अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण लंबे
समय तक होता रहेगा, पर एक बात निर्विवाद रूप से स्थापित हुई है कि भारतीय
राष्ट्र-राज्य के मंदिर का निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों
की भूमिका है. हमें इस देश को सुंदर और सुखद बनाना है. हमें अपनी अदालत को धन्यवाद
देना चाहिए कि उसने एक जटिल गुत्थी को सुलझाया. प्रतीक रूप में ही सही अदालत ने यह
फैसला सर्वानुमति से करके एक संदेश यह भी दिया है कि हम एक होकर अपनी समस्याओं के
समाधान खोजेंगे. इस फैसले में किसी एक जज की भी राय अलग होती, तो उसके तमाम
नकारात्मक अर्थ निकाले जा सकते थे.
एक तरह से यह फैसला भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में मील का
पत्थर साबित होगा. सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी
बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था, पर उसने भारतीय
समाज के सामने खड़ी एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला. इस सवाल को
हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा
जाना चाहिए. सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले
जाए, तो इससे अच्छा क्या होगा?
अदालत ने पिछले महीने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद
सभी पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है. इसके
पहले अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई
हल निकल जाए. ऐसा होता, तो और अच्छा होता. अदालत ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं? ताकि सभी को स्वीकार्य रास्ता निकल सके. बहरहाल अब इस फैसले पर अदालत की मुहर
लग जाने के बाद इसकी वैधता बढ़ गई है.
अब हमें सोचना चाहिए कि भविष्य की राह क्या है? इस फैसले को किसी एक पक्ष की
जीत या हार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. साथ ही यह भी स्वीकार करना चाहिए कि
राम जन्मस्थान का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा, तो कहाँ बनेगा? मंदिर बनाने में देरी से जो बदमज़गी पैदा हो रही थी, उससे भी बचने की जरूरत
थी. देश में सामाजिक विसंगतियों और अंतर्विरोधों को दूर करने की जरूरत है. क्या हम
ऐसा नहीं कर सकते? जिन सवालों को लेकर समाज के भीतर कड़वाहट है, उन्हें दूर करने के रास्ते खोजे
जाने चाहिए. सच यह है कि हिंदू हो या मुसलमान जिंदगी की जद्दो-जहद में दोनों के सामने खड़े
सवाल एक जैसे हैं.
मोटे तौर पर अयोध्या मामले के अनेक पहलू हैं, पर अदालत के
सामने उस जमीन के स्वामित्व का मामला था, जिसपर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सन 2010
में फैसला सुनाया था. 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने आदेश पारित कर अयोध्या
में विवादित जमीन को राम लला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ
बोर्ड में बराबर बांटने का फैसला किया जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. यह
बुनियादी सवाल से जुड़ा मामला था. सर्वोच्च अदालत ने हिंदुओं
की आस्था का सम्मान करते हुए राम मंदिर के निर्माण का रास्ता खोल दिया है, वहीं
मुसलमानों की आस्था को स्वीकार करते हुए उन्हें मस्जिद का अधिकार भी दिया है.
अदालत ने बाबरी विध्वंस को गैर-कानूनी भी बताया है. इसका
मतलब है कि उससे जुड़े मुकदमे जारी रहेंगे. वे सारे मामले खत्म नहीं हुए हैं. अदालत
ने ऐतिहासिक कालक्रम में इस मामले का निपटारा किया हो, जो सरल काम नहीं था. उसने इस
बात को स्थापित किया कि इस स्थान पर 1856 से भी पहले, बल्कि अंग्रेजों के आने के
भी पहले से राम चबूतरे और सीता रसोई में हिन्दू पूजा-अर्चना करते थे. एक प्रकार से
यह दोनों धर्मों की मिली-जुली व्यवस्था थी. उसने यह भी माना कि मस्जिद किसी खाली
जमीन पर नहीं बनी थी. उसके नीचे कोई धार्मिक संरचना थी और यह इस्लामिक संरचना नहीं
थी. अदालत ने देश के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की जाँच को भी ध्यान में रखा था. बाबरी मस्जिद गैर-इस्लामी
संरचना पर बनाई गई थी, यह स्वीकार कर लेने के बाद माना जा सकता है कि वहाँ पहले एक
मंदिर था. अदालत ने इस तथ्य को क्रमशः एक के बाद एक करके तथ्यों के आधार पर
स्थापित किया.
अदालत ने अपने निर्णय में एक जगह कहा है कि भारतीय संविधान
धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करता. अब नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य बनता है कि
हम इस बात को और पुख्ता करें. किसी प्रकार की कड़वाहट पैदा नहीं होने दें. हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि यह सामान्य संपत्ति का विवाद नहीं था. इसके साथ आस्था और
भावनाओं के सवाल जुड़े थे. समाज पर इस विवाद का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था.
यह फैसला आने के
बाद अब अगला इस मामले के राजनीतिकरण का है. सब मानते हैं कि इसका राजनीतिकरण नहीं
होना चाहिए, पर सच यह है कि इसका इस हद तक राजनीतिकरण हो चुका है कि इस चलन को कम
करने में समय लगेगा. यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की कोशिश कर रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला जाने के बाद भी इसे लटकाने के प्रयास होते रहे. इससे
कड़वाहट बढ़ ही रही थी, कम नहीं हो रही थी.
बल्कि अब कहा जा
सकता है कि समाधान हो जाने के बाद बीजेपी के पास से एक मसला कम हो गया. बीजेपी ने यों
भी इसे उठाना कम कर दिया था. सन 1992 के बाद 6 दिसम्बर की तारीख कई बार आई और गई.
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से केंद्र में यह चौथी सरकार है, जिसमें भारतीय जनता
पार्टी की प्रभावी भूमिका है. सन1989 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में
भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही. यह वादा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उतरी
भाजपा ने भी किया, पर उस शिद्दत के साथ नहीं. सन 2014 के 42 पेजों के चुनाव घोषणापत्र में 41 वें
पेज पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा किया गया. वह भी मंदिर निर्माण के लिए
सांविधानिक दायरे में संभावनाएं तलाश करने का वायदा. सुखद बात यह है कि अब सांविधानिक
दायरे में ही मंदिर बनेगा.
बहुत ही शानदार पोस्ट।
ReplyDeleteअयोध्या मामले पर हमने भी बहुत ही गहनता से परिपूर्ण लेख लिखा है। आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
एक बार अवसर जरूर प्रदान करे।
यूपी हिंदी न्यूज़