अयोध्या फैसले के कानूनी पहलू, अपनी जगह हैं और राजनीतिक और
सामाजिक पहलू अपनी जगह। असदुद्दीन
ओवेसी का कहना है कि हमें नहीं
चाहिए पाँच एकड़ जमीन। हम जमीन खरीद सकते हैं। उन्हें फैसले पर आपत्ति
है। उन्होंने कहा भी है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को यह संदेश देकर जाएंगे। जफरयाब
जिलानी साहब अभी फैसले का अध्ययन कर रहे हैं, पर पहली नजर में उन्हें खामियाँ नजर
आ गईं हैं। कांग्रेस
पार्टी ने फैसले का स्वागत किया है। प्रतिक्रियाएं
अभी आ ही रही हैं।
इस फैसले का काफी बारीकी से विश्लेषण होगा। पहली नजर में
शुरू हो भी चुका है। अदालत क्यों
और कैसे
अपने निष्कर्ष पर पहुँची। यह समझ में आता है कि अदालत ने परंपराओं और ऐतिहासिक घटनाक्रम
को देखते हुए माना है कि इस स्थान पर रामलला
का विशिष्ट अधिकार बनता है, जबकि मुस्लिम पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि
विशिष्ट अधिकार उसका है। अदालत ने 116 पेज का एक
परिच्छेद इस संदर्भ में अपने फैसले के साथ लगाया है।
अलबत्ता अदालत ने बहुत साफ फैसला किया है और सर्वानुमति से
किया है। सर्वानुमति छोटी बात नहीं है। छोटे-छोटे मामलों में भी जजों की असहमति होती
है। पर इस मामले में पाँचों जजों ने कॉमा-फुल स्टॉप का अंतर भी अपने फैसले में नहीं
छोड़ा। यह बात अभूतपूर्व है। 1045 पेज के इस फैसले की बारीकियों और कानूनी पहलुओं
पर जाने के अलावा इस फैसले की सदाशयता पर ध्यान देना चाहिए।
सन 1994 में पीवी नरसिंहराव सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट
से इस मसले पर सलाह मांगी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राय देने से मना
कर दिया था, पर आज उसी अदालत ने व्यापक हित में फैसला सुनाया है। इसे स्वीकार किया
जाना चाहिए।
यह भी कहा जा रहा है कि अयोध्या तो पहला मामला है, अभी मथुरा और काशी के मामले उठेंगे। उनके पीछे एक लंबी कतार है। शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि सन 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने धार्मिक स्थल कानून बनाकर भविष्य में ऐसे मसलों की संभावना को खत्म कर दिया था।
यह भी कहा जा रहा है कि अयोध्या तो पहला मामला है, अभी मथुरा और काशी के मामले उठेंगे। उनके पीछे एक लंबी कतार है। शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि सन 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने धार्मिक स्थल कानून बनाकर भविष्य में ऐसे मसलों की संभावना को खत्म कर दिया था।
वस्तुतः हमें
1947 के बाद ही ऐसा कानून बना लेना चाहिए था। यह भी कहा जा रहा है कि धार्मिक स्थल
कानून को चुनौती भी दी जा सकती है, पर
उसे रद्द करना इतना सरल नहीं है। अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में इन सवालों पर भी विचार किया गया है और खासतौर
से सन 1992 में हुए बाबरी विध्वंस की आलोचना की गई है। अदालत ने राज्य और नागरिकों
को आगाह किया है कि धर्मस्थलों के साथ छेड़छाड़ न करें।
असदुद्दीन ओवेसी
ने कहा कि अदालत ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को गलत बताया, पर मंदिर बनाने की
जिम्मेदारी मुजरिमों को दे दी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में अंतर्विरोध कई लोगों
ने देखे हैं, पर वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि सन 1992 का आपराधिक मुकदमा अदालत
में है। सुप्रीम कोर्ट के सामने दीवानी मामला था, जिसमें मंदिर-मस्जिद से बुनियादी
सवालों को उठाया गया था। अदालत ने उसे स्पष्ट किया है।
बार-बार कहा जाता
है कि अयोध्या मामले का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। इस बात को बहस का विषय बनाना
क्या राजनीतिकरण नहीं है? अयोध्या का मामला शुद्ध रूप से स्थानीय मामला था, वह न केवल राष्ट्रीय मसला
बना, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मसला बन गया। शनिवार को पाकिस्तानी नेता करतापुर को
भूलकर इस फैसले पर ट्वीट दाग रहे थे। बहरहाल कश्मीर को लेकर पश्चिमी देशों में
फैली या फैलाई गई बदमज़गी इस फैसले से कुछ कम जरूर होगी।
जहाँ तक राजनीतिकरण का सवाल है। यह मामला जितना टलता गया, उतना बीजेपी की
फायदा हुआ। अब कहा जा रहा है कि कम से कम मंदिर-विवाद का तो समाधान हुआ। व्यवहारिक
सच य़ह है कि बीजेपी भी इस मामले को भूल गई थी। सन 2014 के लोकसभा
चुनाव में 42 पेजों के घोषणापत्र में 41 वें पेज पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा
किया गया। वह भी मंदिर निर्माण के लिए सांविधानिक दायरे में संभावनाएं तलाश करने
का वायदा।
भाजपा इस बात को
दोहराती रही है कि हम सांविधानिक दायरे में इस मामले का समाधान चाहते हैं। अब
सांविधानिक दायरे में ही मंदिर बनेगा। सच यह है कि बीजेपी के विरोधियों ने सुप्रीम
कोर्ट में इस मामले की सुनवाई को टलवाने के लिए जो श्रम किया, उसका फायदा बीजेपी
को ही मिलता रहा। बहरहाल अब सरकार को अब भव्य मंदिर निर्माण के ‘मेगा शो’ का एक मौका और मिलेगा। भले ही बीजेपी
की झोली में एक मसला कम हो गया है।
समझदारी की बात है
कि राजनीतिक दलों को इस फैसले को हाथोंहाथ लेना चाहिए, पर क्या ऐसा होगा? भाई लोग मीन-मेख जरूर
निकालेंगे। अदालत के फैसले का
विस्तार से अध्ययन जरूर होना चाहिए, क्योंकि इससे कई तरह की नजीरें कायम होंगी। इसपर
विशेषज्ञों की राय भी जल्द सामने आएगी, पर शनिवार को साढ़े दस बजे के बाद टीवी
चैनलों पर रिपोर्टरों की एक-एक लाइन पर जैसी प्रतिक्रियाएं आ रही थीं, उनसे साफ
लगता था कि हम प्रतिक्रिया पहले व्यक्त करते हैं, विचार बाद में करते हैं।
अदालत ने पिछले महीने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद
सभी पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके
पहले अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई
हल निकल जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। अदालत ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं? ताकि सभी को मंजूर रास्ता निकले। इस कोशिश के विफल होने का सीधा सा मतलब है कि
इस देश में ‘समस्या’ के जितने
शौकीन हैं, ‘समाधान’ के उतने ही विरोधी हैं। बहरहाल अब इस फैसले पर अदालत की मुहर लग जाने के बाद
इस समझौते की वैधता बढ़ गई है।
बहरहाल यह भारतीय न्यायपालिका की जीत है। हमें अपनी अदालत
को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने एक जटिल गुत्थी को सुलझाया। प्रतीक रूप में ही सही
अदालत ने यह फैसला सर्वानुमति से करके एक संदेश यह भी दिया है कि हम एक होकर अपनी
समस्याओं के समाधान खोजेंगे। एक तरह से यह फैसला भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में
मील का पत्थर साबित होगा।
सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी
बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था, पर उसने भारतीय
समाज के सामने खड़ी एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। अच्छी बात यह है
कि इस फैसले
के बाद प्रतिक्रियाएं अपेक्षाकृत संतुलित आई हैं। हालांकि दिल्ली में कुछ
वकीलों ने जय
श्रीराम के नारे लगाए, पर विजय के जैसे प्रदर्शन का अंदेशा था, वैसा नहीं हुआ।
दूसरी तरफ मुसलमानों की प्रतिक्रियाएं भी काफी समझदारी की रहीं। इस फैसले को चुनौती दें या न दें, इसे लेकर कई तरह की राय हैं, पर भड़काने वाली बातें नहीं हुई हैं। विदेशी मीडिया की प्रतिक्रियाएं अभी केवल सूचनाओं तक सीमित हैं।
दूसरी तरफ मुसलमानों की प्रतिक्रियाएं भी काफी समझदारी की रहीं। इस फैसले को चुनौती दें या न दें, इसे लेकर कई तरह की राय हैं, पर भड़काने वाली बातें नहीं हुई हैं। विदेशी मीडिया की प्रतिक्रियाएं अभी केवल सूचनाओं तक सीमित हैं।
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