पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद समान
नागरिक संहिता का सवाल एकबार फिर से खबरों में है. अदालत ने कहा है कि देश में
समान नागरिक संहिता बनाने की कोशिश नहीं की गई. संविधान निर्माताओं ने राज्य के
नीति निदेशक तत्व में इस उम्मीद से अनुच्छेद 44 जोड़ा था कि सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक
संहिता सुनिश्चित करेगी, लेकिन हुआ कुछ
नहीं. देश में सभी तरह के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने की माँग लंबे अरसे
से चल रही है, पर इस दिशा में प्रगति नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह देश की धार्मिक
और सांस्कृतिक विविधता है, जिसे छेड़ने का साहस सरकारों में नहीं है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने अपने पिछले
दौर में तीन तलाक के साथ-साथ इस विषय को भी उठाया था. इस सिलसिले में 21 वें विधि
आयोग को अध्ययन करके अपनी संस्तुति देने के लिए कहा गया था. आयोग ने करीब दो साल
के अध्ययन के बाद अगस्त 2018 में बजाय विस्तृत रिपोर्ट देने के एक परामर्श पत्र दिया,
जिसमें कहा गया कि इस स्तर पर देश में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही
कोई इसकी मांग कर रहा है. आयोग की नजर में इसकी कोई माँग नहीं कर रहा है, तब अदालत
माँग क्यों कर रही है?
आयोग ने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता देश में व्याप्त बहुलता
का खंडन नहीं कर सकती है. उसके परामर्श पत्र में कहा गया, ‘समान नागरिक
संहिता का मुद्दा व्यापक है और उसके संभावित नतीजे अभी भारत में परखे नहीं गए हैं.’
आयोग के अध्यक्ष जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान ने पहले कहा था कि समान संहिता
की अनुशंसा करने के बजाए, आयोग ‘चरणबद्ध’ बदलाव की अनुशंसा कर सकता है. अब
यह 22वें विधि आयोग पर निर्भर करेगा कि वह इस मुद्दे पर व्यापक रिपोर्ट दे. जुलाई
में केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को सूचना दी थी कि 22वें विधि आयोग का गठन
अभी नहीं हुआ है. जब होगा उसके सामने इस मसले को रखा जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट ने अब कहा है कि गोवा एक ‘बेहतरीन उदाहरण’ है, जहाँ समान नागरिक संहिता, धर्म की परवाह
किए बिना सब पर लागू है. यह मामला गोवा के एक परिवार के सम्पत्ति विवाद से जुड़ा
था. गोवा में 2016 तक पुर्तगाली सिविल लॉ लागू था जिसके मुताबिक गोवा या गोवा से बाहर
सम्पत्ति रखने वाले गोवा के मूल निवासियों की संपत्ति बंटवारा इसी कानून से होता
था. सन 2016 में पुर्तगाली सिविल कोड के कई प्रावधानों को गोवा उत्तराधिकार कानून
से बदल दिया गया था. इसी के प्रावधानों को चुनौती दी गई थी.
गहराई से विचार करते हैं, तो पाते हैं कि हम मसलों को फौरी
तौर पर टालते हैं. इसकी शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक
अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया. यह सवाल आज भी कायम
है तो इसकी वजह है हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड. राजनीतिक दलों ने
प्रगतिशीलता के नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया. बेशक सामाजिक बदलाव के लिए भी
समय दिया जाना चाहिए, पर क्या समाज में
विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?
बीजेपी भी इन सवालों को केवल चुनाव के वक्त भावनाओं के दोहन
के लिए ही उठाती है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने कश्मीर में
अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद कहा था कि अगले तीन-चार साल में मोदी
सरकार वह सारे काम पूरा कर लेगी जिनका उन्होंने देश की जनता से वादा किया है.
सरकार समान नागरिक संहिता भी ले आएगी. पर क्या यह सवाल केवल बीजेपी से वास्ता रखता
है? क्या कभी ऐसा समय आएगा जब सभी राजनीतिक दल इस सवाल पर बहस
को जरूरी मानेंगे? क्यों नहीं वह बहस अभी शुरू की जाए?
सब पर समान रूप से लागू होने वाला कानून अच्छा विचार है, पर
वह तभी संभव है, जब समाज अपने भीतर सुधार के लिए तैयार हो. वह दिन कब आएगा? बेशक सामाजिक विविधता को भी ध्यान में रखना होगा, पर इन मसलों
की तफसील में जाए बगैर कोई बात कैसे कही जा सकती है? बीच के रास्ते भी तो निकलते हैं, आमराय भी बनती हैं.
बुनियादी बात यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र इतना प्रौढ़ है कि संवेदनशील मुद्दों
पर विचार करे? क्या यह माना जाए
कि संविधान निर्माताओं ने जिस समझदारी के साथ देश पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं
की उसके मद्देनज़र इस मामले को जस का तस रहने दिया जाए? और कब तक?
सवाल है कि समान नागरिक संहिता से हमारा आशय क्या है? हम किस प्रकार का कानून
चाहते हैं? क्या यह कानून
पूरे देश में लागू हो सकेगा? अनुच्छेद 371 कुछ इलाकों पर समान कानून लागू
करने से रोकता है. व्यक्तिगत कानून धार्मिक मान्यताओं से जुड़े हैं और धार्मिक
मान्यताएं संवेदनशील मसला है. क्या हम धार्मिक समूहों की स्वीकृति प्राप्त कर
सकेंगे? तीन तलाक मामले में ऐसा हुआ नहीं. ऐसे कानून को बनाने और
लागू करने के पहले हमें धार्मिक पहचान से जुड़ी मान्यताओं और सामाजिक जीवन में
परंपराओं को आधुनिक बनने का इंतजार करना होगा. खासतौर से स्त्रियों के अधिकारों के
मामले में.
समान नागरिक संहिता का
मामला जब उठता है तब कई प्रकार के सांप्रदायिक सवाल उठते हैं. सन 1985 में
शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस
पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद
राष्ट्रीय राजनीति में सांप्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज नजर आती है.
दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता की बहस राजनीति की है, जबकि उसे सामाजिक सुधार की
बहस बनना चाहिए. इसमें आमराय बनानी चाहिए. क्या ऐसा संभव है?
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