पिछले कुछ महीनों में भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के बीच में अमेरिका की एक अटपटी सी भूमिका सामने आ रही है. इसमें सबसे ज्यादा ध्यान खींच रहा है, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का बार-बार दावा करना कि मैंने लड़ाई रुकवा दी.
ट्रंप ने यहाँ तक कहा था कि उन्होंने भारत और
पाकिस्तान को व्यापार बंद करने की धमकी दी थी, जिसके बाद
दोनों देश संघर्ष-विराम के लिए राज़ी हुए. इतना ही काफी नहीं था, हाल में उन्होंने एक से ज्यादा बार कहा है कि इस
लड़ाई में पाँच जेट विमान गिराए गए.
शुरू में
साफ-साफ कहा कि भारत के जेट गिराए गए, पर नवीनतम वक्तव्य में यह स्पष्ट नहीं किया है
कि ये किसके विमान थे, पर इशारा साफ है. सवाल यह नहीं है कि यह सच है या नहीं,
सवाल यह है कि ट्रंप बार-बार ऐसा क्यों बोल रहे हैं.
नीतिगत
बदलाव
पर्यवेक्षकों
को अब कुछ और बातें नज़र आने लगी हैं. एक तो यह कि एक दशक पहले अमेरिका ने भारत और
पाकिस्तान को ‘डिहाइफनेट’ करने की जो नीति बनाई थी, वह खत्म हो रही है. दक्षिण एशिया को लेकर
अमेरिकी नीति में बदलाव हो रहा है.
इस बदलाव का मतलब यह नहीं है कि अमेरिका के भारत से रिश्तों में खिंचाव आएगा. शायद वह पाकिस्तान को अपने हाथ से बाहर नहीं जाने देना चाहता, जो हाल के वर्षों में पूरी तरह चीन की गोदी में जाकर बैठ गया है.
सवाल यह भी है
कि पाकिस्तान को काबू में करने के प्रयास में क्या वह वहाँ के जेहादी नेटवर्क की
पकड़ को कम कर पाएगा? भारत-पाकिस्तान के हालिया टकराव के पीछे पाकिस्तान के इसी जेहादी नेटवर्क
की भूमिका है, जिसके तार वहाँ की सेना से जुड़े हुए हैं.
हालाँकि अमेरिका ने हाल में पाक-परस्त उग्रवादी
संगठन टीआरएफ को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है, पर भारतीय पर्यवेक्षक मानते हैं
कि अमेरिकी मीडिया और राजनीति में ‘आतंकवाद’ को भारतीय नज़रिए से नहीं देखा जाता.
वैश्विक-राजनीति
इस तनातनी के पीछे वैश्विक-राजनीति भी है,
जिसमें भारत भी शामिल है. हाल में ट्रंप ने ब्रिक्स देशों पर टैरिफ़ लगाने की धमकी
दी है. ट्रंप ने पिछले शुक्रवार को ह्वाइट हाउस में कहा कि ब्रिक्स देश, अमेरिकी
डॉलर के प्रभुत्व को खत्म करने की कशिश कर रहे हैं. उनके लिए यह चिंता की बात है,
क्योंकि जनवरी में जब से उन्होंने राष्ट्रपति पद संभाला है डॉलर की कीमत 10 फीसदी
गिरी है.
हालांकि उन्होंने किसी देश का नाम नहीं लिया, पर
ब्रिक्स देशों पर अलग से टैरिफ लगाने की धमकी ज़रूर दी है. यह धमकी उस वक़्त आई है
जब भारत, रूस और चीन (आरआईसी) के त्रिपक्षीय मंच को फिर से
सक्रिय करने की कवायद शुरू हुई है. इसमें रूस की भूमिका है.
ट्रंप की यात्रा
इस साल सितंबर में क्वॉड
का शिखर सम्मेलन भारत में होने वाला है, जिसमें भाग लेने के लिए ट्रंप भारत आएँगे.
हाल में पाकिस्तान के कुछ समाचार चैनलों ने इस आशय की रिपोर्टें दी थीं कि वे
पाकिस्तान भी आएँगे. चैनलों ने यह भी कहा था कि वे पहले इस्लामाबाद पहुँचेंगे और
फिर भारत जाएँगे.
शुक्रवार को ह्वाइट
हाउस ने इस संभावना का खंडन करके स्पष्ट कर दिया कि फिलहाल पाकिस्तान यात्रा का
कोई कार्यक्रम नहीं है. पाकिस्तान के विदेश कार्यालय के प्रवक्ता शफ़ाक़त अली ख़ान
ने भी अखबार ‘डॉन’ को बताया कि हमें इस मामले की कोई जानकारी नहीं है.
पाकिस्तानी-व्यवस्था
हाल में
पाकिस्तान के फील्ड मार्शल आसिम मुनीर जब डॉनल्ड ट्रंप के साथ लंच में शामिल हुए,
तब सवाल यह भी पूछा गया कि लोकतंत्र के पैरोकार अमेरिका को पाकिस्तान से बात करने
के लिए सेनाध्यक्ष ही मिला,
प्रधानमंत्री क्यों नहीं?
हाल में
पाकिस्तान के वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल ज़हीर अहमद बाबर
सिद्धू भी अमेरिका का दौरा
करके आए हैं. खबरें हैं कि वहाँ उन्होंने अमेरिका से भारत को
एफ-35ए स्टैल्थ फाइटर नहीं बेचने की गुजारिश की है. एफ-35 में भारत की दिलचस्पी है भी या नहीं, एक
अलग विषय है, पर पाकिस्तान की फौज-केंद्रित व्यवस्था के लिए यह रोचक खबर है.
पाकिस्तानी
राज-व्यवस्था में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण है. पिछले महीने पाकिस्तान के
रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा कि देश में ‘हाइब्रिड मॉडल’ के तहत शासन किया जा
रहा है, जिसमें सेना की
बड़ी भूमिका है. ऐसा
उन्होंने एक हफ्ते में दो बार कहा.
उन्होंने माना
कि यह आदर्श लोकतांत्रिक सरकार नहीं है, पर वह काम कर रही है. यह प्रणाली तब तक
व्यावहारिक है, जब तक पाकिस्तान आर्थिक और शासन संबंधी समस्याओं से बाहर नहीं निकल
आता.
उन्होंने कहा
कि यदि इस तरह का ‘हाइब्रिड मॉडल’ 90 के दशक में ही अपना लिया जाता (जब नवाज शरीफ
दो बार प्रधानमंत्री रहे थे), तो चीजें बहुत
बेहतर होतीं, क्योंकि सैन्य प्रतिष्ठान और राजनीतिक
सरकार के बीच टकराव लोकतंत्र की प्रगति को धीमा कर देता है.
व्यापार-वार्ता
पाकिस्तान पर
बात करने के पहले भारत-अमेरिका ख़लिश पर एकबार फिर से आएँ. इन दिनों भारत और
अमेरिका के बीच व्यापार-वार्ता चल रही है, जिसे लेकर दोनों तरफ से कुछ जटिल सवाल
उठे हैं. संभव है कि ट्रंप ये बातें दबाव बनाने के लिए कर रहे हों.
दोनों देशों के
बीच सामरिक और जियो-पॉलिटिक्स के मसलों पर काफी सहमतियाँ हैं, पर व्यापारिक-मामलों
में गहरी असहमतियाँ हैं. जियो-पॉलिटिक्स में भी भारत पूरी तरह अमेरिका का पिछलग्गू
नहीं है. रूस के साथ भारत के रिश्ते, अमेरिका की आँख में खटकते हैं.
बदलती
विश्व-व्यवस्था में भारत ने अपने लिए स्वतंत्र रास्ता खोजा है, जो अनिवार्य रूप से
अमेरिकी-हितों से जुड़ा नहीं है. ब्रिक्स को लेकर हाल में ट्रंप जिस प्रकार की
बातें कर रहे हैं, उनसे भी यह बात साबित होती है.
पाँच
विमानों का मामला
भारत सरकार ने
हालाँकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक आधिकारिक रूप से इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया
व्यक्त नहीं की थी, पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शनिवार को कहा कि दुनिया में
ऐसी कोई ताकत नहीं है, जो भारत को यह निर्देश दे सके कि उसे अपने मामलों को कैसे
संभालना है.
उपराष्ट्रपति
ने इस वक्तव्य में किसी देश या घटना का ज़िक्र नहीं किया है, पर अनुमान लगाया जा
सकता है कि यह ट्रंप की बयानबाज़ी का जवाब है. उन्होंने ट्रंप का नाम तो नहीं लिया, लेकिन उनका यह बयान युद्धविराम के दावे को
दोहराते हुए और पाँच विमानों को मार गिराए जाने से जुड़े ट्रंप के बयान के एक दिन
बाद आया है.
भारतीय बयान
महत्वपूर्ण यह है कि सबसे पहले पाकिस्तान ने भारत
के 'पाँच लड़ाकू विमानों मार गिराने' का
दावा किया था. हालांकि, भारत ने इन दावों को ख़ारिज किया और
कहा कि पाकिस्तान ने हमारे किसी भी विमान को नहीं गिराया. अलबत्ता इस बात की
संभावना से इंकार नहीं किया कि तकनीकी कारणों से किसी विमान के क्षतिग्रस्त होने
की संभावना है.
मई में भारत के चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ जनरल
अनिल चौहान ने पाकिस्तान के साथ हुए सैन्य संघर्ष के दौरान भारत के लड़ाकू विमान
गिराए जाने के सवालों पर जवाब दिया था. उन्होंने पाकिस्तान की ओर से विमानों को
नुक़सान पहुँचने के दावे को सिरे से ख़ारिज कर दिया था. उसके बाद देश के रक्षा
सचिव ने भी इस बात को दोहराया.
बात केवल विमानों की नहीं है, मध्यस्थता की भी
है. जून में पीएम मोदी जी-7 सम्मेलन में शामिल होने के लिए कनाडा गए थे और वहीं से
उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप से फ़ोन पर बात की थी. इस बातचीत का विवरण देते हुए भारत
के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने कहा था कि पीएम मोदी ने ट्रंप से स्पष्ट रूप से कहा
कि पाकिस्तान के साथ संघर्ष-विराम द्विपक्षीय था और किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप
से नहीं हुआ है.
पाकिस्तान फैक्टर
उस वक्तव्य के बाद भी ट्रंप कई मौक़ों पर अपनी
बात दोहरा चुके हैं. उनके इस सायास-प्रयास
के पीछे कुछ न कुछ ज़रूर है. इसके पीछे कहीं न कहीं ‘पाकिस्तान फैक्टर’ भी है. इस इलाके में पाकिस्तान कभी
अमेरिका की पुछल्ला हुआ करता था, पर वह अब चीन का भक्त भी है. तब भी था, पर अब
ज्यादा बड़ा भक्त है.
एक दौर में लगा
कि पाक-अमेरिका रिश्तों में दरार पड़ी है. खासतौर से 9/11 के आतंकी हमले और
अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद. दूसरी तरफ उसी दौरान भारत और अमेरिका के
रिश्तों में नाटकीय बदलाव आया.
2001 के भारतीय संसद पर हमले और 2008 के मुंबई
हमलों के बाद अमेरिका ने भारत के साथ आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाया, लेकिन पाकिस्तान पर उसका दबाव सीमित ही रहा.
अब वह भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के
खिलाफ एक प्रमुख साझेदार के रूप में देख रहा है, लेकिन
पाकिस्तान की खुलकर आलोचना करना आज भी नहीं चाहता. बहरहाल अब अमेरिका ने टीआरएफ पर
पाबंदी लगाकर यह संकेत जरूर दिया है कि पाकिस्तान यह मानकर न चले कि अमेरिका ने इस
तरफ से आँख बंद कर ली है.
रिश्तों में सुधार
पाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों में कई
उतार-चढ़ाव आए हैं. अपने दूसरे कार्यकाल के शुरुआती महीनों में, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संकेत दे दिया था कि उन देशों के साथ भी संबंध
बनाए रखे जाएँगे जिनके विश्वास या मूल्य उनसे अलग हैं. परिणामस्वरूप, अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संबंधों में सुधार की संभावनाएँ बनी हैं.
अपने दूसरे कार्यकाल में संसद के अपने पहले
संबोधन में, ट्रंप ने इस्लामिक स्टेट के एक वांछित आतंकवादी
की गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण में पाकिस्तान के सहयोग को स्वीकार किया. यह इस बात का
प्रारंभिक संकेत था कि ट्रंप प्रशासन पाकिस्तान से मिलने वाले सहयोग की सराहना
करने को तैयार है.
बावज़ूद इसके अभी ऐसा संकेत नहीं है कि वह
पाकिस्तान पर आतंकवादी समूहों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए दबाव डालेगा. अफ़ग़ानिस्तान
से अमेरिकी सेना की वापसी और अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच,
कुछ लोग मानते हैं कि पाकिस्तान अब अमेरिकी हितों के लिए बहुत प्रासंगिक
नहीं रहा.
चीन-पाकिस्तान
पिछले 30 वर्षों में, चीन
के आर्थिक, सैन्य और तकनीकी संबंध पाकिस्तान के साथ और भी
गहरे हुए हैं, खासकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी)
के कारण, जो चीन की बेल्ट एंड रोड पहल का एक हिस्सा है.
अमेरिका की रुचि इस बात में है कि पाकिस्तान संतुलित
बनाकर रखे. वह चीन का प्रतिनिधि न बने. पाकिस्तान की चीनी कर्ज पर बढ़ती निर्भरता
उसके कुल विदेशी ऋण के प्रतिशत के रूप में चरम पर पहुँच गई है, और पाकिस्तानी नीति-निर्माता चीनी पूँजी पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते
हैं. यदि पाकिस्तान अब अपने आर्थिक सुधारों की गति तेज़ कर पाएगा, तो वह अमेरिकी पूँजी को भी आकर्षित कर सकता है.
पाकिस्तान लंबे समय से वाशिंगटन को यह भरोसा
दिलाने की कोशिश कर रहा है कि बीजिंग के साथ उसका सहयोग न तो अमेरिकी हितों को
कमज़ोर करेगा और न ही क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से प्रभावित होगा. लेकिन यह
कहना अभी जल्दबाजी होगी कि ट्रंप प्रशासन इस बात से सहमत होगा या नहीं.
एक सवाल यह भी है कि अमेरिका क्या पाकिस्तान की
भारत से अज़ली-दुश्मनी की नीति में बदलाव करवा पाएगा, जैसी कि नवाज़ शरीफ के शासनकाल में संभावनाएँ बनी थीं? पाकिस्तान की बेहतर सेहत के लिए उसकी भारत-नीति बहुत महत्वपूर्ण है.
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