अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनेक पहलू हैं,
जिनपर अलग-अलग तरीके से विचार करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण पहलू है एक विवाद का
खत्म होना। देश की राजनीतिक ताकतों को इसे हाथोंहाथ लेना चाहिए। इस विवाद की
समाप्ति के पीछे देश में रचनात्मक माहौल बनाने की कोशिश है। लम्बे अरसे से चली आ रही
कड़वाहट को खत्म होना चाहिए। जनता के बड़े तबके की आस्था से जुड़े इस मामले का
इससे बेहतर समाधान नहीं हो सकता था। जहाँ तक इसके कानूनी पहलुओं की बात है, अदालत
के फैसले का विस्तार से अध्ययन करना होगा। इसपर विशेषज्ञों की राय भी जल्द सामने
आएगी।
गौर करने वाली बात है कि यह पाँच जजों के पीठ का सर्वानुमति
से दिया गया फैसला है। एक भी जज की विपरीत राय होती, तो शायद वह बड़ी खबर होती, पर
सर्वानुमति से फैसला होना उससे भी बड़ी खबर है। बेहतर होता कि सभी पक्ष इस बात को
अदालत के बाहर समझौता करके स्वीकार कर लेते, पर इस बात को नामंजूर करके कुछ लोग
बेवजह सामाजिक टकराव को बढ़ावा देना चाहते हैं।
अदालत ने पिछले महीने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद
सभी पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके
पहले अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई
हल निकल जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। अदालत ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं? ताकि सभी को स्वीकार्य रास्ता निकल सके। बहरहाल अब इस फैसले पर अदालत की मुहर
लग जाने के बाद इसकी वैधता बढ़ गई है।
हमें इस फैसले के सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। काफी
लोगों ने इस फैसले को समाज और देश के हित में बताया है। दुर्भाग्य से एक तबके ने
इसमें खामियाँ भी खोजी हैं। असदुद्दीन ओवेसी और जफरयाब जिलानी जैसे मुस्लिम नेताओं
के अलावा कुछ वामपंथी नेताओं ने कहा है कि हम इस फैसले से असंतुष्ट हैं। मुस्लिम
पर्सनल लॉ बोर्ड या इससे असहमत किसी भी व्यक्ति को इसके खिलाफ अपील करने और कानूनी
उपचार खोजने का अधिकार है, पर उन्हें देश की सामाजिक स्थिति पर भी ध्यान देना
चाहिए। वे क्या साबित करने के लिए इसका विरोध कर रहे हैं?
अदालत ने माना है कि यह विवाद 1947
या 1992 का नहीं है। सन 1885 के पहले, बल्कि अंग्रेजों के आगमन के पहले से यहाँ
पूजा-अर्चना भी होती रही है। अदालत ने माना है कि मस्जिद
खुली जमीन पर नहीं बनाई गई है, बल्कि किसी गैर-इस्लामी धार्मिक संरचना के ऊपर बनी
है। सैकड़ों साल से यहाँ के निवासी इसे जन्मस्थल मानते रहे हैं। उनकी आस्था को हम
किस आधार पर चुनौती देना चाहते हैं? धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं को
चुनौती दी भी नहीं जाती। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को साफ-साफ कहा भी है।
हमें अपनी अदालत को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने एक जटिल
गुत्थी को सुलझाया। प्रतीक रूप में ही सही अदालत ने यह फैसला सर्वानुमति से करके
एक संदेश यह भी दिया है कि हम एक होकर अपनी समस्याओं के समाधान खोजेंगे। एक तरह से
यह फैसला भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में मील का पत्थर साबित होगा।
सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी
बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था, पर उसने भारतीय
समाज के सामने खड़ी एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। इस सवाल को
हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा
जाना चाहिए। सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले
जाए, तो इससे अच्छा क्या होगा?
अब हमें सोचना चाहिए कि भविष्य की राह क्या है? इस फैसले को किसी एक पक्ष की
जीत या हार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। साथ ही यह भी स्वीकार करना चाहिए कि
राम जन्मस्थान का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा, तो कहाँ बनेगा? अयोध्या मामले के अनेक पहलू हैं, पर अदालत के सामने उस जमीन के स्वामित्व का
मामला था, जिसपर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सन 2010 में फैसला सुनाया था। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई
कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने आदेश पारित कर अयोध्या में विवादित जमीन को राम लला
विराजमान,
निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड में बराबर बांटने का फैसला किया जिसे
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।यह बुनियादी सवाल से जुड़ा मामला था। सर्वोच्च अदालत ने हिंदुओं की आस्था का सम्मान करते हुए राम मंदिर के निर्माण
का रास्ता खोल दिया है, वहीं मुसलमानों की आस्था को स्वीकार करते हुए उन्हें
मस्जिद का अधिकार भी दिया है।
अदालत ने अपने निर्णय में एक जगह कहा है कि भारतीय संविधान
धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करता। अब नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य बनता है कि
हम इस बात को और पुख्ता करें। किसी प्रकार की कड़वाहट पैदा नहीं होने दें। हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि यह सामान्य संपत्ति का विवाद नहीं था। इसके साथ आस्था और
भावनाओं के सवाल जुड़े थे। समाज पर इस विवाद का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था।
अब इस मामले का राजनीतिकरण
होगा। सब मानते हैं कि इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए, पर सच यह है कि इसका
राजनीतिकरण तो कब का हो चुका है। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की कोशिश कर रहे थे।
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला जाने के बाद भी इसे लटकाने के प्रयास होते रहे। इससे
कड़वाहट बढ़ ही रही थी, कम नहीं हो रही थी।
अब कहा जा
सकता है कि समाधान हो जाने के बाद बीजेपी के पास से एक मसला कम हो गया। बीजेपी ने
यों भी इस मामले को उठाना कम कर दिया था। सन 2014 के 42 पेजों के चुनाव घोषणापत्र
में 41 वें पेज पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा किया गया। वह भी मंदिर निर्माण
के लिए सांविधानिक दायरे में संभावनाएं तलाश करने का वायदा। पार्टी इस बात को
लगातार दोहराती रही है कि हम सांविधानिक दायरे में इस मामले का समाधान चाहते हैं। अब
सांविधानिक दायरे में ही मंदिर बनेगा।
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