा, हम रिटायरमेंट के बाद कोई सरकारी पद नहीं लेंगे। दोनों का कहना था कि सरकार और न्यायपालिका के बीच जरूरत से ज्यादा मेलजोल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। यह बात मौजूदा सरकार के संदर्भ में ही नहीं, अब तक की सभी सरकारों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
सवाल समस्या का नहीं समाधान का है। किसी एक निकाय में शक्तियों का केंद्रित होना लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। ऐसे मसलों में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को एकसाथ आना चाहिए। सुधारों की पहल न्यायपालिका के भीतर से भी आनी चाहिए। इसलिए सकारात्मक सुझावों को बढ़ावा देने की जरूरत है। राजनीतिक धरातल पर भी आम सहमति होनी चाहिए। आज की परिस्थिति में राजनीति जिस गलाकाट स्तर पर आ चुकी है, उसमें क्या ऐसा संभव है? हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार से जुड़े कुछ मामलों में न्यायिक सक्रियता के कारण ही कार्रवाई हो पाई। इतना ही नहीं चुनाव सुधार से जुड़े अनेक कानून केवल सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही लागू हो पाए।
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