आज हम विश्व
साक्षरता दिवस मना रहे हैं. दुनियाभर में 52वां साक्षरता दिवस मनाया जा रहा है. हर
साल इस दिन की एक थीम होती है. इस साल स्थानीय भाषाओं के संरक्षण के लिए थीम है ‘साक्षरता और बहुभाषावाद.’ दिव्यांग बच्चों की स्पेशल
एजुकेशन से जुड़े युनेस्को के ‘सलमांका वक्तव्य’ के 25 वर्ष भी इस साल
हो रहे हैं. यानी समावेशी शिक्षा, जिसमें समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जा
सके. शिक्षा, जो उम्मीदें जगाए है और एक नई दुनिया बनाने का रास्ता दिखाए. क्या
हमारी शिक्षा यह काम कर रही है?
भारत में
साक्षरता के आंकड़े परेशान करने वाले हैं. सन 2011 की जनगणना के अनुसार सात या उससे
ज्यादा वर्ष के व्यक्ति जो लिख और पढ़ सकते हैं, साक्षर माने जाते हैं. जो व्यक्ति
केवल पढ़ सकता है, पर लिख नहीं सकता, वह भी साक्षर नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार 2011
में देश की साक्षरता का प्रतिशत 74.04 था. इसमें भी साक्षर पुरुषों का औसत 82.14
और स्त्रियों का औसत 65.46 था.
सन 2011 में 93.91
प्रतिशत के साथ साक्षरता में केरल देश का सबसे अग्रणी प्रदेश था और 63.82 प्रतिशत
के साथ बिहार सबसे पीछे. पिछले आठ वर्षों में काफी बदलाव आया है. यूनेस्को के
मानकों के आधार पर तो केरल 18 अप्रैल, 1991 को ही पूर्ण साक्षर राज्य घोषित हो चुका
है. यूनेस्को के नियम के मुताबिक अगर किसी देश या राज्य की 90 फीसदी जनसंख्या
साक्षर है तो उसे पूर्ण साक्षर मान लिया जाता है.
सन 2011 की
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऊंची साक्षरता दर और स्कूल ड्रॉपआउट रेट बेहद कम होने
के बावजूद केरल में करीब 18 लाख लोग निरक्षर थे. केरल सरकार ने 100 फीसदी साक्षरता
हासिल करने के इरादे से 'अक्षरलक्षम' कार्यक्रम की शुरुआत की और उम्मीद है कि 2021
की जनगणना इसे साबित भी कर देगी. पर यह कहानी सभी राज्यों की नहीं है. जरूरत इस
भावना के प्रसार की है कि समृद्धि और कल्याण का रास्ता शिक्षा, साक्षरता और ज्ञान
की रोशनी में ही पार किया जा सकता है.
यूनेस्को की
ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष 2050 में प्राइमरी शिक्षा, 2060 में माध्यमिक शिक्षा और 2085 में उच्च माध्यमिक
शिक्षा का वैश्विक लक्ष्य हासिल करने में कामयाब होगा. आजादी के बाद देश में
साक्षरता का ग्राफ 57 फीसदी बढ़ा है बावजूद इसके हम वैश्विक स्तर पर काफी पिछड़े हैं.
केरल की जो साक्षरता दर 2011 में थी, उससे बेहतर साक्षरता दर पूरे चीन में उसके एक
दशक पहले ही हासिल की जा चुकी थी. केरल के अलावा लक्षद्वीप (92.28%) , मिजोरम (91.58%) , त्रिपुरा (87.75 %) और गोवा (87.40%) भी देश के
प्रगतिशील राज्यों में शामिल हैं, पर उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, झारखंड,
राजस्थान और बिहार जैसे सघन आबादी वाले राज्य पीछे हैं.
व्यक्ति, समाज और समुदाय की दृष्टि से साक्षरता के महत्व को रेखांकित करने के लिए विश्व
भर में साक्षरता दिवस मनाना शुरु किया गया था. संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ‘यूनेस्को’ ने 7 नवंबर 1965 को यह फैसला किया कि
हर साल 8 सितंबर को यह दिवस मनाया
जाएगा. सन 1966 से यह मनाना शुरु हुआ. शिक्षा पर वैश्विक निगरानी रिपोर्ट के
अनुसार दुनिया में हर पाँच में से एक पुरुष और दो-तिहाई महिलाएँ अनपढ़ है. उनमें
से कुछ के पास कम साक्षरता कौशल है.
केवल वयस्क शिक्षा की बात ही नहीं है, बड़ी
संख्या में बच्चों की पहुँच आज भी स्कूलों से बाहर है. कुछ बच्चे स्कूलों में अनियमित
रहते हैं.
गरीबी को मिटाना, बाल मृत्यु दर को कम करना, जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना, लैंगिक समानता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरक्षरता को समाप्त करना बहुत
जरूरी है. साक्षरता में वह ताकत है जो व्यक्ति, परिवार और पूरे समाज की प्रतिष्ठा
को बढ़ा सकती है. इसीलिए संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी लक्ष्यों और अब संधारणीय
विकास के 2030 के एजेंडा में साक्षरता की महत्वपूर्ण भूमिका है. यह साक्षरता केवल
पढ़ने और लिखने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य गुणात्मक शिक्षा तक जाती
है. वह शिक्षा जो व्यक्ति का पूरा विकास कर सके.
इतने सुंदर घोषित लक्ष्यों को देखने और समझने के बाद हमें अपनी शिक्षा की तरफ
नजर डालनी चाहिए. धारणा है कि भारत में शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा है. सीबीएसई और
आईसीएसई परीक्षाओं में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह
भ्रम सन 2009 के पीसा टेस्ट में बुरी तरह टूटा था. आज उसकी याद दिलाने की जरूरत भी
है. विकसित देशों की संस्था ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट
असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक परीक्षण करती है. हर तीन साल में होने वाले दो घंटे
की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख बच्चे शामिल होते हैं.
सन 2009 में पहली बार भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस परीक्षा में
पहली बार शामिल हुए. चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत के बच्चे 72 वें
स्थान पर रहे, जबकि कुल 74 देश ही उसमें शामिल
हुए थे. उस वक्त भारत सरकार ने पीसा टेस्ट की आलोचना की थी और कहा था कि वह टेस्ट
भारत की सांस्कृतिक परिस्थितियों से मेल नहीं खाता है.
अब देश का मानव संसाधन विभाग मानता है कि यदि चीन और वियतनाम जैसे 80 देशों के
बच्चे इस परीक्षा में शामिल हो सकते हैं, तो हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिए. इस साल
जनवरी में खबर थी कि भारत के बच्चे सन 2021 में फिर से पीसा टेस्ट में बैठेंगे.
भारत सरकार और ओईसीडी के बीच हुए समझौते के तहत इस टेस्ट में केंद्रीय विद्यालयों,
नवोदय विद्यालयों और चंडीगढ़ के सरकारी स्कूलों के बच्चे बैठेंगे.
करीब एक दशक से ज्यादा समय बाद यह देखने का मौका मिलेगा कि हमारी शिक्षा
प्रणाली में कोई बदलाव आया भी है या नहीं. पर हमें दूसरी बातों की तरफ भी ध्यान
देना होगा. हमारी शिक्षा में बच्चे बहुत ज्यादा रटने और ऐसे विषयों के चुनने पर
ध्यान देते हैं, जिनमें रोजगार के बेहतर अवसर हों. बच्चों की दिलचस्पी किन विषयों
में है, इसपर उनके माता-पिता कम ध्यान देते हैं. शिक्षा को हम बच्चे के व्यक्तित्व
के विकास और उसकी रचनात्मक प्रतिभा और मौलिकता बढ़ाने का माध्यम नहीं मानते.
हाल के वर्षों में पीसा टेस्ट में दक्षिण पूर्व एशिया और सुदूर पूर्व के देशों
के बच्चों की भागीदारी बढ़ी है. देखा यह भी गया है कि पहले सात स्थानों पर सिंगापुर,
हांगकांग, मकाऊ, ताइवान, जापान, चीन और दक्षिण कोरिया के बच्चे आ रहे हें. इसकी एक
वजह यह है कि इन देशों में संरक्षक मानते हैं कि शिक्षा ही समाज और व्यक्ति के
विकास की राह दिखाती है. यह एक प्रकार की सामाजिक चेतना है. क्या हम अपनी शिक्षा
की उपादेयता के प्रति जागरूक हैं?
सन 2005 में शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ ने पता लगाने की कोशिश की
कि बच्चे वास्तव में सीख क्या रहे हैं. ‘प्रथम’ की स्थापना सन 1994 में अमेरिका
में पढ़े केमिकल इंजीनियर माधव चह्वाण ने इस दृढ़ विश्वास के साथ की थी कि सभी
बच्चों को पढ़ना और सीखना चाहिए और वे सीख सकते हैं. संस्था के कार्यक्रम भारत के
तकरीबन 3.45 करोड़ बच्चों तक पहुँचते हैं और अब दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जा
रहे हैं. उसकी एनुअल स्टेट ऑव एजुकेशन (एएसईआर-असर) रिपोर्ट से पता लगता है कि देश
में शिक्षा की हालत क्या है.
सन 2005 में जारी पहली रिपोर्ट ने बताया कि सात से चौदह साल की उम्र के तकरीबन
35 फीसदी बच्चे एक सरल पैराग्राफ(दर्जा एक के स्तर का) पढ़ नहीं पाए. करीब 60
फीसदी बच्चे एक आसान कहानी(कक्षा दो के स्तर की) पढ़ने में असमर्थ रहे. सिर्फ 30
फीसदी बच्चे दूसरे दर्जे का गणित कर पाए(बेसिक भाग). क्या स्कूल वास्तव में उनके
सीखे हुए को अनसीखा बना रहे हैं? इस साल जनवरी में जारी प्रथम की नवीनतम असर
रिपोर्ट का भी यही कहना था कि सुधार बहुत मामूली है, खामियाँ बहुत ज्यादा. सामान्य व्यक्ति को भरोसा होना चाहिए कि शिक्षा से उसका जीवन बदलेगा. तभी हम
शिक्षा और साक्षरता को नारेबाजी के बाहर निकाल पाएंगे.
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