दिल्ली की सड़कों पर मंगलवार को और
अदालतों में बुधवार को जो दृश्य दिखाई पड़े, वे देश की कानून-व्यवस्था और
न्याय-प्रक्रिया पर बड़े सवाल खड़े करते हैं. देश में सांविधानिक न्याय और
कानून-व्यवस्था की रक्षक यही मशीनरी है, तो फिर इसका मतलब है कि हम गलत जगह पर आ
गए हैं. यह देश की राजधानी है. यहाँ पर अराजकता का यह आलम है, तो फिर जंगलों में
क्या होता होगा?
गाँवों और कस्बों की तो बात ही अलग है. कानून के शासन की धज्जियाँ वे लोग उड़ा रहे
हैं, जिनपर कानून की रक्षा की जिम्मेदारी है.
दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में एक
पुलिसकर्मी और एक वकील के बीच पार्किंग को लेकर मामूली से विवाद ने एक असाधारण
राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया. पार्किक विवाद से शुरू हुआ यह मामला दो समूहों
के बीच संघर्ष के रूप में तब्दील हो गया. शनिवार को तीस हजारी कोर्ट में हुए इस
संघर्ष में आठ वकील और 20 पुलिस वाले घायल हुए. एक पुलिस वाले ने गोली भी चलाई. इसके
बाद सोमवार को साकेत अदालत के बाहर फिर टकराव हुआ. कड़कड़डूमा
कोर्ट के बाहर एक पुलिसकर्मी की पिटाई कर दी गई.
टकराव की छोटी-मोटी कई खबरें सुनाई
पड़ीं. इस बीच मोटरसाइकिल पर सवार एक वर्दीधारी पुलिसकर्मी को कोहनी मारते और उसे
थप्पड़ मारते हुए वीडियो सामने आने के बाद पुलिस वालों का गुस्सा भड़का और मंगलवार
को उन्होंने दिल्ली पुलिस के मुख्यालय को घेर लिया. मुख्यालय की सुरक्षा के लिए
केंद्रीय रिजर्व पुलिस को तैनात करना पड़ा. समझाने-बुझाने के बाद अंततः
पुलिसकर्मियों का आंदोलन वापस हो गया, पर अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया.
उधर तीस हजारी में हुए टकराव को लेकर बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट में सुनवाई भी
हुई. अदालत ने दोनों पक्षों को सलाह दी कि वे साथ बैठकर आपसी झगड़े को सुलझाएं.
कोर्ट ने कहा कि वकीलों और पुलिस के जिम्मेदार प्रतिनिधियों के बीच संयुक्त बैठक
होनी चाहिए, ताकि विवाद को सुलझाने की कोशिशें
हो सकें. कोर्ट ने कहा, बार कौंसिल और पुलिस
प्रशासन दोनों कानून की रक्षा के लिए हैं. न्याय के सिक्के के ये दो पहलू हैं और
उनके बीच कोई भी असंगति या टकराव शांति और सद्भाव के लिए निंदनीय है. हाई कोर्ट
द्वारा बनाई गई एक कमेटी इस मामले की जांच भी करेगी.
निश्चित रूप से इस प्रकरण से जुड़ी घटनाओं पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय होना
चाहिए, पर देश की न्याय-व्यवस्था के प्रहरियों के रूप में वकीलों और पुलिसकर्मियों
से कहा जाना चाहिए कि वे अपनी जिम्मेदारियों पर भी ध्यान दें. दिल्ली में ही नहीं,
देश के दूसरे शहरों में भी अदालतों में इस किस्म के टकराव हुए हैं. सन 1988 में
दिल्ली के एक टकराव को इस सिलसिले में याद किया जाता है, जो तीस हजारी कोर्ट से ही
जुड़ा है.
15 जनवरी 1988 को पुलिस ने एक वकील को सेंट स्टीफेंस कॉलेज से एक लड़की का
पर्स चुराते हुए गिरफ्तार किया था. 16 जनवरी को जब वकील को हथकड़ी लगाकर तीस हजारी
कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो वहां मौजूद वकील भड़क गए. उन्होंने
तत्काल आरोपी वकील को छोड़ने और पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की. मजिस्ट्रेट
ने वकील को छोड़ दिया और पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा. उस समय किरण
बेदी दिल्ली डीसीपी नॉर्थ थीं. किरण बेदी ने पुलिस के कदम को सही ठहराया.
उस मामले में करीब दो महीने तक वकीलों का आंदोलन हुआ और उनपर लाठीचार्ज भी
हुआ. तब भी हाईकोर्ट को दखल देना पड़ा. जजों की एक समिति ने जाँच की और वकील को
हथकड़ी लगाने को गलत बताया और किरण बेदी के तबादले की सिफारिश की. दिल्ली की तब की
और इस बार की घटना के बाद पुलिस और वकीलों के पक्ष में नागरिकों की अलग-अलग
प्रतिक्रियाएं आईं. आम नागरिक दोनों से मर्यादा का पालन करने की अपेक्षा करता है.
पुलिस को कई तरह की विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, पर जनता को उसके
व्यवहार को लेकर शिकायतें हैं. पुलिस को समझना चाहिए कि सामान्य नागरिक के साथ
दुर्व्यवहार होता है, तो उसकी छवि खराब होती है. फिर भी दिल्ली में नागरिकों ने इस
बार पुलिस के पक्ष में भी मोमबत्तियाँ जलाई हैं. क्योंकि उन्हें वकीलों से भी
शिकायत है. हाल के वर्षों में अदालत परिसर में पत्रकारों तथा मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं में हमले हुए हैं. ऐसी शिकायतें दिल्ली में ही नहीं देशभर में हैं.
पुलिस और वकील दोनों की जिम्मेदारी नागरिकों के प्रति है. दोनों को
आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. दिल्ली में जो झगड़ा खड़ा हुआ है, वह केवल पार्किंग को
लेकर था. इसका मतलब है कि यह छोटी सी बात केवल बहाना थी. खाकी वर्दी और काले कोट
की हमारी न्याय-प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका है. दोनों से नागरिकों को अपेक्षाएं
हैं और दोनों से शिकायतें हैं. और दोनों को अपनी भूमिका निभानी चाहिए. गहराई से
देखें, तो पुलिसकर्मियों के मन में बड़े अफसरों के व्यवहार से भी नाराजगी है. हाल
की खबर है एक बड़े पुलिस अफसर ने एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर को इस बात पर थप्पड़ मार
दिया था, क्योंकि उसने अफसर की गाड़ी को ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन से रोका था.
वस्तुतः पुलिस का इस्तेमाल आज भी औपनिवेशिक तौर-तरीकों से चल रहा है. पुलिस
सुधार में सबसे बड़ा अडंगा राजनीति का है. घूम-फिरकर सारी बातें राजनीति और
प्रशासन पर आकर रुकती हैं. दिल्ली की इस घटना के बाद पुलिस अधिकारी एक तरह की
बातें करते सुनाई पड़ रहे हैं और न्यायपालिका से जुड़े लोग दूसरे स्वरों में बोल
रहे हैं. सवाल ‘हमारे और उनके टकराव’ का नहीं है, नियमों और मर्यादाओं
का है. हिंसा का अधिकार न तो खाकी वर्दी को है और न काले कोट को. टकराव कुछ
व्यक्तियों के बीच का है और उनकी अनुशासनहीनता का. यह संस्थाओं का टकराव नहीं है,
क्योंकि दोनों का उद्देश्य एक है.
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