जम्मू कश्मीर में
पाबंदियों को लगे 47-48 दिन हो गए हैं और लगता नहीं कि निर्बाध आवागमन और इंटरनेट
जैसी संचार सुविधाएं जल्द वापस होंगी। सरकार पहले दिन से दावा कर रही है कि हालात
सामान्य हैं, और विरोधी भी पहले ही दिन से कह रहे हैं कि सामान्य नहीं हैं। उनकी माँग
है कि सारे प्रतिबंध हटाए जाएं और जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, उन्हें
छोड़ा जाए। एक तबका है, जो प्रतिबंधों को उचित मानता है और जिसकी नजर में सरकार की
रीति-नीति सही है। दूसरा इसके ठीक उलट है। मीडिया कवरेज दो विपरीत तस्वीरें पेश कर
रही है। बड़ी संख्या में भारतीय पत्रकार सरकारी सूत्रों के हवाले हैं, दूसरी तरफ
ज्यादातर विदेशी पत्रकारों को सरकारी दावों में छिद्र ही छिद्र नजर आते हैं। ऐसे
विवरणों की कमी हैं, जिन्हें निष्पक्ष कहा जा सके। पत्रकार भी ‘पोलराइज़्ड’ हैं।
इस एकतरफा दृष्टिकोण के पीछे तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। दूसरा
है असमंजस। इस समस्या को काफी लोग दो कालखंड में देखते हैं। सन 2014 के पहले और उसके
बाद। देश के भीतर ही नहीं वैश्विक मंच पर भी यही बात लागू होती है। वॉशिंगटन
पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और इकोनॉमिस्ट से
लेकर फॉरेन पॉलिसी जैसे जर्नल नरेंद्र मोदी के आगमन के पहले से ही उनके आलोचक हैं।
सरकार कहती है कि हम बड़ी हिंसा को टालने के लिए धीरे-धीरे ही प्रतिबंधों को
हटाएंगे, तो उसे देखने वाले अपने चश्मे से देखते हैं। विदेशी मीडिया कवरेज को लेकर
भारतीय नागरिकों का बड़ा तबका नाराज है।
आवेशों की आँधियाँ
माहौल लगातार तनावपूर्ण है। कोई यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि हालात को
कैसे ठीक किया जाए और आगे का रास्ता क्या है। इस वक्त दो बातों पर ध्यान देने की
जरूरत है। एक, अगले महीने जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बनना है। उससे
पहले का प्रक्रियाएं कैसे पूरी होंगी। और दूसरी बात है कि इसके आगे क्या? कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान यह तो नहीं है, तो फिर
आगे क्या? भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में आवेशों के तूफान चलते ही रहते है। कोई नई
बात नहीं है। भावनाओं के इन बवंडरों के केंद्र में कश्मीर है। विभाजन का यह अनसुलझा
सवाल, दोनों देशों के सामान्य रिश्तों में भी बाधक है।
सवाल है कि 72 साल में इस समस्या का समाधान क्यों नहीं हो पाया? अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद तमाम
एकबारगी बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया, पर जैसाकि होता है, इस फैसले के
विरोधियों ने भी कुछ देर से ही सही मोर्चा संभाल लिया है। भारतीय जनता का बहुमत 370
को हटाने के पक्ष में नजर आता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि इसे बनाए रखने के
पक्षधर यह नहीं बता पाते हैं कि यह अनुच्छेद इतना ही महत्वपूर्ण था, तब कश्मीर में
अशांति क्यों पैदा हुई?
पिछले 72 साल में वहाँ हालात
लगातार बिगड़े ही हैं। सन 1947 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर में जिस किस्म
के अत्याचार किए थे, उन्हें देखते हुए पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति नहीं होनी
चाहिए थी। सन 1965 में जब अयूब खां ने हजारों रज़ाकारों को ट्रेनिंग देकर कश्मीर
में भेजा, तो उन्हें विश्वास था कि कश्मीरी जनता उन्हें हाथों हाथ लेगी, पर ऐसा
नहीं हुआ। सन 1971 की लड़ाई में भी नहीं हुआ। पिछले 72 साल में क्या हुआ, जो आज
हालात बदले हुए नजर आते हैं? ऐसा केवल दिल्ली
में बीजेपी की सरकार के कारण नहीं हुआ है। पत्थर मार आंदोलन तो 2010 में शुरू हो
गया था।
अनुच्छेद 370 को
निष्प्रभावी करने की प्रक्रिया सांविधानिक तरीके से ठीक है या नहीं इसका फैसला
अदालत करेगी। तमाम याचिकाएं अदालत के सामने हैं। अब देश में अदालत के फैसलों को
लेकर भी शंकाएं व्यक्त की जाती हैं। आपके पक्ष में फैसला नहीं आया, तो गलत और पक्ष
में आया, तो सही। कश्मीर देश की आंतरिक राजनीति का मसला है या राष्ट्रीय हितों का? एक तबका चाहता है कि कश्मीर हर तरह की
पाबंदियों को खत्म किया जाए। इससे क्या वहाँ शांति स्थापित हो जाएगी? इस सवाल से जुड़ी बारीकियों की तरफ बढ़ें, तब
हमारा सामना कुछ बुनियादी सवालों से होता है। कश्मीर समस्या का समाधान क्या है? ऐसा समाधान जिसे देश की जनता स्वीकार करे।
संयुक्त राष्ट्र
की तकरीरें
अगले हफ्ते
संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर के मसले पर भारत और पाकिस्तान के
प्रधानमंत्रियों के भाषण होने वाले हैं। पाकिस्तान में इस भाषण को लेकर गहमागहमी
है। पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान ने कबायलियों की भीड़ जमा कर ली है। पाकिस्तानी
प्रधानमंत्री इमरान खान ने अमेरिका रवाना होने के पहले इन जेहादियों से कहा है कि
मेरे भाषण का इंतजार करो। हिन्दुस्तान ने नौ लाख सेना के जवानों को लगा रखा है।
उनको सिर्फ़ बहाना चाहिए और फिर कहेंगे कि पाकिस्तान से दहशतगर्द आ रहे हैं। मैं
संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में बोलने जा रहा हूं और कौम से वादा करता हूं कि
कश्मीर के केस को इससे पहले किसी ने नहीं ऐसे नहीं रखा होगा, जैसे मैं रखने जा रहा हूं। इन्हें 370 भी बहाल करना होगा।
पाकिस्तान की ओर से जेहादियों का मार्च स्थगित हो गया है, पर क्या इमरान अनुच्छेद 370 बहाल करा पाएंगे? बहाल हो भी जाए, तो पाकिस्तान को क्या मिलेगा? क्या उसकी माँग
370 की बहाली है? कश्मीर को लेकर जिस तरह देश की राजनीति भ्रम में
है, उसी तरह सारी दुनिया के नेता भ्रम में हैं। अमेरिकी डेमोक्रेटिक
पार्टी के वरिष्ठ सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने हाल में अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक
सोसायटी ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में कहा कि अमेरिकी सरकार को इस मसले के
समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का समर्थन में खुलकर समर्थन करना चाहिए।
सैंडर्स की अमेरिकी राजनीति में कोई खास हैसियत नहीं है और शायद वे मुसलमानों के
बीच अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए ऐसा बोले, पर उनकी दो बातें अमेरिकी राजनीति
को अपील करती हैं।
इनमें से एक है
कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता या हस्तक्षेप का सुझाव और दूसरी कश्मीर समस्या का
समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करने की। पाकिस्तानी नेता भी बार-बार
कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करना चाहिए।
यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम यह बात क्यों
सुन रहे हैं? इन प्रस्तावों से समाधान संभव था, तो सन 1949 में ही समस्या
का समाधान क्यों नहीं हो गया?
सन 1948 से 1971
तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए
हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए
थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के
संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति
बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे
महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी। वह भी
पाकिस्तान के पीछे हट जाने की वजह से नहीं हो पाया। पाकिस्तान बुनियादी तौर पर
जनमत संग्रह के पक्ष में कभी था भी नहीं।
पिछले सत्तर वर्ष
में कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ने न्याय और कानून के नज़रिए से देखा ही
नहीं। शीतयुद्ध और राजनीतिक के गणित के कारण ब्रिटेन और अमेरिका ने इसे शुद्ध
राजनीति का विषय बनाया। विचार तो इस बात पर होना चाहिए कि कश्मीर का विलय
नियमानुसार हुआ या नहीं। देखना यह भी चाहिए था कि अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर
पाकिस्तानी सेना के समर्थन से कबायलियों ने हमला बोला था, क्या वह सही था? सुरक्षा परिषद इस मामले में पूरी
तरह नाकामयाब रही है और सन 1965 के बाद से उसने कोशिश भी बंद कर दी है। पिछले
महीने चीन इस मामले को लेकर सुरक्षा परिषद में गया तो था, क्या हुआ?
बीजेपी सरकार ने
अनुच्छेद 370 को लेकर जोखिम उठाया है। इस फैसले को आप राजनीतिक और राष्ट्रीय दोनों
में से किस नजरिए से देखना चाहते हैं, यह आपकी इच्छा है। संसद में बहस के दौरान
कांग्रेस पार्टी ने अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी। इस समस्या पर बुनियादी
दृष्टिकोण तो कांग्रेस का ही है। उसके नेता ने उसे समझे बगैर अंट-शंट बोलना शुरू
कर दिया। यह पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं, तो क्या है?
कश्मीर पर सरकार
के फैसले के पौने दो महीने हो चुके हैं। अगले महीने जम्मू कश्मीर केंद्र शासित
क्षेत्र बन जाएगा। सरकारी संकेत है कि जो राजनीतिक नेता हिरासत में हैं, वे 18
महीने तक भी भीतर रह सकते हैं। यानी कि उनकी रिहाई में समय लगेगा। जिन इलाकों में
शांति की संभावना ज्यादा है, वहाँ पाबंदियाँ कम होंगी। यों भी राज्य में पिछले तीन
दशक से हालात सामान्य नहीं हैं, तो आज सामान्य होने की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए।
फिलहाल जैसा है, वैसा ही चलेगा। अब देखना यह है कि पाकिस्तान किस हद तक जाएगा और
इमरान खान 27 सितंबर के भाषण के बाद करेंगे।
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