Friday, November 29, 2019

ग्रामीण शिक्षा के लिए चाहिए सामाजिक क्रांति


गाँव और गरीबी का सीधा रिश्ता है। बड़ी संख्या में लोग गाँवों में इसलिए रहते हैं, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। वहाँ सड़कें नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं और स्कूल नहीं हैं, जो व्यक्ति को समर्थ बनाने में मददगार होते हैं। इस साधनहीनता का प्रतिफल है कि तमाम ऐसे प्रतिभाशाली बच्चे जो बेहतरीन डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक या खिलाड़ी बन सकते थे, पीछे रह जाते हैं। न वे शिक्षा के महत्व को जानते हैं और न उनके माता-पिता।
शिक्षा की गुणवत्ता पर बात करने के पहले उस सामाजिक समझ पर बात करनी चाहिए, जो शिक्षा के महत्व को समझती हो। इसके बाद पाठ्यक्रम, शिक्षकों के स्तर और उपलब्ध साधनों और उपकरणों से जुड़े सवाल पैदा होते हैं। हमारा लक्ष्य सन 2030 तक 3 से 18 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? युनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में 2016 में कहा गया था कि वर्तमान गति से चलते हुए भारत में सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा लक्ष्य 2050 तक ही हासिल हो सकेंगे। रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में भारत 50 साल पीछे चल रहा है। बेशक हमने पिछले कुछ वर्षों में अपने प्रयास बढ़ाए हैं, पर अपने लक्ष्यों को देखें, तो इनमें तेजी लाने की जरूरत है।

प्राथमिक शिक्षा की दशा
ग्रामीण शिक्षा का पहला आशय प्राथमिक शिक्षा है। उच्चतर शिक्षा के ज्यादातर केंद्र शहरों में हैं। वास्तव में ऐसे केंद्र गाँवों में भी होने चाहिए, पर कम से कम प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। इस सदी के शुरू होते समय यानी 2001 में 18 साल से कम उम्र के ग्रामीण बच्चों में केवल 25 फीसदी ही स्कूलों में पढ़ने जा रहे थे। शेष 75 फीसदी में से काफी को स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला और मिला भी तो उन्होंने कुछ समय बाद स्कूल जाना बंद कर दिया।
पिछले दो दशक में देश का ध्यान इस दिशा में गया है। सन 2016 में यह प्रतिशत 25 से बढ़कर 70 हो गया। पर केवल स्कूल जाने और स्कूलों के भवन बनाने से काम पूरा नहीं होता है। जरूरत शिक्षा की गुणवत्ता की है। पहला सवाल संसाधनों का है। यह विषय समवर्ती सूची में होने के कारण देशभर के सालाना बजटों में शिक्षा की स्थिति का अनुमान लगाना मुश्किल होता है, पर केवल केंद्र के बजट पर नजर डालने से एक झलक मिलती है।
इस साल केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति की रूपरेखा पेश की थी, इसलिए उम्मीद थी कि शिक्षा पर परिव्यय में वृद्धि होगी, पर ऐसा हुआ नहीं। अंतरिम बजट और उसके बाद जुलाई में पेश पूर्ण बजट में मामूली अंतर है। नई शिक्षा नीति में जिस राष्ट्रीय रिसर्च फाउंडेशन का सुझाव दिया गया है उसकी स्थापना का फैसला सरकार ने किया है। सरकार का रुझान अब भी प्राथमिक शिक्षा के बजाय उच्च शिक्षा पर है। स्वाभाविक रूप से इससे ग्रामीण शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
हमारी प्राथमिकताएं
आजादी के बाद शुरुआती दशकों में चीन और भारत की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि आर्थिक विकास की हमारी गति बेहतर थी। सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था, भारत समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत आज अदा कर रहा है। हमने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।
शिक्षा नीति-2019 ने अगले दस साल में शिक्षा पर सार्वजनिक परिव्यय दुगना करने का सुझाव दिया है, पर कोई बड़ा कदम नजर नहीं आया है। केंद्र ने 1 अप्रैल 2018 से 31 मार्च 2020 के लिए नई एकीकृत शिक्षा योजना बनाई है। इस समग्र शिक्षा अभियान में सर्व शिक्षा अभियान, राष्‍ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक शिक्षण अभियान समाहित हैं। बजट पर नजर डालने से लगता है कि पुराने कार्यक्रमों का विलय कर दिया गया है। संसाधन नहीं बढ़े हैं।
गाँवों में प्राथमिक शिक्षा का बुनियादी ढाँचा ही ठीक से नहीं बना है। गुणवत्ता के सवाल इसके बाद आते हैं। विडंबना है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद भी हम अपनी शिक्षा की बुनियादी जरूरतों, पाठ्यक्रम और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से जुड़े मूल्यों पर विचार कर रहे हैं। सन 2010 में जाकर हम शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित कर पाए और आज भी नागरिकों तक इस अधिकार को पहुँचाने में हमें संघर्ष करना पड़ रहा है।
शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ की सालाना रिपोर्टों ‘असर’ से पता लगता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है। सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है। आरटीई का सकारात्मक असर है कि 6-14 वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं।
असर रिपोर्ट 2018 के अनुसार, कक्षा आठ बच्चों में से, लगभग 73 प्रतिशत बच्चे ही कम से कम कक्षा दो के स्तर के पाठ पढ़ सकते हैं। बड़ी संख्या में बच्चे पहली पीढ़ी के छात्र हैं। उनके परिवारों में इससे पहले कोई पढ़ने नहीं गया। इसलिए वहाँ शिक्षा का माहौल बनाने और शिक्षित होने के लाभों को समझने-समझाने की जरूरत भी है। यह काम कैसे होगा? इसके लिए गाँवों और कस्बों से ऐसे रोल मॉडल खोजे जाने चाहिए जो केवल शिक्षा के सहारे आगे बढ़ने में कामयाब हुए। साथ ही हमें शिक्षा से जुड़ी गांधी की बुनियादी तालीम की अवधारणा पर भी गौर करना चाहिए।
गांधी की बुनियादी शिक्षा
अंगरेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और मशीनी स्वरूप को लेकर महात्मा गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। उन्होंने 1-9-1921के ‘यंग इंडिया’ में लिखा, ‘अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो-जहाँ अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है।...क्यों एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में निकम्मा बन जाय।...हमारी पाठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।’
बुनियादी तालीम का उनका विचार इस मनोदशा को तोड़ने वाला है। ‘बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। मैं मानता हूँ कि कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलाई जाय, आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध होगी।’ 22-23 अक्तूबर 1937 को वर्धा में 'अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन' हुआ, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। गांधी इस बुनियादी शिक्षा पर ही उच्च शिक्षा का भवन खड़ा करना चाहते थे।
स्वातंत्र्योत्तर शिक्षा
स्वतंत्रता के बाद से देश की शिक्षा-व्यवस्था में सुधार के लिए जो कोशिशें हुईं हैं, उनमें कई तरह के आयोग, नीतियाँ और समितियाँ शामिल हैं। पर सच यह है कि हमने प्राथमिक और खासतौर से ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर देर से ध्यान दिया। सन 1948-49 में हमने पहले विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए राधाकृष्ण आयोग का गठन किया और इसके बाद 1951 में प्राइमरी शिक्षा पर बीजी खेर समिति बनाई, जिसकी सिफारिशें 1952-53 के मुदलियार आयोग का हिस्सा बनीं।
इन सब आयोगों और समितियों के सहारे हम सन 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित करने में कामयाब हुए। इस नीति में विज्ञान और तकनीक को शिक्षा का बुनियादी आधार बनाने का लक्ष्य था। इसके बाद 1986 में फिर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इसमें 1992 में सुधार किया गया। उसके बाद राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा-2005 बनी, जिसने स्कूली शिक्षा के व्यापक स्वरूप की बुनियाद डाली।
हाल में जारी शिक्षा नीति-2019 के प्रारूप में इस बात को रेखांकित किया गया है, ‘कि हम बड़े पैमाने पर सबके लिए शिक्षा की पहुँच बनाने में व्यस्त रहे हैं, और दुर्भाग्य से शिक्षा की गुणवत्ता पर हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। सन 1986/92  की नई शिक्षा नीति दुनिया में इंटरनेट क्रांति के पहले बनी थी। इसलिए भी हमें नई शिक्षा नीति की जरूरत है। पिछले दशक में ही हमने अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 को अप्रेल 2010 में लागू करके प्रारम्भिक शिक्षा पूरी होने तक 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को पड़ोस के स्कूल में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया।
नई शिक्षा नीति के प्रारूप में इस दायरे को दोनों तरफ बढ़ाने का सुझाव है। इसमें तीन वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक के बच्चों को शामिल करने का सुझाव है। साथ ही मध्याह्न भोजन व्यवस्था का दायरा बढ़ाने का सुझाव भी है। प्रस्तावित नीति में छात्रों के पाठ्यक्रम से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण तक के सुझाव हैं, पर सवाल इन सुझावों की व्यावहारिकता का है। शिक्षा की गुणवत्ता न केवल आर्थिक विकास में तेजी लाएगी, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की राहों को भी खोलेगी। सामाजिक न्याय और समानता हासिल करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है शिक्षा। पिछले तीन दशकों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने स्कूली शिक्षा के स्तर पर लैंगिक और सामाजिक वर्गों के बीच गैर-बराबरी को दूर करने की कोशिश की है, फिर भी अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों के लिए बड़ी असमानताएं आज भी मौजूद हैं।
शिक्षा की माँग
इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार के लिए मनोनीत अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी पुस्तक पुअर इकोनॉमिक्स में गरीब देशों के संदर्भ में लिखा है कि स्कूल उपलब्ध हैं। ज्यादातर देशों में वे निःशुल्क हैं, कम से कम प्राइमरी लेवल तक तो हैं। अधिकतर बच्चों के नाम स्कूलों में लिखे हैं। फिर भी दुनिया के कई देशों में हमने जो सर्वे किए उनमें यह बात सामने आई कि बच्चों की अनुपस्थिति-दर 14 से 50 फीसदी है। अक्सर इस अनुपस्थिति की वजह यह नहीं होती कि घर में उनकी जरूरत थी। बड़ी वजह है बच्चों की स्कूल से अनिच्छा। यह बात सार्वभौमिक है।…शिक्षा की गहरी माँग नहीं है तो स्कूलों को बनाना और अध्यापकों को नियुक्त करना निरर्थक है।
यदि कौशल (स्किल) की वास्तविक माँग होगी तो शिक्षा की माँग खुद-ब-खुद बढ़ेगी और सप्लाई शुरू हो जाएगी।… हमें बच्चों को क्लासरूम तक लाने और सुप्रशिक्षित अध्यापक से पढ़ाने का रास्ता खोजना चाहिए, बाकी काम अपने आप हो जाएगा। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में बच्चों को स्कूल तक लाने और उन्हें रोके रखने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए हैं। मसलन अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों के मेधावी बच्चों को रोल मॉडल के रूप में बढ़ावा देने और उन्हें ट्यूटर के रूप में बढ़ावा देने के सुझाव हैं। मध्याह्न भोजन की व्यवस्था के साथ-साथ आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए सुबह के नाश्ते की व्यवस्था भी करना।
नई शिक्षा नीति के प्रारूप में शिक्षा के हर क्षेत्र में सुधार के सुझाव हैं। इसमें प्रारम्भिक बाल्यावस्था पर जोर है, परीक्षा प्रणाली को सुधारने का सुझाव है और शिक्षा के लिए नियामक ढाँचे को खड़ा करने की सिफारिश भी है। राष्ट्रीय शिक्षा आयोग को गठित करने का सुझाव है। शिक्षा पर जीडीपी के 6 फीसदी सार्वजनिक साधन खर्च का सुझाव भी है। इसके पहले बनी शिक्षा नीतियों में भी यह सुझाव दिया गया, पर हालत यह है कि सन 2017-18 में शिक्षा पर सरकारी व्यय जीडीपी का 2.7 फीसदी ही हुआ था।
देश में करीब 86 लाख स्कूल अध्यापक और करीब 15 लाख उच्च शिक्षा से जुड़े प्राध्यापक हैं। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत छात्र-शिक्षक अनुपात और विद्यालय के भवन और शैक्षिक सामग्री को लेकर भी व्यवस्थाएं की गईं हैं। इस दौरान जो सर्वे आए हैं, उनसे पता लगता है कि ज्यादा से ज्यादा 10 फीसदी स्कूल ही शर्तें पूरी करते हैं। अंश-कालीन शिक्षकों को भी शामिल कर लें तब भी देशभर में 17 फीसदी से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं।
पड़ोस में स्कूल
पिछले एक दशक में गाँव-गाँव में स्कूल खोलने और मिड डे मीलकी व्यवस्था के कारण स्कूलों तक बच्चों की पहुँच बेहतर हुई है, पर देखा गया है कि कई जगह बेहद छोटे स्कूल खुल गए हैं। कुछ स्कूलों में केवल छह से आठ बच्चों के नाम ही लिखे हैं। नई नीति में सुझाव दिया गया है कि छोटे-छोटे स्कूलों के स्थान पर किसी एक जगह पर अपेक्षाकृत बड़ा स्कूल कॉम्प्लेक्स बनाएं। पर इससे एक दूसरी समस्या खड़ी होती है। घर से दूर स्कूल होने पर परिवहन और छात्रावासों की जरूरत पैदा होती है। पर्वतीय, पूर्वोत्तर और जंगलों और नदियों से घिरे जनजातीय क्षेत्रों में बच्चों, खासतौर से बालिकाओं को स्कूल तक लाना अपने आप में चुनौती है।  
इसे देखते हुए कुछ राज्यों में स्कूलों के विलय का काम भी शुरू हुआ है। नीति आयोग ने भी इसकी सलाह दी है। हाल में झारखंड की रिपोर्ट थी कि राज्य में करीब दो दशक पहले खोले गए 4600 स्कूलों का विलय पास के बड़े स्कूलों में कर दिया गया। राजस्थान में भी यह काम चल रहा है। सन 2017 में मानव संसाधन मंत्रालय ने राज्यों में छोटे विद्यालयों के अभिनवीकरण के लिए दिशा निर्देश जारी किए थे। इन प्रयासों का उद्देश्य साधनों का बेहतर इस्तेमाल है, पर इससे बहुत से बच्चों के लिए स्कूल जाना मुश्किल हुआ है, क्योंकि पहाड़ी और जंगली इलाकों में आठ-दस किलोमीटर दूर जाना मुश्किल काम है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 6 के अनुसार प्राथमिक विद्यालय को गाँव के दायरे में होना चाहिए।









1 comment:

  1. bilkul sahi kaha sir aapne.... par kisi ki isme dilchaspi nahi rahi...
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