संयुक्त राष्ट्र
महासभा में आज भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के भाषण होने वाले है। दोनों
देशों की जनता और मीडिया की निगाहें इस परिघटना पर हैं। क्या कहने वाले हैं, दोनों
नेता? पिछले कुछ वर्षों में इस भाषण का महत्व कम होता गया है। यह
भाषण संबद्ध राष्ट्रों के वैश्विक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। इससे ज्यादा
इसका व्यावहारिक महत्व नहीं होता।
दोनों देशों के
नेताओं के पिछले कुछ वर्षों के भाषणों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, तो पाएंगे कि
पाकिस्तान का सारा जोर कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण और उसकी नाटकीयता पर होता
है। शायद उनके पास कोई विश्व दृष्टि है ही नहीं। इस साल भी वही होगा। देखना सिर्फ
यह है कि नाटक किस किस्म का होगा। इसकी पहली झलक गुरुवार को मिल चुकी है।
हर साल संरा
महासभा के हाशिए पर दक्षेस देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक भी होती है। गुरुवार
को हुई बैठक में पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी तबतक नहीं आए, जबतक
भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर वहाँ थे। जयशंकर के जाने के बाद वे वहाँ आए, तबतक
भारतीय विदेशमंत्री सभा को छोड़कर जा चुके थे।
पिछले साल भी
तत्कालीन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने बैठक में भाषण के बाद सभास्थल छोड़ दिया था।
पर इस सिलसिले में कोई बयान नहीं दिया था। इसबार पाकिस्तान की तहरीके इंसाफ पार्टी
ने ट्वीट किया कि हमारे विदेशमंत्री ने भारत के विदेशमंत्री के भाषण का बहिष्कार
किया। बाद में कुरैशी ने कहा, आप समझते हैं कि मैं कश्मीर के कसाई के साथ बैठूँगा?
भारत ने बाद में
इस हरकत के जवाब में कहा, यह ड्रामा नहीं चलेगा। दक्षेस की प्रक्रियाओं को सामान्य
बनाने के लिए पाकिस्तान की अपेक्षित माहौल बनाना होगा। पिछले साल ही महासभा की
बैठक के हाशिए पर विदेशमंत्रियों की मुलाकात की उम्मीद थी, क्योंकि साल
प्रधानमंत्री बनने के बाद इमरान खान ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था। उसकी प्रतिक्रिया
में भारत ने विदेशमंत्रियों की मुलाकात को स्वीकार कर भी लिया था, पर तीन पुलिसकर्मियों के अपहरण और उनकी हत्या
और फिर बीएसएफ के एक जवान की गर्दन काटने की खबर आने के बाद देश में गुस्से की लहर
दौड़ गई।
पाकिस्तान की धूर्तता
का पता 24 जुलाई 2018 को उनके डाक-तार
विभाग द्वारा जारी 20 डाक टिकटों की
एक सीरीज से भी लगा। इन डाक टिकटों में कश्मीर की गतिविधियों को रेखांकित किया गया
था। एक डाक टिकट में बुरहान वानी का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महिमा-मंडन किया
गया था, जबकि भारत उसे आतंकवादी मानता है। इस प्रकार की बैठकों के लिए भी न्यूनतम
सौहार्द का माहौल होना चाहिए। वह नहीं है।
फिलहाल लगता यही
है कि इमरान खान केवल और केवल भारत-विरोधी बातें बोलेंगे और भारत के प्रधानमंत्री
भारत की विश्व दृष्टि को दुनिया के सामने रखेंगे। भारत चाहता है कि पाकिस्तान भी
एक सकारात्मक और दोस्ताना कार्यक्रम लेकर दुनिया के सामने आए, ताकि इस इलाके की
गरीबी, मुफलिसी, अशिक्षा और बदहाली को दूर किया जा सके। आप खुद देखिएगा दोनों
भाषणों के अंतर को।
इमरान खान ने इस अधिवेशन
के लिए अमेरिका रवाना होने के पहले पिछले हफ्ते कहा था, मैं ‘मिशन कश्मीर’ पर जा रहा हूँ। इंशा
अल्लाह सारी दुनिया हमारी मदद करेगी। पर हुआ उल्टा महासभा के भाषण के पहले ही
उन्होंने स्वीकार कर लिया कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के अपने
प्रयासों में फेल रहा है। दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री ने ‘हाउडी मोदी’ रैली में केवल एक बात से सारी
कहानी साफ कर दी। उन्होंने कहा, ‘दुनिया जानती है कि 9/11 और मुंबई में 26/11 को हुए
हमलों में आतंकी कहाँ से आए थे।’
सच यह है कि इस
सालाना डिबेट से कुछ नहीं होने वाला। पाकिस्तान को ज्यादा भाव देना बंद करना
चाहिए। वह अपने अंतर्विरोधों से खुद गड्ढे में गिरेगा। अगले एक दशक में दुनिया का
सीन बदलने जा रहा है। हमें उसके बारे में सोचना चाहिए। पाकिस्तान कश्मीर में अपनी
गतिविधियाँ बढ़ाकर बातचीत का दबाव बनाना चाहता है। उसकी दिलचस्पी कश्मीर में है, सहयोग, सद्भाव और कारोबार में नहीं। बातचीत किसी न किसी स्तर पर
हमेशा चलती है और भविष्य में भी चलेगी, पर उसका समारोह तभी मनेगा जब उसका माहौल होगा।
भारत को विश्व स्तर
पर अपनी स्थिति को बेहतर बनाना चाहिए। हम मजबूत नहीं होंगे, तो प्रतिस्पर्धी हमें आँखें दिखाएंगे। पाकिस्तान न सिर्फ आतंकवाद को बढ़ावा देता है बल्कि वह इसे
नकारता भी है। इस बात को इस साल एस जयशंकर ने कौंसिल ऑन फॉरेन
अफेयर्स के एक कार्यक्रम में फिर दोहराया। उन्होंने कहा, आप दुनिया के किसी इलाके
में ऐसा देश नहीं पाएंगे, जो अपने पड़ोसी के खिलाफ अपने आतंकी कारखानों का इतनी
बेशर्मी से खुलेआम इस्तेमाल करता हो। ऐसा कत्तई संभव नहीं कि हम दिन में क्रिकेट
खेलें और आप रात में टेरर-टेरर खेलें।
बहरहाल इमरान खान
ने अमेरिका में यह मान लिया है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के भारतीय फैसले का ज्यादातर
देशों ने समर्थन किया है और किसी भी मंच पर पाकिस्तान को समर्थन नहीं मिल पाया है, यहाँ तक कि मुस्लिम देशों का भी नहीं। अमेरिका जाने के पहले
इमरान खान सऊदी अरब गए थे, वहाँ से भी उन्हें कुछ
मिला नहीं। पाकिस्तान दो तरह से घिरा हुआ है। एक तरफ वह आर्थिक संकट में है और
दूसरी तरफ इस्लामिक आतंकवाद का केंद्र बनने के फेर में ऐसा फँसा है कि उससे बाहर
निकलने का रास्ता खोज नहीं पा रहा है। उसके सिर पर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ)
का तलवार अलग लटकी हुई है।
पाकिस्तानी
नेताओं के उन्मादी बयान अब केवल अपने देश की जनता को भरमाने के लिए रह गए हैं।
पाकिस्तानी अखबार डॉन ने इस बात को अपने संपादकीय में स्वीकार किया है। अखबार ने
लिखा है, ‘दुनिया ने पाकिस्तान की गुहार पर वैसी
प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, जिसकी उम्मीद थी, बल्कि अमेरिका और यूएई ने तो भारत की इस बात को माना है कि
यह उसका आंतरिक मामला है।’
अब इमरान खान ने
भारत के आर्थिक कद और वैश्विक प्रमुखता को स्वीकार करते हुए कहा कि इसी वजह से
कश्मीर पर पाकिस्तान के बयान की अनदेखी की जा रही है। उन्होंने कहा, लोग भारत को सवा अरब लोगों के बाजार के रूप
में देखते हैं। पिछले महीने पाकिस्तान के गृह मंत्री ब्रिगेडियर एजाज़ अहमद शाह ने
कहा था कि, लोग हम पर विश्वास नहीं करते हैं, लेकिन वे उनपर (भारत) भरोसा करते हैं। पाकिस्तान को
नाटकबाज़ी छोड़कर यह समझना होगा कि इसकी क्या वजह है?
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