सुप्रीम कोर्ट ने
शुक्रवार को दिए गए एक फैसले में कहा कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक
संहिता लागू करने के लिए पिछले 63 साल में कोई प्रयास नहीं किया गया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कई बार कहा
है। अदालत ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने भाग 4 में नीति निर्देशक तत्वों का
विवरण देते हुए अनुच्छेद 44 के माध्यम से उम्मीद जताई थी कि देश के सभी हिस्सों
में समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयास किए जाएंगे। हालांकि हिन्दू पर्सनल लॉ
को 1956 में कानून की शक्ल दी गई, लेकिन उसके बाद समान नागरिक संहिता लागू करने के
लिए कोई कदम नहीं उठाए गए।
शाहबानो और सरला मुदगल
के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में समान संहिता की सिफारिशों के बाद भी कुछ
नहीं हुआ। अदालत की इस टिप्पणी के बाद फिर से कुछ संवदेनशील मामलों पर देश में बहस
शुरू होगी, जिनका संबंध धार्मिक मान्यताओं से है, और जो आधुनिक भारतीय
राष्ट्र-राज्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार को इससे
नैतिक और राजनीतिक सहारा भी मिलेगा, जो इस सिलसिले में लगातार प्रयत्नशील है।
इसके साथ ही हमें
यह विचार भी करना होगा कि समान नागरिक संहिता से हमारा आशय क्या है। यानी हम किस
प्रकार का कानून चाहते हैं? क्या यह कानून पूरे देश में लागू हो सकेगा? अनुच्छेद 371 कुछ इलाकों पर समान कानून लागू करने से रोकता
है। व्यक्तिगत कानून धार्मिक मान्यताओं से जुड़े हैं और धार्मिक मान्यताएं
संवेदनशील मसला है। क्या हम धार्मिक समूहों की स्वीकृति प्राप्त कर सकेंगे? तीन तलाक मामले में ऐसा हुआ नहीं। ऐसे कानून को
बनाने और लागू करने के पहले हमें धार्मिक पहचान से जुड़ी मान्यताओं और सामाजिक
जीवन में परंपराओं को आधुनिक बनने का इंतजार करना होगा। खासतौर से स्त्रियों के
अधिकारों के मामले में।
विधि मंत्रालय ने
17 जून 2016 को 21वें आयोग से कहा था कि वह ‘समान नागरिक संहिता के मामले को देखे।’
आयोग ने दो साल के अध्ययन के बाद अगस्त 2018 में अपने कार्यकाल के अंतिम दिन पेश
एक परामर्श पत्र में कहा कि इस समय समान नागरिक संहिता की ‘न तो जरूरत है और न
वांछित।’ समग्र रिपोर्ट पेश करने के लिए आयोग के पास समय कम था। परामर्श पत्र में
कहा गया, ‘समान नागरिक संहिता का
मुद्दा व्यापक है और उसके संभावित नतीजे अभी भारत में परखे नहीं गए हैं।’ आयोग के अध्यक्ष
जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान ने पहले कहा था कि समान संहिता की अनुशंसा करने
के बजाए, आयोग ‘चरणबद्ध’ बदलाव की
अनुशंसा कर सकता है।
बहरहाल अब यह
22वें विधि आयोग पर निर्भर करेगा कि वह इस मुद्दे पर व्यापक रिपोर्ट दे। जुलाई में
केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को सूचना दी थी कि 22वें विधि आयोग का गठन अभी
नहीं हुआ है। जब होगा उसके सामने इस मसले को रखा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने नवीनतम
फैसले में कहा कि गोवा एक ‘बेहतरीन उदाहरण’ है, जहाँ समान नागरिक संहिता,
धर्म की परवाह किए बिना सब पर लागू है। यह मामला गोवा के एक परिवार के सम्पत्ति
विवाद से जुड़ा था। गोवा में 2016 तक पुर्तगाली सिविल लॉ लागू था जिसके मुताबिक गोवा
या गोवा से बाहर सम्पत्ति रखने वाले गोवा के मूल निवासियों की संपत्ति बंटवारा इसी
कानून से होता था। सन 2016 में पुर्तगाली सिविल कोड के कई प्रावधानों को गोवा
उत्तराधिकार कानून से बदल दिया गया था। इसी के कुछ प्रावधानों को चुनौती दी गई थी।
अदालत ने इस सवाल
पर भी गौर किया कि क्या पुर्तगाली नागरिक संहिता को विदेशी कानून कहा जा सकता है।
पीठ ने कहा कि पुर्तगाली नागरिक संहिता भारतीय संसद के एक कानून के कारण गोवा में
लागू है। इसलिए,
वह कानून जो भले
ही विदेशी मूल का हो, भारतीय कानूनों
का हिस्सा बना और यह अब विदेशी कानून नहीं है। गोवा में पंजीकृत विवाह में मुस्लिम
पुरुष को बहुविवाह का अधिकार नहीं है और मुँह-जुबानी तलाक भी स्वीकृत नहीं है।
समान नागरिक संहिता का मामला जब उठता है तभी कई प्रकार के
सांप्रदायिक सवाल उठने लगते हैं। सन 1985 में शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने
के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी
दृढ़ता दिखाई होती तो शायद राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता की वह भूमिका
नहीं होती, जो आज नजर आती है। दुर्भाग्य से समान नागरिक
संहिता की बहस साम्प्रदायिक राजनीति की है और लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके
बाहर आ पाएंगे।
इस अंतर्विरोध की
शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक
अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह सवाल हमारे बीच आज भी कायम है तो इसकी वजह है
हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के नाम
पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के लिए
भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में
विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?
सब पर समान रूप
से लागू होने वाला कानून अच्छा विचार है, पर वह तभी संभव है, जब समाज अपने भीतर
सुधार के लिए तैयार हो। वह दिन कब आएगा? राजनीतिक दलों का यह इरादा नहीं है। और लोकतंत्र इतना प्रौढ़ भी नहीं है। पर क्या यह माना जाए कि
संविधान निर्माताओं ने जिस समझदारी के साथ देश पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं की
उसके मद्देनज़र इस मामले को जस का तस रहने दिया जाए?
बीजेपी के
राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के
बाद कहा कि अगले तीन-चार साल में मोदी सरकार वह सारे काम पूरा कर लेगी जिनका
उन्होंने देश की जनता से वादा किया है। कोई भी वादा अधूरा नहीं रहेगा। अगले 3-4
साल में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार समान नागरिक संहिता भी ले आएगी। कहा
जाता है कि सरकार इन मामलों को बीजेपी चुनावों के मद्देनज़र उठाती चाहती है। पर यह
सवाल जब भी उठेगा तब उसे राजनीति से प्रेरित माना जाएगा। क्या कभी ऐसा समय आएगा जब
सभी राजनीतिक दल इस सवाल पर बहस को जरूरी मानेंगे? क्यों नहीं वह बहस अभी शुरू की जाए?
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