Tuesday, November 26, 2019

शिवसेना का राजनीतिक ‘यू-टर्न’ उसे कहाँ ले जाएगा?


महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार को अब विधानसभा में शक्ति परीक्षण को पार करना है। यदि वह उसमें सफल हुई, तब भी शासन चलाने की कई तरह की चुनौतियाँ हैं। विफल रही, तब दूसरे प्रकार के सवाल हैं। इन सबके बीच बुनियादी सवाल है कि शिवसेना का भविष्य क्या है? क्या वह भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सकेगी? क्या उसके पास कोई स्वतंत्र विचारधारा है? क्या कांग्रेस और एनसीपी का विचारधारा के स्तर पर उसके साथ कोई मेल है? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच खड़ा हुआ विवाद क्या केवल मुख्यमंत्री पद के कारण है या शिवसेना की किसी रणनीति का अंग है?

दोनों दलों के बीच करीब 30 साल पुराना गठबंधन टूट चुका है। देवेंद्र फड़नबीस  सरकार का भविष्य जो भी हो, पर महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी ने भी वैकल्पिक समीकरणों पर विचार करना शुरू कर दिया है। शरद पवार जो भी कहते हों, पर सन 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद विधानसभा में विश्वास मत के समय उनकी पार्टी ने परोक्ष रूप से बीजेपी का समर्थन किया था। उसी समर्थन के कारण भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर चुनाव लड़ने के बाद शिवसेना को अपनी हैसियत का आभास तत्काल हो गया था। पर उसके पहले बीजेपी और एनसीपी के नए गठबंधन की सम्भावना ने भी जन्म लिया था। प्रश्न एनसीपी के भविष्य का भी है।
बड़े भाई, छोटे बने
सन 2014 में घबराकर शिवसेना ने बीजेपी के साथ सरकार में शामिल होना स्वीकार किया। पर उसके साथ ही महाराष्ट्र की राजनीतिक शक्तियों का पुनर्वर्गीकरण होने लगा। अब शिवसेना की भूमिका बड़े भाई की नहीं रही। होती तो इसबार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 164 और शिवसेना को 124 सीटों पर किस्मत क्यों आजमानी पड़ी? इतनी सीटों पर लड़ने के बावजूद बीजेपी का जीत प्रतिशत शिवसेना से बेहतर रहा। एनडीए में रहना अब शिवसेना की मजबूरी थी।
महाराष्ट्र की राजनीतिक सत्ता का फैसला 2014 में हो गया था। सन 2009 में ही बीजेपी को विधानसभा में शिवसेना से ज्यादा सीटें मिल गईं थीं और नेता विपक्ष का पद बीजेपी ने हासिल कर लिया था। पर वर्चस्व स्थापित किया 2014 के चुनाव में। इस चुनाव के बाद बनी सरकार में शिवसेना को महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए गए। उनके मंत्रियों की फाइलों को लेकर सवाल किए गए। बीजेपी नेताओं ने मातोश्री जाकर राय-मशविरा बंद कर दिया। शायद यह सब सोच-समझकर हुआ, ताकि शिवसेना को अपनी जगह का पता रहे। सन 2017 के बृहन्मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना करीब-करीब बराबरी पर आ गईं। शिवसेना का क्षरण क्रमिक रूप से हो रहा था। उसके नेता पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल होने लगे।
शिवसेना का भविष्य
कहा जा रहा है कि शरद पवार ने उद्धव ठाकरे को यह समझाने का प्रयास किया है कि बीजेपी की छत्रछाया में शिवसेना का विकास नहीं होगा। अब चूंकि शिवसेना ने एक बड़ा फैसला कर ही लिया है, तो उसकी तार्किक परिणति का हमें कुछ समय तक इंतजार करना होगा। विधानसभा चुनाव में अपनी दोयम स्थिति को स्वीकार करके उसने अपने अस्तित्व को बनाए रखने की कोशिश की थी। एक समय तक महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका में रहने के बाद पार्टी को बेमन से छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा। इसके साथ ही उसने एनडीए में रहने के बावजूद बीजेपी के कदमों और निर्णयों की आलोचना शुरू कर दी।
पिछले लोकसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि ममता बनर्जी ने शिवसेना को फेडरल फ्रंट में खींचने की कोशिश भी की। फरवरी में सामना में प्रकाशित एक सम्पादकीय में कहा गया कि ममता बनर्जी शेरनी की तरह लड़ रही हैं। उस समय तक शिवसेना का आकलन था कि भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में करीब एक सौ सीटें कम मिलेंगी। तमाम कारणों से वह बाजी पलट गई, पर शिवसेना की भीतरी कसक अपनी जगह है। उसके अस्तित्व का सवाल है।
शिवसेना की वर्तमान रणनीति के दो कारण समझ में आते हैं। पहला कारण अपनी प्रासंगिकता और अस्तित्व को बनाए रखने का है, और दूसरा कारण उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे के भविष्य का है। उद्धव चाहते हैं कि उनका पुत्र ठीक से स्थापित हो जाए। दिक्कत यह है कि उद्धव ठाकरे के पास बालासाहेब ठाकरे जैसा व्यक्तित्व नहीं है। बालासाहेब छोटे भाई बनकर नहीं रहे, पर उद्धव ठाकरे को बनना पड़ा। उनके बरक्स राज ठाकरे भी खड़े हो गए हैं। फिलहाल वे भी साइड-लाइन पर खड़े होकर खेल देख रहे हैं। इस लिहाज से यह महत्वपूर्ण समय है।
अब होगा क्या?
सवाल दो हैं, क्या भारतीय जनता पार्टी से पृथक शिवसेना का कोई अस्तित्व सम्भव है? कांग्रेस और एनसीपी उसे कितना निभाएंगे? महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी किस आधार पर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएगी, उसपर अलग से विचार करना चाहिए। पर क्या शिवसेना को कांग्रेस और शरद पवार की रणनीति समझ में नहीं आ रही है? क्या ये दोनों पार्टियाँ भी बाला साहेब ठाकरे की इच्छापूर्ति के लिए शिवसेना के साथ आई हैं? यह बीजेपी को परास्त करने की कोशिश है। शिवसेना इसमें शामिल क्यों होना चाहती है? कुछ महीने के लिए मुख्यमंत्री का पद हासिल करने के लिए? बीजेपी के स्थान पर वैकल्पिक शक्ति के रूप में कौन उभरना चाहता है?
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि शिवसेना ने बीजेपी के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन क्यों किया और चुनाव के दौरान इस बात को साफ-साफ जनता से क्यों नहीं कहा कि हम अपना मुख्यमंत्री राज्य में स्थापित करने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। व्यावहारिक सच यह है कि उसे भारतीय जनता पार्टी से करीब आधी सीटें मिली हैं। वह जिस ताकत के सहारे कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है, वह कमजोर है। इस गठबंधन के पास आगामी पाँच वर्षों के लिए कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। विचारधारा के स्तर पर वह अपने धुर-विरोधियों के साथ समझौता कर रही है। कहा यह भी जा रहा है कि शिवसेना विचारधारा के स्तर पर भी बदलाव करने जा रही है। यह कैसे होगा, इसे देखना चाहिए।

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