अच्छा हुआ कि महाराष्ट्र के राजनीतिक ड्रामे के
पहले अंक का पटाक्षेप समय से हो गया. देश की राजनीति को यह प्रकरण कई तरह के सबक
देकर गया है. बीजेपी को सरकार बनाने के पहले अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखना चाहिए था
कि उसके पास बहुमत है या नहीं. इस प्रकरण से उसकी साख को धक्का जरूर लगा है. सवाल
यह भी है कि क्या यह बीजेपी के साथ धोखा था? बहरहाल यह इस प्रकरण का अंत नहीं है. अब एक नई दुविधा भरी राजनीति
का प्रारंभ होने वाला है. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की ‘तिरंगी सरकार’ क्या टिकाऊ होगी? अब सरकार बनते ही ऐसे सवाल खड़े होंगे.
जिस सरकार को बनाने के पहले इतना लंबा विमर्श
चला कि एक-दूसरी सरकार बन गई, उसकी स्थिरता की गारंटी क्या है? क्या
वजह है कि महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद एक महीने से ज्यादा समय
हो गया है और सरकार का पता नहीं है?
मंगलवार को देवेंद्र फडणवीस ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि महाराष्ट्र में
बीजेपी को पूरा जनादेश मिला. हमने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ा और दोनों को मिलकर
सरकार बनाने का जनादेश मिला. यह जनादेश इसलिए बीजेपी का था क्योंकि हमारा स्ट्राइक
रेट ज्यादा शिवसेना से ज्यादा था. उधऱ शिवसेना हमसे चर्चा करने की जगह एनसीपी से
चर्चा कर रही थी. एक बात साफ है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का कॉमन मिनिमम
कार्यक्रम है, बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना.
अब इस राजनीति का दूसरा दौर शुरू होगा. अब सवाल
है कि महाराष्ट्र के नए राजनीतिक गठजोड़ का अर्थ क्या है? क्या यह कांग्रेस की वैकल्पिक राजनीति है? और
इसमें शिवसेना का भूमिका क्या है? क्या
वह भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सकेगी? कांग्रेस और एनसीपी के साथ विचारधारा के स्तर
पर उसका कोई मेल है? क्या वह अपनी विचारधारा में बदलाव
करेगी? भाजपा-शिवसेना का 30 साल पुराना गठबंधन टूटा
ही नहीं है, बल्कि एक नया गठबंधन बना भी है. दूसरी तरफ 78 घंटे की बगावत करके आए अजित
पवार भले ही अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए, पर वे एनसीपी के अंतर्विरोध को भी
रेखांकित कर गए हैं. सवाल एनसीपी के भी भविष्य का है.
कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना तीनों की
पारिवारिक राजनीति है. उद्धव ठाकरे अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को जमाना चाहते हैं. उद्धव
ठाकरे को समझ में आया है कि बीजेपी की छत्रछाया में शिवसेना का विकास नहीं होगा. तो
क्या एनसीपी और कांग्रेस की छत्रछाया में होगी? लोकसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि
ममता बनर्जी ने शिवसेना को फेडरल फ्रंट में खींचने की कोशिश भी की. फरवरी में ‘सामना’ में प्रकाशित एक सम्पादकीय में कहा गया कि ममता बनर्जी शेरनी की तरह
लड़ रही हैं. तब शिवसेना का आकलन था कि बीजेपी को लोकसभा में करीब सौ सीटें कम
मिलेंगी. वह अनुमान गलत साबित हुआ, पर शिवसेना अपने अस्तित्व को लेकर बेचैन है.
उसके पास बालासाहेब ठाकरे जैसा नेता नहीं है. पर क्या कांग्रेस और एनसीपी उसे
बचाने आई हैं? ऐसे तमाम सवाल उठेंगे नई सरकार बनने के
बाद.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 27 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteतीनों बिल्लियों में मलाई बांटने के अंतर्विरोध तो अभी से ही दिखने शुरू हो ही गए हैं , सोनिया अपनी पार्टी को मिलकने वाली हिस्सेदारी से खुश नहीं हैं , शिव सेना को भी मुख्या मंत्री के अलावा कुछ ज्यादा मलाई नहीं मिलती लगती , दो रास से चलने वाली ये घोड़ी ( शिव सेना ) कितने दिन सब सहन करेगी देझने के लिए इन्तजार करना होगा
ReplyDeleteउस से भी आगे तीनों ही बिल्लियों के जिन सपूतो को मलिनहिं मिली पद नहीं मिला तो उनका असंतोष उन्हें बगावत करने के लिए मजबूर करेगा , क्योंकि सभी बहुत समय से आस लगाए बैठे हैं
नीतिगत मामले तो आड़े आएंगे ही , आखिर शिव सेना के चारण श्री राउत क्या अपनी जुबान पर लगाम लगा पाएंगे ?सवाल बहुत हैं फिल्म शुरू होने दीजिये , देखते हैं कब खत्म होगी ,इंटरवेल भी होगा या उस से पहले ही सिमट जायेगी ?