संयुक्त राष्ट्र
महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के बयान से पाकिस्तान के मुँह पर जोर का तमाचा लहा है। अनुच्छेद
370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से भारतीय राजनय की दिलचस्पी इस मामले पर
ठंडा पानी डालने और जम्मू कश्मीर में हालात सामान्य बनाने में है, वहीं पाकिस्तान
की कोशिश है कि इसपर वितंडा खड़ा किया जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे उठाया
जाए। उसका प्रयास है कि कश्मीर की घाटी में हालात सामान्य न होने पाएं। इसी कोशिश
में उसने एक तरफ अपने जेहादी संगठनों को उकसाया है, वहीं अपने राजनयिकों को दुनिया
की राजधानियों में भेजा है।
पाकिस्तान ने जिनीवा
स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में इस मामले को उठाकर जो कोशिश
की थी वह बेकार साबित हुई है। एक दिन बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश
के बयान से पाकिस्तान को निराश होना पड़ा है। गुटेरेश का कहना है कि जम्मू-कश्मीर
का मसला भारत-पाकिस्तान आपस में बातचीत कर सुलझाएं। उन्होंने इस मसले पर मध्यस्थता
करने से इनकार कर दिया है। अब इस महीने की 27 तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा में
दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के भाषण होंगे। उसके बाद पाकिस्तान को हंगामा खड़ा
करने का कोई बड़ा मौका नहीं मिलेगा। वह इसके बाद क्या करेगा?
भारत सरकार जम्मू
कश्मीर में स्थानीय निकाय चुनावों और फिर विधानसभा चुनावों की तैयारी कर रही है।
इस बीच राज्य में लगी पाबंदियों को बहुत सावधानी के साथ धीरे-धीरे हटाया जा रहा
है। यह सच है कि वहाँ हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हैं, पर वैसे भी नहीं हैं, जैसे
सन 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद हो गए थे। पाकिस्तान को यही बात परेशान कर
रही है। जिनीवा की बैठक से पाकिस्तान को बहुत उम्मीदें थीं, जो पूरी नहीं हुईं। व्यावहारिक
सच यह है कि इस संस्था का अंतरराष्ट्रीय राजनय में अब वह महत्व नहीं है, जो कभी
होता था। तब इसका नाम मानवाधिकार आयोग (कमीशन) था, अब यह परिषद (कौंसिल) है और
1946 में बना संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग नहीं है, बल्कि मार्च 2006 में बनी
नई संस्था है।
पिछले महीने चीन
की मदद से सुरक्षा परिषद में इस मामले को उठाने में पाकिस्तान को मुँह की खानी
पड़ी थी। इस विषय पर अनौपचारिक रूप से विचार जरूर हुआ, पर किसी किस्म का दस्तावेज
जारी नहीं हुआ। यह पाकिस्तानी राजनय की शिकस्त थी। उसने कश्मीर का मामला उठाया है,
तो बलूचों, पश्तूनों और पाक अधिकृत कश्मीर में मानवाधिकारों के सवाल भी उठे हैं। जिनीवा
में बैठक स्थल के बाहर जहाँ पाकिस्तान समर्थकों ने भारत विरोधी पोस्टर और बैनर लगाए
थे, वहीं पाकिस्तान की आलोचना करने वाले पोस्टरों और बैनरों की तादाद बहुत ज्यादा
थी। ऐसे पोस्टरों में बड़ी संख्या में पश्तूनों के अपहरण का मामला भी था और सिंध
में अत्याचारों की जानकारियाँ। पाकिस्तान जनसंहार बंद करो’ जैसे नारे भी वहाँ लगे।
पाकिस्तान के
विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जिनीवा में कहा कि जम्मू कश्मीर में लोग बेहद
बुरे दौर का सामना कर रहे हैं। उन्होंने ‘जनसंहार’ शब्द का इस्तेमाल भी किया, जबकि सच यह है कि पिछले एक महीने में वहाँ पुलिस
की गोली से एक किसी आंदोलनकारी की मौत नहीं हुई है। पाकिस्तान चाहता है कि लोग
मरें। लाशों पर रोटी सेंकने की उसकी कोशिशें अभी तक नाकाम हुई हैं। अब संयुक्त
राष्ट्र महासचिव का बयान उसके मुँह पर तमाचा है। कुरैशी को जवाब देते हुए भारतीय
प्रतिनिधि विजया ठाकुर सिंह ने कहा कि हमारे आंतरिक मामले में कोई देश हस्तक्षेप
नहीं कर सकता। पाकिस्तान खुद आतंक का केंद्र है और दुष्प्रचार कर रहा है।
मानवाधिकार परिषद
में बहस के ठीक पहले चीन और पाकिस्तान के एक बयान का भी भारत के विदेश मंत्रालय ने
जोरदार जवाब दिया है। पाकिस्तान और चीन के एक संयुक्त बयान में कहा गया था कि कश्मीर
में भारत की एकतरफा कार्रवाई का हम विरोध करते हैं। इसके जवाब में भारत ने कहा कि
कश्मीर हमारा अंग है और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर को लेकर हमारी आपत्तियाँ
हैं।
चीन के विदेश
मंत्री वांग यी ने दो दिन के पाकिस्तान दौरे में कहा कि कश्मीर विवाद का समाधान
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के अनुरूप होना चाहिए। पाकिस्तानी
नेता भी बार-बार कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के
तहत करना चाहिए। यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम
यह बात क्यों सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो
गया? भारत इस मामले को सुरक्षा
परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव पास हुए थे,
उनसे भारत की सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे। अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार
करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की
भूमिका क्या रही है?
सन 1948 से 1971
तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए
हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए
थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के
संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति
बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे
महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की पेशकश है।
इस प्रस्ताव को
लागू करने की शुरुआत पाकिस्तानी सेना और कबायलियों की वापसी से होनी थी। पाकिस्तान
ने ही उसे स्वीकार नहीं किया, तो उसे लागू कैसे किया जाता? पाकिस्तान बुनियादी तौर पर जनमत संग्रह के पक्ष में था भी नहीं। नवम्बर 1947
में भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन पाकिस्तान गए थे और उन्होंने लाहौर में मोहम्मद
अली जिन्ना से मुलाकात करके उनसे पेशकश की थी कि कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़
तीनों रियासतों में जनमत संग्रह के माध्यम से फैसला कर लिया जाए कि किसको किसके
साथ रहना है। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
यदि हम पिछले
सत्तर वर्ष की वैश्विक राजनीति पर गौर करें, तो पाएंगे कि कश्मीर के मामले को
संयुक्त राष्ट्र ने न्याय और कानून के नज़रिए से देखा ही नहीं। शीतयुद्ध और
राजनीतिक गणित के कारण ब्रिटेन और अमेरिका ने इसे शुद्ध राजनीति का विषय बनाया।
विचार तो इस बात पर होना चाहिए था कि कश्मीर का विलय नियमानुसार हुआ या नहीं।
देखना यह भी चाहिए था कि अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना के समर्थन से
कबायलियों ने हमला बोला था, क्या वह गलत नहीं था? बहरहाल सुरक्षा परिषद इस मामले को सुलझाने में
नाकामयाब रही। सन 1965 के बाद से उसने कोशिश भी बंद कर दी है। अब पाकिस्तान का हित
इसी बात में है कि वह अपना छाया-युद्ध बंद करे और भारत के साथ बैठकर सहयोग और
समझौते की बातें करें।
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