अमेरिका की
डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने की रेस में शामिल रह चुके वरिष्ठ
सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने पिछले हफ्ते कहा कि कश्मीर के हालात को लेकर उन्हें चिंता
है। अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक सोसायटी ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिकी सरकार को इस
मसले के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का समर्थन में खुलकर समर्थन करना
चाहिए। हालांकि बर्न सैंडर्स की अमेरिकी राजनीति में कोई खास हैसियत नहीं है और यह
भी लगता है कि वे मुसलमानों के बीच अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए ऐसा बोल रहे
हैं, पर उनकी दो बातें ऐसी हैं, जो अमेरिकी राजनीति की मुख्यधारा को अपील करती
हैं।
इनमें से एक है
कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता या हस्तक्षेप का सुझाव और दूसरी कश्मीर समस्या का
समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करने की। पाकिस्तानी नेता भी बार-बार
कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करना चाहिए।
यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम यह बात क्यों
सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो गया? भारत इस मामले को सुरक्षा परिषद में संरा
चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव पास हुए थे, उनसे भारत की
सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे। अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार करने की
जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका
क्या रही है?
प्रस्ताव के बाद
प्रस्ताव
सन 1948 से 1971
तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए
हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए
थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के
संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति
बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे
महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।
प्रस्ताव 47 के
तहत जनमत संग्रह के पहले तीन चरणों की एक व्यवस्था कायम होनी थी। इसकी शुरुआत पाक
अधिकृत क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना और कबायलियों की वापसी से होनी थी। पाकिस्तान
ने ही उसे स्वीकार नहीं किया, तो उसे लागू कैसे किया जाता। पाकिस्तान बुनियादी तौर
पर जनमत संग्रह के पक्ष में था भी नहीं। नवम्बर 1947 में भारत के गवर्नर जनरल
माउंटबेटन पाकिस्तान गए थे और उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात
करके उनसे पेशकश की थी कि कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ तीनों रियासतों में जनमत
संग्रह के माध्यम से फैसला कर लिया जाए कि किसको किसके साथ रहना है। जिन्ना ने इस
प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। भारतीय राजनेता उस वक्त आश्वस्त थे कि उन्हें आसानी से
जनता का समर्थन मिलेगा।
मध्यस्थता की
विफलता
यदि हम पिछले
सत्तर वर्ष की वैश्विक राजनीति पर गौर करें, तो पाएंगे कि कश्मीर के मामले को
संयुक्त राष्ट्र ने न्याय और कानून के नज़रिए से देखा ही नहीं। शीतयुद्ध और
राजनीतिक के गणित के कारण ब्रिटेन और अमेरिका ने इसे शुद्ध राजनीति का विषय बनाया।
विचार तो इस बात पर होना चाहिए था कि कश्मीर का विलय नियमानुसार हुआ या नहीं।
देखना यह भी चाहिए था कि अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना के समर्थन से
कबायलियों ने हमला बोला था, क्या वह गलत नहीं था? बहरहाल सुरक्षा परिषद इस मामले को सुलझाने में
नाकामयाब रही। सन 1965 के बाद से उसने कोशिश भी बंद कर दी है।
ब्रिटेन और
अमेरिका के इस रुख के कारण भारत की दिलचस्पी सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों से हट गई
और धीरे-धीरे उसने वैश्विक मध्यस्थता से किनारा कर लिया। दूसरी तरफ
दुनिया की कोशिशें भी कम होती गईं। अगस्त के महीने में अमेरिकी सांसदों के लिए
तैयार की गई एक पृष्ठभूमि रिपोर्ट में कहा गया है कि सन 1961-62 में ब्रिटेन और
अमेरिका के बीच इस विषय पर बातचीत के छह दौर हुए और कोई फैसला नहीं
हो पाया। अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान ने
अमेरिका की मदद की थी। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में
फौजी हस्तक्षेप का लाभ कश्मीर में लेने का प्रयास किया। अमेरिका ने भी कश्मीर के
समाधान में दिलचस्पी दिखाई थी। हाल में ट्रंप ने इस आशय की बात कही थी, पर फौरन
हाथ खींच भी लिया था।
महाराजा का
असमंजस
अविभाजित भारत
में 584 देशी रजवाड़े थे। कश्मीर भी अंग्रेजी राज के अधीन था, पर उसकी स्थिति एक
प्रत्यक्ष उपनिवेश जैसी थी और 15 अगस्त 1947 को वह भी स्वतंत्र हो गया। देशी
रजवाड़ों के सामने विकल्प था कि वे भारत को चुनें या पाकिस्तान को। देश को जिस
भारत अधिनियम के तहत स्वतंत्रता मिली थी, उसकी मंशा थी कि कोई भी रियासत स्वतंत्र देश के रूप में
न रहे। बहरहाल कश्मीर
राज के मन में असमंजस था। अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में कबायली
हमलों के बाद 26 अक्तूबर को महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए और
उसके अगले दिन भारत के गवर्नर जनरल ने उसे मंजूर भी कर लिया। भारतीय सेना कश्मीर
भेजी गई और करीब एक साल तक कश्मीर की लड़ाई चली। भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद
नवम्बर में पाकिस्तानी सेना भी बाकायदा इस लड़ाई में शामिल हो गई।
भारत इस मामले को
जब संरा सुरक्षा परिषद में ले गया, तब उसका कहना था कि कश्मीर के महाराजा ने भारत
में विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किए हैं, इसलिए कश्मीर अब हमारी सम्प्रभुता का
हिस्सा है जिसपर पाकिस्तान ने हमला किया है। उसे वहाँ से वापस बुलाया जाए। पाकिस्तान
ने अपने जवाब में कहा कि हम कबायलियों की कोई मदद नहीं कर रहे हैं। उनका पाकिस्तान
से कोई सीधा रिश्ता नहीं है। इसके साथ ही पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा के विलय
पत्र को ‘धोखाधड़ी और हिंसा के
सहारे’ हासिल किया गया
बताया। उसने यह भी कहा कि महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार के बीच हुआ समझौता
गैर-कानूनी है। इस सिलसिले में कोई भी फैसला कश्मीरी जनता की सहमति से ही होना
चाहिए।
जनमत संग्रह का झमेला
भारत और पाकिस्तान के आवेदन-प्रतिवेदन के बाद सुरक्षा परिषद ने संरा चार्टर के
अनुच्छेद 34 के आधार पर इस मामले की जाँच करने का फैसला किया और फिर प्रस्ताव 38
और 39 पास किए। 17 जनवरी 1948 का
प्रस्ताव 38 सामान्य प्रस्ताव था, जिसमें दोनों पक्षों से
स्थिति को बिगड़ने से रोकने का अनुरोध किया गया था। इसके बाद 20 जनवरी को प्रस्ताव 39 पास किया गया, जिसमें भारत और पाकिस्तान के लिए संरा आयोग (यूएनसीआईपी) का गठन किया गया, जिसे दो
बातों की जाँच करने की जिम्मेदारी दी गई। 1.इस समस्या के उत्पन्न होने के पीछे
कारण क्या हैं और 2.हालात को सुधारने के लिए किसी प्रकार की मध्यस्थता करना और इस
सिलसिले में हुई प्रगति की जानकारी सुप को देना।
सुरक्षा परिषद का
यह आयोग इस इलाकेे में जाकर अध्ययन करता उसके पहले ही सुप ने 21 अप्रेल 1948 को प्रस्ताव 47 पास कर दिया। यही वह प्रस्ताव है, जिसका कश्मीर समस्या के
स्थायी समाधान की दिशा में बार-बार उल्लेख किया जाता है। इसमें दो काम मुख्य रूप
से होने थे। 1.क्षेत्र का विसैन्यीकरण और 2.जनमत संग्रह। इसमें पाकिस्तान से कहा
गया था कि वह इस क्षेत्र से कबायलियों और अन्य पाकिस्तानी नागरिकों को वापस बुलाए।
इसके बाद भारत की जिम्मेदारी थी कि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक
न्यूनतम उपस्थिति को बनाए रखते हुए अपनी शेष सेना को वापस बुलाए। इस तरह
विसैन्यीकरण के बाद संरा द्वारा नियुक्त जनमत संग्रह प्रशासक के निर्देशन में
स्वतंत्र और पक्षपात रहित जनमत संग्रह की प्रक्रिया होनी थी।
विलय पत्र का
जिक्र भी नहीं
ध्यान देने वाली
बात है कि सुप के प्रस्ताव में महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का की जिक्र नहीं
था। मई 1948 में जब संरा आयोग जाँच के लिए भारतीय भूखंड में आया, तबतक पाकिस्तानी
नियमित सेना कश्मीर में प्रवेश कर चुकी थी। यह सेना कश्मीर पर हमलावर उन कबायलियों
की सहायता कर रही थी, जो भारतीय सेना से लड़ रहे थे। वस्तुतः असैनिकों के वेश में
भी पाकिस्तानी सैनिक ही थे। स्वतंत्रता के एक हफ्ते बाद ही 20 अगस्त को ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ बना लिया गया था, जिसमें एक-एक हजार पठानों के
20 लश्कर बनाने की योजना थी। इन्हें बन्नू, वाना, पेशावर, कोहाट और नौशेरा के
ब्रिगेड मुख्यालयों में ट्रेनिंग दी गई थी।
इस बीच 3 जून को
सुप ने प्रस्ताव 51 पास करके आयोग से जल्द से जल्द कश्मीर जाने का
आग्रह किया। संरा प्रस्ताव 47 में ‘पाकिस्तानी नागरिकों’ को हटाने की बात थी, जबकि अब तो औपचारिक रूप से
सेना भी आ गई थी। जुलाई में जब संरा आयोग कश्मीर में आया, तो वहाँ पाकिस्तानी सेना
को देखकर उसे विस्मय हुआ। इसके बाद 13 अगस्त 1948 को संरा आयोग के पहले प्रस्ताव में इस बात का जिक्र है। इसमें कहा गया है कि पाकिस्तानी
सेना की उपस्थिति के कारण मौलिक स्थितियों में ‘मैटीरियल चेंज’ आ गया है। इसके बावजूद इस प्रस्ताव में या इसके पहले के
प्रस्तावों में ‘विलय पत्र’ का कोई जिक्र नहीं है। यानी एक
तरफ पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति की अनदेखी हुई वहीं ‘विलय पत्र’ का जिक्र भी नहीं हुआ। विलय पत्र को नामंजूर भी नहीं किया।
वैश्विक राजनीति
यदि विलय पत्र का जिक्र होता, तो पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति को ‘भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण’ माना जाता। पाकिस्तान को ‘विलय पत्र’ भी स्वीकार नहीं था, और महाराजा की संप्रभुता को भी
उसने अस्वीकार कर दिया था, हालांकि महाराजा के साथ उसने ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ किया था। पाकिस्तान का कहना था कि आजाद कश्मीर
आंदोलन के कारण महाराजा का शासन खत्म हो गया था। इतना होने के बावजूद संरा आयोग ने
पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति की भर्त्सना नहीं की। संरा की मध्यस्थता में भारत और
पाकिस्तान को एक पलड़े पर रखा जाने लगा। कश्मीर के विलय की वैधानिकता और नैतिकता
के सवाल ही नहीं उठे।
विशेषज्ञों का एक वर्ग मानता है कि संरा सुरक्षा परिषद की राजनीतिक भूमिका के
पीछे सबसे बड़ा हाथ ब्रिटेन का था, जो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है। स्वतंत्रता के साथ ही
ब्रिटेन को भारत की भावी भूमिकाओं को लेकर चिंता थी। भारत को आजाद करने के बावजूद
उसकी दिलचस्पी इस इलाके में थी। ब्रिटेन कश्मीर को अपनी भावी भूमिका के चश्मे से
देख रहा था और उसने अमेरिकी नीतियों को भी प्रभावित किया था। तमाम मामलों में उनकी
संयुक्त रणनीति काम करती थी। यह नजरिया केवल कश्मीर पर ही लागू नहीं होता। इसे
ग्रीस (1947) फलस्तीन (1948), कोरिया (1950), इंडोनेशिया (1949) और वियतनाम (1954)
में भी देखा जा सकता है।
पाकिस्तानी
दाँव-पेच
संरा प्रस्तावों की विफलता और उसके पीछे की राजनीति के अलावा पाकिस्तान ने
संरा प्रस्तावों को मानने से इनकार करना शुरू कर दिया था। इस प्रस्ताव के बाद
पाकिस्तान ने एक तरफ यह कहा कि जनमत संग्रह के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध
नहीं है। दूसरे उसने बड़ी बात यह कही कि जब सेना की वापसी हो तो भारतीय सेना की भी
साथ-साथ वापसी हो और पूरी वापसी हो। अब संरा का सारा ध्यान युद्ध रोकने पर चला गया
और अंततः 1 जनवरी 1949 को युद्ध विराम समझौता हो गया। इससे एक प्रकार की सीमा बन
गई, जिसे सन 1972 के शिमला समझौते में युद्ध विराम रेखा के बजाय नियंत्रण रेखा कहा
गया। व्यावहारिक रूप से संरा ने जनवरी 1949 में ही पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को
औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया, हालांकि कानूनन पाकिस्तान का कोई दावा बनता ही
नहीं था। इसके बाद पाकिस्तान ने जनमत संग्रह को अपना हथियार बनाना शुरू किया।
सुरक्षा परिषद ने
संरा आयोग के बजाय एक सदस्यीय मध्यस्थ की नियुक्ति करनी शुरू की। 14 मार्च 1950 के
प्रस्ताव 80 से इसकी शुरुआत हुई। इसके पहले 17 दिसंबर 1949
को सुरक्षा परिषद ने अपने अध्यक्ष जनरल मैकनॉटन से मध्यस्थता का अनुरोध किया।
उन्होंने फरवरी 1950 में जो प्रस्ताव दिया था, उसमें दोनों देशों की सेनाओं की
वापसी का प्रस्ताव था, अलबत्ता शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए न्यूनतम भारतीय
सेना रखने की सलाह थी। भारत ने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसमें
दोनों पक्षों को बराबरी पर रखा गया था। अंततः 1950 में संरा आयोग भंग हो गया। इसके
बाद व्यक्तिगत मध्यस्थता के कई दौर हुए, पर सफलता नहीं मिली। सन 1957 के प्रस्ताव 126 के बाद समस्या के स्थायी समाधान की बातें भी खत्म हो गईं
और 1965 की लड़ाई के बाद प्रस्ताव 210 और 211 से ध्वनि निकलती है कि
किसी और से मध्यस्थता करा लो।
समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसम्बर 2003 को परवेज़ मुशर्रफ के
इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी किया, जिसमें उन्होंने
कहा, ‘हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका है’ (लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने
को तैयार है।’ यह बात आगरा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई
2001) के बाद की है। सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों की रोशनी में समाधान खोजने का
सुझाव तमाम लोग देते हैं, पर इन प्रस्तावों को एकसाथ रखकर पढ़ें, तो साफ नजर आता है
कि वैश्विक राजनीति और शीतयुद्ध की गरमी में समाधान के सारे प्रयास निष्फल होते
रहे। कुछ लोग इसका मतलब जनमत संग्रह मानते हैं, पर आज जनमत संग्रह का मतलब क्या
है। हाल के वर्षों में चीन की आर्थिक शक्ति बढ़ने के साथ एक और महत्वपूर्ण पक्ष इस
विवाद में शामिल हो गया है। बेशक चीन सीधे तौर पर इसमें पार्टी नहीं है, पर
चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर का भागीदार होने के कारण उसके हित भी इस इलाके के
साथ जुड़ गए हैं।
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