भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल राकेश कुमार
सिंह भदौरिया ने इस साल के वायुसेना दिवस के ठीक पहले कहा कि भारत की योजना अब
विदेशी लड़ाकू विमानों के आयात की नहीं है और हम अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए स्वदेशी एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एएमसीए या
एम्का) के विकास पर ध्यान केंद्रित करेंगे। उनका यह वक्तव्य अनेक कारणों से
महत्वपूर्ण है और इससे देश की रक्षा प्राथमिकताओं पर प्रकाश भी पड़ता है, पर उससे
पहले सवाल है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद आज हम ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? हमने पहले ही स्वदेशी तकनीक के विकास पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
सवाल यह भी है कि क्या पाँचवीं पीढ़ी के विमान का विकास
करने की तकनीकी सामर्थ्य हमारे पास है? प्रश्न केवल
स्वदेशी युद्धक विमान का ही नहीं है, बल्कि संपूर्ण रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भर
होने का है। रक्षा के क्षेत्र में बेहद जटिल और उच्चस्तरीय तकनीकों और उसमें
समन्वय और सहयोग की जरूरत भी होती है। दुनिया में कोई भी संस्था ऐसी नहीं है, जो
पूरा लड़ाकू विमान तैयार करती हो। विमान के अलग-अलग अंगों को कई तरह की संस्थाएं
विकसित करती हैं। विमान की परिकल्पना और विभिन्न उपकरणों को जोड़कर विमान बनाना
(इंटीग्रेशन) और उपकरणों की आपूर्ति का इंतजाम करने की महारत भी आपके पास होनी
चाहिए।
निजी क्षेत्र की भागीदारी
रक्षा तकनीक खुले बाजार में नहीं बिकती। उसके लिए सरकारों
के साथ समन्वय करना होता है। दुनियाभर में सरकारें रक्षा-तकनीक को नियंत्रित करती
हैं। यह सच है कि हम अपनी रक्षा आवश्यकताओं की 60-65 फीसदी आपूर्ति विदेशी सामग्री
से करते हैं। दूसरी तरफ यह भी सच है कि विकासशील देशों में भारत ही ऐसा देश है,
जिसके पास रक्षा उत्पादन का विशाल आधार-तंत्र है। हमारे पास रक्षा अनुसंधान विकास से जुड़े
संस्थान हैं, जिनमें सबसे बड़ा रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) संगठन है।
शुरुआत से ही हमारा रक्षा उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में है,
जबकि दुनिया के विकसित देशों में रक्षा उद्योग निजी क्षेत्र में है और वह सरकार के
साथ मिलकर काम करता है। बहरहाल पिछले कुछ वर्षों से भारत में निजी क्षेत्र को
रक्षा कार्यक्रमों से जोड़ा गया है और सन 2016 में रक्षा खरीद
नीतियों में भी बदलाव किए गए हैं।
वायुसेनाध्यक्ष ने स्वदेशी लड़ाकू विमान को लेकर जो बात कही
है, उसकी गहराई पर जाना चाहिए। स्वदेशी लड़ाकू विमान न केवल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा
से जुड़ा है, बल्कि हमारे समूचे तकनीकी विकास से उसका वास्ता है। सच यह है कि
एशिया में स्वदेशी लड़ाकू विमान बनाने की पहल भारत ने ही की थी, जिसे हम आगे नहीं
बढ़ा पाए।
देश की वायुसेना और नौसेना के उपकरणों पर गौर करें, तो
पाएंगे कि नौसेना की स्वदेशीकरण मुकाबले वायुसेना के ज्यादा है। हम हर तरह के नौसैनिक
पोत अपने ही देश में बना रहे हैं, जबकि लड़ाकू विमान के लिए अब भी विदेशी खरीद के
भरोसे हैं। हाल में हमने राफेल विमानों की खरीद की है। अब ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ कार्यक्रम के तहत निजी क्षेत्र की
स्वदेशी कंपनी और विदेशी कंपनी के सहयोग से 114 लड़ाकू
विमानों के निर्माण की परियोजना की प्रक्रिया चल रही है और संभवतः जल्द
इसका फैसला हो जाएगा कि कौन सा विमान बनेगा।
मरुत विमान की याद
इस परियोजना के समांतर स्वदेशी तकनीक के विकास का कार्यक्रम
चल रहा है, जिसके अंतर्गत तेजस विमान तैयार हो चुका है। इस विमान के विकसित
संस्करण तेजस मार्क-2 और उसके बाद एएमसीए विमान के कार्यक्रम पर विचार चल रहा है।
इन कार्यक्रमों पर अलग से विस्तार में जाने की जरूरत है, पर इसके पहले यह भी समझना
होगा कि हमने तेजस से पहले जिस एचएफ-24 मरुत विमान का विकास किया था, उसे आगे
क्यों नहीं बढ़ाया?
दिसंबर 1940 में उद्योगपति सेठ वालचंद हीराचंद
(1882-1953) ने बेंगलुरु में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड (एचएएल) की स्थापना
की। दूसरे विश्वयुद्ध में उसकी उपयोगिता को देखते हुए 1943 में सरकार ने उसका
अधिग्रहण कर लिया। स्वतंत्रता के बाद इस संस्था की देश के वैमानिकी
उद्योग में सबसे बड़ी भूमिका है। तत्कालीन चीफ डिजाइनर डॉ
वीएम घाटगे ने शुरू में बेसिक ट्रेनर विमानों को डिजाइन किया और उनका उत्पादन भी
बड़े स्तर पर हुआ।
एचएएल का उल्लेखनीय योगदान एशिया के पहले लड़ाकू
सुपरसोनिक विमान एचएफ-24 मरुत के रूप में है, जिसके लिए द्वितीय विश्व युद्ध के
प्रसिद्ध जर्मन इंजीनियर डॉ कुर्ट टैंक को भारत लाया गया था। डॉ टैंक पहले आईआईटी मद्रास में आए, जहाँ उनके छात्रों में एपीजे
कलाम भी शामिल थे। जब डॉ टैंक अगस्त, 1956 में
बेंगलुरु आए, तो उन्हें एचएफ-24 की
डिजाइन टीम का प्रमुख बनाया गया। उनके साथ उनके सहायक थे इंजीनियर मिट्टेलह्यूबर। किसी
भी दृष्टि से यह महत्वाकांक्षी योजना थी, क्योंकि बड़ी ताकतों से इतर किसी देश द्वारा एक उन्नत किस्म
का विमान बनाने की यह पहली कोशिश थी।
छलांग, जो हमने
नहीं लगाई
यह एक लम्बी
छलांग थी, क्योंकि इसके पहले भारतीय विमानन उद्योग के पास
सिंगल प्रोपेलर और पिस्टन इंजन के सहारे उड़ने वाले एचटी-2 ट्रेनर विमान का डिजाइन तैयार करने का अनुभव ही था। जिस
वक्त सन 1961 में मरुत का पहला प्रोटोटाइप
तैयार हुआ, डिजाइन टीम में 18 जर्मन
डिजाइन इंजीनियर शामिल हो चुके थे। मरुत ने ऑपरेशनल स्टेटस 1 अप्रैल, 1967 को हासिल किया, डॉ. टैंक के बेंगलुरु आगमन के ग्यारह साल से भी
कम समय के भीतर।
इस विमान की
परिकल्पना मैक-2 की गति से चलने वाले विमान की थी। इसके डिजाइन में भविष्य के अनेक
तत्व थे। इसके नौसैनिक संस्करण का भी विचार था। माना जाता है कि सन 1973 में
जर्मनी ने इस विमान के विकास में दिलचस्पी दिखाई थी, पर धीरे-धीरे
यह परियोजना पृष्ठभूमि में चली गई। शक्ति में कम होने के बावजूद यह विमान मोटे तौर पर सफल था। 1971 के
युद्ध में इसने अच्छा प्रदर्शन किया। कुल मिलाकर 147 विमान बनाए गए। इनमें से
आखिरी विमान 1990 के आसपास सेवा से हटाया गया। एक एचएफ-24 मरुत आज भी जर्मनी में
म्यूनिख के पास ओबरश्लाईशीम संग्रहालय में रखा है।
यह परियोजना आगे क्यों नहीं बढ़ी, इसे
लेकर एक अलग बहस है, पर यह उपयोगी विमान था। बहरहाल भारतीय वायुसेना ने मिग-21 विमान के रूप में विदेशी
तकनीक पर जाना बेहतर समझा। मिग-21 तकनीकी लिहाज से उसकी तुलना में बेहतर था, पर मरुत
का वांछित स्तर तक विकास हो ही नहीं
पाया। ब्रिटेन ने उसके इंजन उपलब्ध कराने में आर्थिक अड़ंगा लगा दिया और भारत सरकार
ने इसके विकास के लिए साधन भी उपलब्ध नहीं कराए। इस काम के लिए 1.3 करोड़ पौंड की
रकम किसी भी रूप में बहुत बड़ी नहीं थी। साठ के उत्तरार्ध में डॉ टैंक जर्मनी वापस चले गए।
तेजस में विलंब
सन 1986 में
रक्षा मंत्रालय ने लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) परियोजना पर काम शुरू किया,
जिसका बाद में नाम तेजस रखा गया। कई कारणों से इस कार्यक्रम में भी अड़ंगे लगते
रहे। तेजस का डिजाइन डीआरडीओ की एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (एडीए) ने किया है और
इसका उत्पादन एचएएल कर रहा है। इसके उपकरणों के निर्माण में अब देश के निजी
क्षेत्र की भी भागीदारी है। इस विमान के संदर्भ में सीएजी की सन 2015 की एक
रिपोर्ट में कहा गया, ‘एलसीए को भारतीय वायुसेना में 1994 में शामिल किया जाना था। इस कार्यक्रम को
1983 में स्वीकृति दी गई थी, तबसे तीन दशक में इस कार्यक्रम में अवरोध आते रहे।’ अंततः इस साल फरवरी में उसे फाइनल
ऑपरेशनल क्लियरेंस मिली है।
सन 1986 में
रक्षा मंत्रालय ने लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) परियोजना पर काम शुरू किया,
जिसका बाद में नाम तेजस रखा गया। कई कारणों से इस कार्यक्रम में भी अड़ंगे लगते
रहे। तेजस का डिजाइन डीआरडीओ की एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (एडीए) ने किया है और
इसका उत्पादन एचएएल कर रहा है। इसके उपकरणों के निर्माण में अब देश के निजी
क्षेत्र की भी भागीदारी है। इस विमान के संदर्भ में सीएजी की सन 2015 की एक रिपोर्ट
में कहा गया, ‘एलसीए को भारतीय
वायुसेना में 1994 में शामिल किया जाना था। इस कार्यक्रम को 1983 में स्वीकृति दी
गई थी, तबसे तीन दशक में इस कार्यक्रम में अवरोध आते रहे।’ अंततः इस साल फरवरी में उसे फाइनल ऑपरेशनल क्लियरेंस मिली है।
भारतीय वायुसेना को अब नए विमानों की जरूरत है। ये नए विमान पाँचवीं पीढ़ी के स्टैल्थ (लोपन) विमान होने चाहिए, जो शत्रु के रेडार की नजर
से बाहर रहें। चीन ने जे-20 के रूप में ऐसा विमान अपनी वायुसेना में तैनात कर दिया
है। हाल में पाकिस्तान ने भी घोषणा की है कि वह पाँचवीं पीढ़ी के विमान का विकास
करेगा। उसके पास न तो औद्योगिक आधार है और न वैज्ञानिक क्षमता, पर वह चीन के दम पर
ऐसे दावे करता है। उसे चीन से विमान मिल भी सकता है।
पाँचवीं पीढ़ी के विमान
भारत को पाँचवीं पीढ़ी के ऐसे लड़ाकू विमानों की जरूरत है,
जो जमीन से भी उड़ान भर सकें और विमानवाहक पोत से भी। पिछले साल भारत ने रूस के
साथ पाँचवीं पीढ़ी के 11 साल पुराने एफजीएफए कार्यक्रम से खुद को अलग कर लिया था। इसके तहत दोनों देशों को मिलकर पाँचवीं
पीढ़ी का लड़ाकू विमान विकसित करना था। इस विमान को लेकर दोनों देशों के बीच
असहमतियाँ थीं। भारतीय वायुसेना लागत वहन, तकनीकी हस्तांतरण और विमान की
तकनीकी क्षमताओं को लेकर नाखुश थी। सबसे बड़ी शिकायत इसके इंजन को लेकर थी।
रूस से समझौता टूटने के बाद अब भारत के पास अपने विमान के
विकास का ही विकल्प बचा है। इस हफ्ते खबर मिली है कि रक्षा मंत्रालय एडवांस्ड
मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एम्का) की विस्तृत डिजाइन तथा प्रोटोटाइप तैयार करने
के लिए अगले साल की शुरुआत में कैबिनेट की स्वीकृति लेगा। दो इंजन वाला यह स्टैल्थ
विमान भविष्य की तकनीकों से लैस होगा। इस समाचार के संदर्भ में वायुसेनाध्यक्ष का
वक्तव्य महत्वपूर्ण हो जाता है। अच्छी बात यह है कि वायुसेना विदेशी तकनीक के बजाय
स्वदेशी तकनीक अपनाना चाहती है। सवाल केवल
तकनीक का नहीं, उन प्रक्रियात्मक गतिरोधों का भी है, जिनके कारण हमारे कार्यक्रम
पिछड़ते रहे हैं।
Nice,aapne bohot hi acche likhe Hain.
ReplyDeleteOhh bhai kya information hai
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