हर साल हम 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाते हैं। आज भी मनाएंगे, पर इस साल ‘स्टॉकहोम-घोषणा’ का 50 वाँ वर्ष होने के कारण यह दिन खास हो गया है। 5 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहली बार विश्व पर्यावरण-सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया। उसी सम्मेलन के बरक्स संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में ही घोषणा की कि हर साल 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाएंगे। स्टॉकहोम-घोषणापत्र से पहले चार साल की तैयारी की गई थी। दुनिया भर के सैकड़ों वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने मानव-पर्यावरण पर लगभग बीस हजार पेजों का योगदान दिया था, जिसके आधार पर सम्मेलन में 800 पेज का एक दस्तावेज तैयार किया गया था। एक मायने में यह संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सबसे व्यापक प्रयोग था।
स्टॉकहोम+50
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े आज के ज्यादातर
कार्यक्रम जैसे संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज
(यूएनएफसीसीसी), कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन
(यूएनसीसीडी) और कन्वेंशन ऑन बायलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) और संयुक्त राष्ट्र के
पर्यावरण-व्यवस्था से जुड़े प्रयास स्टॉकहोम घोषणा की ही उत्पत्ति हैं। पिछले 50
वर्षों पर पुनर्विचार के लिए 2 और 3 जून को स्टॉकहोम+50 का आयोजन स्टॉकहोम,
में फिर हुआ। इन दो दिनों में दुनिया के नेताओं ने इस बात पर चर्चा की
कि बीते पचास साल कैसे थे, बल्कि इससे ज्यादा इस बात पर चिंतन किया कि अगले पचास
साल में धरती को किस तरह बचाया जाएगा। इसे शीर्षक दिया गया-‘स्टॉकहोम प्लस 50,
सभी की समृद्धि के लिए एक स्वस्थ ग्रह-हमारी जिम्मेदारी, हमारा अवसर’।
तबाही की ओर
पिछले साल जब स्टॉकहोम प्लस 50 की तैयारियां चल रही थीं, तो संरा
पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी कि महामारी के कारण उत्सर्जन में
अस्थायी गिरावट के बावजूद दुनिया 2100 तक
पूर्व-औद्योगिक स्तरों से कम से कम तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होने की राह
पर है। यह पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री सेल्सियस की चेतावनी से दोगुना
है। उस स्तर को बनाए रखने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसदी कम करना होगा।’ अप्रैल 2017
में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक संस्था-क्लाइमेट
सेंट्रल के वैज्ञानिकों ने 1880 के बाद से वैश्विक-तापमान की मासिक-वृद्धि को दर्ज
करते हुए एक पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया: ‘628
महीनों में एक भी महीना ठंडा नहीं रहा है।’ जो दुनिया पिछले बारह हजार साल की
मानव-सभ्यता से अप्रभावित चली आ रही थी, और जिसने मनुष्यों की अमीर बनने में मदद
की, वह अचानक तबाही की ओर बढ़ चली है।
वायु-प्रदूषण
पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु गुणवत्ता के नए निर्देश जारी किए, जिनमें कहा गया कि जलवायु परिवर्तन के साथ वायु प्रदूषण मानव-स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। डब्लूएचओ ने 2005 के बाद पहली बार अपने ‘एयर क्वालिटी गाइडलाइंस’ को बदला है। नए वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (एक्यूजी) के अनुसार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि प्रदूषित वायु की जो समझ पहले थी, उससे भी कम प्रदूषित वायु से मानव-स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों के सबूत मिले हैं। संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोगों की मृत्यु होती है। यह संख्या कोविड-19 से हुई मौतों से ज्यादा है।
नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
दुनियाभर के देशों पर नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के
लक्ष्य तय करने का दबाव है। भारत ने नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए अपनी समय-सीमा
दुनिया को बता दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल नवंबर में स्कॉटलैंड
के ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26)
में कहा कि हम 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। भारत, 2030 तक ऊर्जा की अपनी 50 प्रतिशत जरूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा। चीन,
दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। वह 2060 तक कार्बन
न्यूट्रल होने की घोषणा कर चुका है। दूसरे स्थान पर कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका
ने नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए 2050 तक का लक्ष्य रखा है।
पर्यावरण-चेतना
1972 में हमारे देश
में क्या, बड़ी संख्या में दुनिया के लोगों ने पर्यावरण और प्रदूषण जैसे शब्द पहली
बार सुने थे। अलबत्ता भारत सरकार ने इस समस्या को जो महत्व दिया था, उसे भी आज याद
करने की जरूरत है। स्टॉकहोम-सम्मेलन में मेजबान देश स्वीडन के अलावा भारत की
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस सम्मेलन में भाग लेने वाली एकमात्र शासनाध्यक्ष थीं।
उस सम्मेलन के बाद पिछले पचास वर्षों में पर्यावरण उन चुनींदा विषयों में सबसे ऊपर
आ गया है, जिनसे समूची दुनिया परेशान है। स्टॉकहोम-सम्मेलन
ने वैश्विक पहल को रेखांकित किया था। पर्यावरण-प्रबंधन को लेकर पहली बार इतने बड़े
स्तर पर दुनिया के देश एक मंच पर आए थे।
वैश्विक-राजनीति
हालांकि स्वीडन ने 1968 में संरा आर्थिक एवं
सामाजिक परिषद (इकोसॉक) में पर्यावरण के बारे में सम्मेलन बुलाने का आग्रह किया
था, पर वह शीतयुद्ध का समय था। दुनिया को पर्यावरण कोई मसला लगता ही नहीं था।
सोवियत संघ और वॉरसा सम्मेलन के देशों ने सम्मेलन का बहिष्कार किया। उनकी माँग थी
कि सम्मेलन में पूर्वी जर्मनी को भी बुलाया जाए। तब तक पश्चिमी और पूर्वी दोनों
जर्मनी संरा के सदस्य नहीं थे। हालांकि अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने पहले सम्मेलन
का समर्थन किया था, लेकिन जर्मनियों की भागीदारी को लेकर असहमति पैदा हो गई। यों ब्रिटेन,
अमेरिका, इटली, बेल्जियम, नीदरलैंड्स और फ्रांस जैसे देश इस विचार के ही खिलाफ थे।
उन्हें लगता था कि उनकी समृद्धि और प्रगति से दुनिया चिढ़ती है। इन देशों ने इस
विचार के विरोध में ‘ब्रसेल्स ग्रुप’ बना लिया।
प्राथमिकताएं
सम्मेलन के दौरान
विकसित और विकासशील देशों के मतभेद भी उभरे। चीनी प्रतिनिधिमंडल ने हिंदचीन और शेष
विश्व में अमेरिकी नीतियों के खिलाफ लम्बा चौड़ा वक्तव्य जारी किया। विकासशील देशों ने इसे समृद्ध देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों को
हड़पने और उनके विकास में बाधा डालने के लिए एक और चाल के रूप में लेना शुरू कर
दिया। उनका मानना था कि इसमें धनी और औद्योगिक देशों का प्रभुत्व होगा। पर्यावरण का मुद्दा कहीं और घूम गया। दुनिया
की प्राथमिकता में पर्यावरण कहीं नहीं था। विकासशील देशों ने इस कार्यक्रम का
समर्थन किया भी तो इसलिए क्योंकि संरा पर्यावरण कार्यक्रम का मुख्यालय केन्या के
नैरोबी में स्थापित होने वाला था। किसी विकासशील देश में वह पहली संरा एजेंसी थी। यह
इस बात का एक उदाहरण है कि दुनिया की प्राथमिकताएं किस तरह तय होती हैं।
वैश्विक-समस्याओं के समाधान नहीं खोजे जा सके हैं, तो उसके भी कारण हैं।
सामूहिक समाधान
पर्यावरण पर खतरा जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल
वॉर्मिंग, जमीन के नीचे पानी के स्तर में कमी, समुद्र तल का बढ़ना जैसी समस्याओं
के रूप में सामने आ रहा है। हमारे पास दो विकल्प हैं। एक, इन समस्याओं की चिंता
किए बगैर उसी राह पर चलते रहें या मिल-जुलकर समस्याओं के समाधान खोजें। स्टॉकहोम
सम्मेलन दूसरा रास्ता है। इसने दुनिया का ध्यान पर्यावरण की ओर खींचा। देर से ही
सही कम से कम पर्यावरण-मॉनिटरिंग शुरू हुई। कुछ दिशा-निर्देश तैयार होने लगे। उन्हें
लागू करना हमेशा सम्भव नहीं हुआ, पर संरा के दिशा-निर्देश में पर्यावरण से जुड़े
सम्मेलनों के कारण धीरे-धीरे दुनिया के सामने मुद्दे स्पष्ट होने लगे। अंततः 1992
में रियो डि जेनेरो (अर्थ समिट), 2002 के जोहानेसबर्ग सम्मेलन, 2012 के रियो+20
सम्मेलनों ने स्टॉकहोम से शुरू हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। यह प्रक्रिया
क्योटो-प्रोटोकॉल, पेरिस समझौते और इस साल स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 26वें संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26) तक जारी रही है।
केवल एक धरती
स्टॉकहोम-सम्मेलन की थीम थी, ‘केवल एक पृथ्वी (ओनली वन अर्थ)’। इस बात को
अच्छी तरह समझने की जरूरत है। मनुष्यों का अतीत और भविष्य साझा है। साझा समस्याओं
के समाधान वैश्विक-स्तर पर ही सम्भव हैं। राष्ट्रीय सीमाओं में हुई भले ही
भौतिक-प्रगति का लाभ कुछ समुदायों ने उठाया, पर प्रकृति में जहर भरने की
जिम्मेदारी का बोझ भी उन्हें ही उठाना होगा। स्टॉकहोम सम्मेलन
में इंदिरा गांधी ने कहा था कि गरीबी ही, सबसे बड़ा
प्रदूषक है। इसका एक मतलब यह भी है कि विकासशील देशों को अपनी गरीबी दूर करने के
लिए आर्थिक-प्रगति करनी होगी। इस आर्थिक-प्रगति के मूल में प्रदूषण का खतरा भी
छिपा है।
किसकी जिम्मेदारी
इस वक्त दुनिया के सामने बहस इस बात की है कि
बढ़ते जहर को रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? अमीर
देशों को इस मामले में अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करना होगा। दूसरे ओज़ोन परत में
छेद से दुनिया को यह भी समझ में आ गया कोई देश अकेले इस समस्या को हल नहीं कर
सकता। मानवजाति का विकास वैश्विक-सहयोग से ही सम्भव है। लड़ाई चाहे वह गरीबी के
खिलाफ हो या उत्सर्जन के खिलाफ। फिर भी अमीर और गरीब देशों की खेमाबंदी आज भी जारी
है। अमीर देश संधारणीयता यानी ‘सस्टेनेबिलिटी’ का उपदेश देते हैं, जबकि गरीब देशों
कहना है कि हमें भी विकास करना है। पहले अमीर देशों को ग्रीनहाउस गैसों का
उत्सर्जन तेजी से कम करके, विकासशील देशों को बिना प्रदूषण फैलाए
तरक्की करने का मौका देने की जरूरत है। इसके लिए गरीब देशों के अमीरों से आर्थिक
और तकनीकी मदद की जरूरत है। मसले आज भी राजनीतिक ही हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
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