केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को राज्यसभा
में कहा कि पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू किया जाएगा. इसके
साथ ही उन्होंने कहा कि किसी भी धर्म के लोगों को इससे डरने की जरूरत नहीं है. उन्होंने
यह भी कहा कि इन दिनों असम में जिस नागरिकता रजिस्टर पर काम चल रहा है उसमें धर्म
के आधार पर लोगों को बाहर करने का कोई प्रावधान नहीं है. असम में पहली बार
नागरिकता रजिस्टर बनाया गया है, जिसमें असम में रहने वाले 19 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं हैं.
अमित शाह के ताजा बयान ने एकबार फिर से इस बहस
को ताजा कर दिया है. अमित शाह ने यह भी कहा है कि हम नागरिकता संशोधन विधेयक भी
संसद में पेश करेंगे. इस विषय विचार करने के पहले हमें इसकी पृष्ठभूमि को समझना
चाहिए. नागरिकता रजिस्टर का मतलब है, ऐसी सूची जिसमें देश के सभी नागरिकों के नाम
हों. ऐसी सूची बनाने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? वस्तुतः यह मामला असम से निकला है और आज का नहीं 1947 के बाद का है,
जब देश स्वतंत्र हुआ था.
असम में जो एनआरसी तैयार की गई है, वह सुप्रीम
कोर्ट के निर्देश पर और उसकी देख-रेख में तैयार हुई है. अभी ऐसा कोई फैसला नहीं
हुआ है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनका क्या होगा, पर यह विवाद भारतीय
राजनीति के शिखर पर पहुँच रहा है. कहा यह भी जा रहा है कि नागरिकता संशोधन विधेयक
आने के बाद असम की एनआरसी को फिर से तैयार करना होगा. यही नहीं राष्ट्रीय एनआरसी
के लिए नई कटऑफ तारीख तय करनी होगी.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर असम के नागरिकों के
सत्यापन का काम 2015 में शुरू हुआ था. इसके लिए रजिस्ट्रार जनरल ने समूचे राज्य
में कई एनआरसी केंद्र खोले. तय हुआ कि उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा जिनके
पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक की किसी वोटर लिस्ट में
मौजूद हों. इसके अलावा 12 दूसरे तरह के सर्टिफिकेट या कागजात जैसे जन्म प्रमाण
पत्र, जमीन के कागज, स्कूल-कॉलेज के सर्टिफिकेट, पासपोर्ट, अदालत
के पेपर्स भी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने के लिए पेश किए जा सकते हैं. हमारे यहाँ
लोगों को कागज-पत्तर रखने की समझ नहीं है. तमाम लोग अनपढ़ और गरीब हैं. इस समस्या
का समाधान किस तरह निकलेगा, कहना मुश्किल है. अलबत्ता नागरिकता रजिस्टर बनाने के
विचार को सिद्धांततः गलत नहीं कहा जा सकता.
भारत में असम अकेला राज्य है, जहाँ
सन 1951 में इसे जनगणना के बाद तैयार किया गया था. भारत में नागरिकता संघ सरकार की
सूची में है, इसलिए एनआरसी से जुड़े सारे कार्य केंद्र सरकार
के अधीन होते हैं. सन 1951 में देश के गृह मंत्रालय के निर्देश पर असम के सभी
गाँवों, शहरों के निवासियों के नाम और अन्य विवरण इसमें दर्ज किए गए थे. इस
एनआरसी का अब संवर्धन किया गया है. एनआरसी को अपडेट करने की जरूरत सन 1985 में हुए
असम समझौते को लागू करने की प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसे
लागू करने के लिए सन 2005 में एक और समझौता हुआ था.
सन 2009 में एक एनजीओ असम पब्लिक वर्क्स ने
सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली कि अवैध नागरिकों के नाम वोटर सूची से हटाए जाएं.
यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में चली है. इसमें उन व्यक्तियों के नाम
हैं जो या तो 1951 की सूची में थे,
या 24 मार्च 1971 की मध्य रात्रि के
पहले असम के निवासी रहे हों. सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एनआरसी की
प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया था, जो अब अपनी तार्किक परिणति पर पहुँच
रही है. हमें इंतजार करना होगा कि सुप्रीम कोर्ट का इस
बारे में फैसला क्या होता है.
जम्मू-कश्मीर के बाद असम ऐसा प्रदेश है, जहाँ
मुस्लिम आबादी का अनुपात काफी बड़ा है. यह अनुपात पिछले सौ साल में तेजी से बढ़ा
है. विभाजन के बाद इसमें काफी इज़ाफा हुआ है. सन 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की
आबादी में 34.24 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं. सन 1979 से 1985 के बीच चले असम आंदोलन
का निशाना बंगाली मुसलमान थे और आज भी उन्हें लेकर ही विवाद है.
उधर पूर्वोत्तर के राज्यों में नागरिकता
(संशोधन) विधेयक का विरोध हो रहा है. यह मुद्दा इस साल लोकसभा चुनावों के समय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद उभरा था. तब मोदी को पूर्वोत्तर
में कई जगह काले झंडे दिखाए गए और उनके खिलाफ नारेबाजी हुई थी. चुनावों के बाद
नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) की अंतिम सूची जारी होने के शोर और विवाद में
यह मुद्दा थोड़ा दब गया था. अमित शाह पूरे देश में केवल नागरिकता की रजिस्टर की
बात ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे नागरिकता संशोधन विधेयक लाने की बात भी कर रहे
हैं. प्रस्तावित विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान
और अफगानिस्तान से आने वाले गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को बिना किसी वैध कागजात के
भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. इसका विरोध करने वालों को गैर-मुस्लिम शब्द
पर नाराजगी है.
बीजेपी का कहना है कि हम इन तीनों देशों के
अल्पसंख्यकों की बात कर रहे हैं, जो प्रताड़ना के शिकार है. हाल में खबरें थीं कि
पाकिस्तान के कौमी मुत्तहिदा मूवमेंट के नेता अल्ताफ हुसेन भारत में शरण लेना
चाहते हैं. पाकिस्तान में मुहाज़िर परेशान हैं. हम उन्हें प्रताड़ित मानेंगे या
नहीं?
ऐसे तमाम सवाल अभी उठेंगे, जो हमारे
विभाजन की देन हैं. नागरिकता से जुड़े इन सवालों पर हमें विचार करना ही होगा. यह
आसान नहीं है, पर यह इतना निरर्थक भी नहीं है, जितना इसे साबित किया जा रहा है.
हाल में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का कहना है कि एनआरसी का
महत्व आज के लिए ही नहीं भविष्य के लिए है.
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