श्रीलंका
पोडुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) के उम्मीदवार गोटाबेया राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत दर्ज की है। सेना के पूर्व
लेफ्टिनेंट कर्नल गोटाबेया अपने देश में ‘टर्मिनेटर’ के नाम से मशहूर हैं, क्योंकि लम्बे समय तक चले तमिल आतंकवाद को कुचलने में
उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। अब उनके चुनाव के बाद भारत के नजरिए से दो बड़े सवाल
हैं। अलबत्ता भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिणाम आते ही गोटाबेया
राजपक्षे को बधाई दी है, जिसके जवाब में उन्हें शुक्रिया का संदेश भी मिला है।
पहला सवाल है कि श्रीलंका के तमिल नागरिकों के प्रति उनका नजरिया क्या होगा? उनके नजरिए से साथ-साथ यह भी कि तमिल नागरिक
उन्हें किस नजरिए से देखते हैं। इसके साथ ही जुड़ा है वह सवाल कि देश के उत्तरी
तमिल इलाके का स्वायत्तता के सवाल पर उनकी भूमिका क्या होगी? इस तमिल-प्रश्न के अलावा दूसरा सवाल है कि चीन
के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? भारत सरकार की
निगाहें हिंद महासागर में चीन की आवाजाही पर रहती हैं और राजपक्षे परिवार को
चीन-समर्थक माना जाता है।
चीनी गतिविधियाँ
अक्तूबर 2014 में
जब वे देश के रक्षा सचिव के रूप में भारत आए थे, तब भारत के रक्षा सलाहकार अजित
डोभाल ने उन्हें चेताया था कि श्रीलंका ने चीनी युद्ध-पोतों को कोलम्बो बंदरगाह
में आने दिया है, जो हमें ठीक नहीं लगता। उस वक्त श्रीलंका का राष्ट्रपति उनके भाई
महिंदा राजपक्षे थे। अजित डोभाल के उस संदेश को ठीक से सुनने के बजाय श्रीलंका
सरकार ने उल्टा काम किया। उसके एक सप्ताह
बाद ही चीन की पनडुब्बी चैंगझेंग-2 और युद्धपोत चैंग छिंग दाओ पाँच दिन की यात्रा
पर कोलम्बो पहुँच गए। श्रीलंका सरकार ने कहा कि हमने भारत सरकार को इस यात्रा के
बारे में पहले से सूचित कर दिया था।
भारत सरकार और
श्रीलंका के राजपक्षे परिवार के बीच रिश्ते कड़वे ही रहे हैं। इतना ही नहीं जब जनवरी
2015 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे की पराजय के बाद उन्हें हराने
वाले मैत्रीपाला सिरीसेना ने का दिल्ली में भव्य स्वागत किया गया था। दूसरी तरफ
राजपक्षे परिवार ने आरोप लगाया था कि भारत के एक राजनयिक ने उन्हें हराने में
भूमिका निभाई थी। बहरहाल तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। यहाँ तक कि उन्हें
हराने वाले सिरीसेना के विचार भी बदल चुके हैं। पिछले साल तो उन्होंने भी दावा कर
दिया कि उनकी हत्या की कोशिश की जा रही है और उन्होंने भी इशारा भारत की ओर कर
दिया और 14 अक्तूबर को अपनी कैबिनेट से कहा था कि भारत की अंतरराष्ट्रीय खुफिया
एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) उनकी हत्या की साजिश रच रही है।
सिरीसेना-विक्रमासिंघे
विवाद
सिरीसेना और देश
के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे के बीच के विवाद के कारण हालात और बिगड़े।
राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया और महिंदा राजपक्षे को
प्रधानमंत्री बना दिया। हालांकि उन्हें भी वह पद छोड़ना पड़ा, पर प्रेक्षकों का
कहना था कि भारत को श्रीलंका की सत्ता के उस उलट-फेर से दूर रहना चाहिए। देश की
आंतरिक राजनीति में बहुत कुछ हो रहा है। सन 2015 में हुए 19वें संविधान संशोधन के
पहले तक राष्ट्रपति के पास काफी अधिकार थे, जो अब नहीं हैं। देश के सांविधानिक
व्यवस्था के अनुसार कोई व्यक्ति दो बार से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं बन सकता, इसलिए
इसबार गोटाबेया को पार्टी ने प्रत्याशी बनाया, पर इतना साफ है कि राजपक्षे परिवार
की ताकत कम नहीं हुई है।
मैत्रीपाला सिरीसेना के कार्यकाल
में श्रीलंका ने चीन के बजाय भारत और पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते सुधारे थे, जबकि
उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने 2005 से 2015 के बीच चीन के साथ
रिश्तों को प्राथमिकता दी। उन्होंने सन 2009 में लिट्टे उग्रवादियों का क्रूरता के
साथ दमन करके देश को आतंकवाद से भी बाहर निकाला था। कहा जा रहा है कि अब गोटाबेया
राजपक्षे एकतरफा तरीके से चीन के पक्ष में नहीं जाएंगे। इसका एक बड़ा कारण यह है
कि श्रीलंका में भी काफी लोग मानते हैं कि चीनी सहायता अंततः देश को कर्जदार बना
देती है और हमेशा के लिए देश दबाव में आ जाता है।
एक तरफ झुकाव की नीति
हम्बनटोटा बंदरगाह और मत्ताला
राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का उदाहरण सामने है। मजबूरी में हम्बनटोटा
बंदरगाह चीन को 99 सील के पट्टे पर देना पड़ा है। माना जाता है कि यह बंदरगाह भारत
की मदद के बगैर सफल नहीं होगा, क्योंकि इधर आने वाले ज्यादातर पोत भारत की तरफ
जाते हैं। यदि भारत इस बंदरगाह का इस्तेमाल करेगा, तभी इसका फायदा श्रीलंका को
मिलेगा। विशेषज्ञ मानते हैं कि श्रीलंका को चीन के साथ-साथ भारत, ओमान और सिंगापुर
के निवेश की जरूरत है। इसलिए उसे एक तरफ झुकाव वाली नीतियों से बचना होगा।
महिंदा राजपक्षे एक
अरसे से कहते रहे हैं कि उन्होंने भी अनुभवों से सीखा है और भारत के साथ उनके
रिश्ते संतुलित रहेंगे। दूसरी तरफ भारत सरकार ने भी श्रीलंका की राजनीति में दोनों
पक्षों के साथ संतुलन बरतने की कोशिश की है। इसके बावजूद देखना होगा कि गोटाबेया
किस रास्ते पर जाएंगे, क्योंकि पर्यवेक्षकों का कहना है कि उनका झुकाव चीन की तरफ
रहेगा। हाल में एक राजनीतिक रैली में गोटाबेया ने कहा था कि हमारी विदेश नीति
तटस्थ होगी और हम क्षेत्रीय विवादों से दूर रहेंगे। यहाँ सवाल केवल भारत का ही
नहीं है, लिट्टे के क्रूर-दमन के बाद अमेरिका के साथ भी श्रीलंका के रिश्ते खराब
हो गए थे। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जब अमेरिका ने इस मसले को उठाया, तो चीन ने
श्रीलंका का साथ दिया। गोटाबेया के खिलाफ अमेरिका की अदालतों में कई मुकदमे चल रहे
हैं।
चीन के कारण
पाकिस्तान के साथ भी श्रीलंका के रिश्ते महत्वपूर्ण हो जाते हैं। देश पर चीनी
कर्जे को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं, पर सिरीसेना सरकार भी देश को चीनी दबाव और
प्रभाव से बाहर निकाल नहीं पाई थी। गोटाबेया सिंहली राष्ट्रवाद की मदद से जीतकर आ
तो गए हैं, पर उन्हें तमिल और मुस्लिम नागरिकों को भी अपने साथ जोड़कर रखने की
जरूरत होगी। इन दोनों समुदायों का तमिलनाडु से रिश्ता है। इन क्षेत्रों के साथ
अच्छे रिश्ते बनाने के लिए उन्हें भारत की मदद की जरूरत भी होगी। गोटाबेया को
उत्तरी प्रांत के पाँचों जिलों में और पूर्वी प्रांत के तीन जिलों में पराजय का
सामना करना पड़ा है। तमिल और मुसलमान वोटरों ने उनके प्रतिस्पर्धी साजिथ प्रेमदासा
को वोट दिया था। हाल में हुई विस्फोट की घटनाओं के बाद से देश की मुस्लिम आबादी
सरकारी कार्रवाई से भयभीत है।
सिंहली
राष्ट्रवाद का उभार
गोटाबेया की जीत के पीछे ईस्टर-संडे के विस्फोटों के अलावा
देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति का हाथ भी है। एंटी इनकम्बैंसी के कारण सत्ता
परिवर्तन अनिवार्य माना जा रहा था। इसके अलावा सिरीसेना और विक्रमासिंघे के टकराव
के कारण भी जनता सत्ता-परिवर्तन चाहती थी। माना यह भी जा रहा है कि आने वाले समय
में गोटाबेया के भाई महिंदा राजपक्षे देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। नरेंद्र
मोदी के बधाई संदेश के अलावा भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने भी दोनों भाइयों से
मुलाकात की है।
देश के इस चुनाव में निवर्तमान राष्ट्रपति सिरीसेना की
श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) का कमजोर हो जाना भी एक बड़ी खबर है। सिरीसेना
ने गोटाबेया राजपक्षे का समर्थन किया था। गोटाबेया के विरोध में केवल युनाइटेड
नेशनल पार्टी का ही प्रत्याशी महत्वपूर्ण था। एसएलएफपी का राजपक्षे को समर्थन देना
काफी लोगों को हैरत की बात लगी है। जिस पार्टी से कभी चंद्रिका बंडारनायके
कुमारतुंगे, महिंदा राजपक्षे और मैत्रीपाला सिरीसेना जैसे नेता देश के राष्ट्रपति
बन चुके हैं उसका प्रत्याशी भी चुनाव में नहीं था। ऐसा पहली बार हुआ है। अब
राजपक्षे की एसएलपीपी न केवल नई, बल्कि देश की सबसे ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी
है। यह पार्टी 2016 में ही बनी है और उसका उभार पहली बार फरवरी 2018 के स्थानीय
निकाय चुनावों से देखने को मिला था। फिलहाल ऐसा लगता है कि श्रीलंका में भी
राष्ट्रवादी ताकत का उभार हो रहा है और मजबूत नेता का मांग की जा रही है, जो न
केवल दक्षिण एशिया के शेष देशों की प्रवृत्ति है, बल्कि वैश्विक राजनीति की बदलती
दिशा है।
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