गत 5 और 6 अगस्त
को संसद ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के जिस प्रस्ताव को पास किया था, वह अपनी
तार्किक परिणति तक पहुँच चुका है। राज्य का नक्शा बदल गया है और वह दो राज्यों में
तब्दील हो चुका है। पर यह औपचारिकता का पहला चरण है। इस प्रक्रिया को पूरा होने
में अभी समय लगेगा। कई प्रकार के कानूनी बदलाव अब भी हो रहे हैं। सरकारी अफसरों से
लेकर राज्यों की सम्पत्ति के बँटवारे की प्रक्रिया अभी चल ही रही है। राज्य
पुनर्गठन विधेयक के तहत साल भर का समय इस काम के लिए मुकर्रर है, पर व्यावहारिक
रूप से यह काम बरसों तक चलता है। तेलंगाना राज्य अधिनियम 2013 में पास हुआ था, पर
पुनर्गठन से जुड़े मसले अब भी सुलझाए जा रहे हैं।
बहरहाल पुनर्गठन
से इतर राज्य में तीन तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली पाकिस्तान-परस्त आतंकी गिरोहों
की है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था पर हमले कर रहे हैं। हाल में ट्रक ड्राइवरों की
हत्या करके उन्होंने अपने इरादों को जता भी दिया है, पर इस तरीके से वे स्थानीय
जनता की नाराजगी भी मोल लेंगे, जो उनकी बंदूक के डर से बोल नहीं पाती थी। अब यदि
सरकार सख्ती करेगी, तो उसे कम से कम सेब के कारोबार से जुड़े लोगों का समर्थन
मिलेगा। दूसरी चुनौती राज्य में राजनीतिक शक्तियों के पुनर्गठन की है। और तीसरी
चुनौती नए राजनीतिक मुहावरों की है, जो राज्य की जनता को समझ में आएं। ये तीनों
चुनौतियाँ कश्मीर घाटी में हैं। जम्मू और लद्दाख में नहीं।
सबसे महत्वपूर्ण
सवाल है कि घाटी की राजनीति अब किस दिशा में जाएगी? केंद्र के इस फैसले के बाद से राज्य के
मुख्यधारा के दल अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि उनकी भूमिका क्या है। ज्यादातर नेता
नजरबंद हैं, जो बाहर आए हैं, उनमें से बहुत कम के चेहरे अभी सामने आए हैं। सबसे
महत्वपूर्ण नेता मुज़फ्फर अली बेग हैं, जो कुछ समय पहले तक महबूबा मुफ्ती की
पार्टी पीडीपी के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे, पर जो बगावत करके बाहर आए हैं।
राज्य पुनर्गठन
की प्रक्रिया के दौरान ही ब्लॉक डेवलपमेंट कौंसिल (बीडीसी) के चुनाव भी राज्य में
हुए हैं, जिसमें तमाम नए चेहरे सामने आए हैं। बीडीसी का चुनाव प्रत्यक्ष नहीं
होता, उसमें पंचायतों के पदाधिकारी भाग लेते हैं। राज्य में 26629 मतदाताओं को इस
चुनाव में भाग लेने का अधिकार था। यह राज्य की नई राजनीतिक शक्ति है। देखना होगा
कि इस नई शक्ति की राज्य की राजनीति में क्या भूमिका होती है। इन नए जन
प्रतिनिधियों को अपने गाँवों की जनता के साथ संपर्क स्थापित करना होगा। अब राज्य
में आतंकी संगठन पूरी ताकत के साथ सामने आएंगे। उनसे निपटने की निर्णायक घड़ी भी अब
आ रही है।
राज्य सरकार पर
अब दो तरह की जिम्मेदारियाँ हैं। नए जन प्रतिनिधियों को सुरक्षा पहुँचाने की और
दूसरी तरफ जनता से सीधे संवाद की। यह सच है कि पंचायत की अनेक सीटें खाली हैं और
काफी प्रतिनिधि निर्विरोध जीतकर आए हैं। इसका मतलब है कि या तो डर के कारण या
भावनात्मक प्रचार के कारण जनता का एक हिस्सा सामने नहीं आ रहा है। उसके बीच जाने
और उसे आश्वस्त करने की जिम्मेदारी नए प्रशासन की है। यह काम राजनीतिक
कार्यकर्ताओं के माध्यम से ही हो सकता है। इसलिए देखना होगा कि सरकार नजरबंद
कार्यकर्ताओं को कब रिहा करेगी। उनकी रिहाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी भूमिका
और उनसे संवाद।
राज्य की नई
राजनीति में महत्वपूर्ण साबित होने वाले तीन वरिष्ठ नेता सामने आए हैं। गत सोमवार
को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने दिल्ली में यूरोपियन पार्लियामेंट के
प्रतिनिधियों के सम्मान में जो लंच आयोजित किया था, उसमें मुज़फ्फर बेग के अलावा
राज्य के पूर्व मंत्री अल्ताफ बुखारी और कांग्रेस के महासचिव और पूर्व विधायक
उस्मान मजीद भी शामिल हुए। अल्ताफ बुखारी राज्य के प्रभावशाली व्यापारी हैं और
उनका असर भी है। वे कश्मीर के उन गिने-चुने नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें 5 अगस्त
के बाद नजरबंद नहीं किया गया था। उन्हें भी महबूबा मुफ्ती ने पार्टी से निकाला था।
ऐसा लगता है कि केन्द्र
सरकार नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी के बागी नेताओं को सबसे पहले अपने साथ
लेना चाहती है। मुज़फ्फर बेग ने सन 2015 में पीडीपी और बीजेपी के बीच गठबंधन कायम
करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके सामने चुनौतियाँ कम नहीं हैं। उन्हें
भी किसी एजेंडा के साथ अपने समर्थकों के पास जाना होगा। केन्द्र सरकार को किसी न
किसी स्तर पर स्थानीय नेताओं को मजबूत बनाना होगा। सन 2015 के गठबंधन के पीछे भी
यही उद्देश्य था, पर दोनों तरफ के अंतर्विरोधों ने बात को बढ़ने नहीं दिया। बहुत
कुछ कश्मीर के व्यापारियों और सिविल सोसायटी के सदस्यों पर निर्भर करेगा।
संभवतः राज्य में
किसी नए दल की भूमिका भी तैयार हो रही है। दिल्ली में अजित डोभाल के लंच से इस बात
का संकेत मिलता है कि यह प्रक्रिया अब आगे बढ़ेगी। इस लंच में राजनेताओं के अलावा
राज्य के अनेक व्यापारी और पत्रकार भी शामिल हुए। इनमें संदीप चट्टू और शमीम मेराज
शामिल हैं, जो रियल कश्मीर फुटबॉल क्लब के सह-स्वामी हैं। श्रीनगर से प्रकाशित
होने वाले अखबार राइजिंग कश्मीर के प्रकाशक और संपादक अयाज़ गनी भी इस मौके पर
मौजूद थे।
धीरे-धीरे
पाबंदियाँ हटेंगी और नज़रबंदों की रिहाई भी होगी। अब मुख्यधारा के दलों और
हुर्रियत के विभिन्न धड़ों की भूमिका को देखने की जरूरत होगी। साथ ही कांग्रेस
पार्टी की भूमिका को भी देखना होगा, जो फिलहाल केन्द्र सरकार के विरोध में है, पर
उसे किसी न किसी रूप में राज्य में सक्रिय रहना चाहेगी। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी
भी राजनीति से कटकर नहीं रह सकेंगे। वे किस रूप में सामने आएंगे, इसे देखना होगा।
सरकार को इस बात
से स्थानीय जनता को आश्वस्त करना चाहिए कि हमने सुरक्षा के कारणों से जम्मू-कश्मीर
को केन्द्र शासित राज्य बनाया है, पर हम शीघ्र ही इसे पूर्ण राज्य बनाएंगे।
गृहमंत्री अमित शाह यह बात संसद में कह भी चुके हैं। फिलहाल एक बड़ा काम राज्य
विधानसभा के चुनाव का है। चुनाव होने के पहले राज्य की राजनीति को स्थिर होने का
मौका मिलना चाहिए। इस दौरान नजरबंद नेताओं के साथ भी केन्द्र के प्रतिनिधियों का
संवाद चल रहा है। जितनी जल्दी वे वास्तविकता को समझेंगे, उतनी जल्दी चुनाव हो
सकेंगे। इन परिस्थितियों में चुनाव कराना आसान नहीं होगा, पर राज्य को फिर से पटरी
पर लाने के लिए आवश्यक होगा।
अब तक सत्ता और धन की मलाई चाट रहे अब्दुल्ला , मुफ़्ती परिवार गुलाम नब्बी जैसे नेताओं को अब जरा भी गवारा नहीं हो रहा है किwe एक कटे फ़टे राज्य के सदर बनें दुसरे अब तक जो अनाप शनाप धन उन्होंने कमाया उसके सारे रास्ते बंद हो गए हैं न तो उनका वह राजनैतिक कद रहा है और न मुख्य मंत्री पद का वह रुतबा क्योंकि एक केंद्र प्रशासित प्रदेश की अपनी सीमाएं हैं , केजरीवाल के अरमानों पर वे पानी फिरतादेख चुके हैं व अंदाज भी लगा रहे हैं इसलिए वे किसी भी तरह मान ने को तैयार नहीं हैं
ReplyDeleteउनकी बेचारगी वाजिब भी है क्योंकि जो कुछ उन्होंने भोगा है वह सब अब नहीं मिलने वाला है अब बहुत पाबंदियां लग गयीं हैं और जो कुछ मिला हुआ है उसमें से भी बहुत कुछ छिन ने वाला है