महाराष्ट्र और
हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक पुराना सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि
हमारे यहाँ एग्जिट पोल की विश्वसनीयता कितनी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि अक्सर कहा जाता है कि
ओपीनियन पोल के मुकाबले एग्जिट पोल ज्यादा सही साबित होते हैं, क्योंकि इनमें वोट
देने के फौरन बाद मतदाता की प्रतिक्रिया दर्ज कर ली जाती है। कई बार ये पोल सच के
करीब होते हैं और कई बार एकदम विपरीत। ऐसा क्यों होता है? सवाल इनकी पद्धति को लेकर उतना नहीं हैं, जितने
इनकी मंशा को लेकर हैं। भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता को खो रहा है। इसमें एग्जिट
और ओपीनियन पोल की भी भूमिका है।
इसबार महाराष्ट्र
और हरियाणा के चुनाव में एग्जिट पोल ने जो बताया था, परिणाम उससे हटकर आए। एक पोल
ने परिणाम के करीब का अनुमान लगाया था, पर उसके परिणाम को भी बारीकी से पढ़ें, तो
उसमें झोल नजर आने लगेगा। एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे के पोल ने महाराष्ट्र में
बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनने के संकेत तो दिए थे, लेकिन प्रचंड
बहुमत के नहीं। इस पोल ने भाजपा-नीत महायुति को 166-194, कांग्रेस-एनसीपी अघाड़ी
को 72-90 और अन्य को 22-34 सीटें दी थीं। वास्तविक परिणाम रहे 161, 98 और 29। यानी
भाजपा+ को अनुमान की न्यूनतम
सीमा से भी कम, कांग्रेस+ को अधिकतम सीमा से भी
ज्यादा और केवल अन्य को सीमा के भीतर सीटें मिलीं।
ज्यादातर
प्रेक्षकों का कहना है कि एनडीए के जिस ‘प्रचंड’ बहुमत का अनुमान था,
वह किस आधार पर था। ज्यादातर ने उन्हें 200 से ऊपर सीटें दी थीं। एनडीटीवी के पोल
ऑफ पोल्स ने 211 सीटें दी थीं, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि ज्यादातर की राय
क्या थी। कहा जा सकता है
कि एक्सिस के अनुमान दूसरों के अनुमानों की तुलना में परिणाम के काफी करीब तक थे।
इसी तरह हरियाणा में त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान केवल एक्सिस माई इंडिया-इंडिया
टुडे ने ही लगाया था। लगभग सभी ने 52 से 76 के बीच के अनुमान लगाए।
हरियाणा के मामले
में एक रोचक बात यह देखने को मिली कि 21 अक्तूबर को एग्जिट पोल आने के बाद हवा में
यह बात थी कि परिणाम इतने एकतरफा नहीं होंगे, जितने बताए जा रहे हैं। हरियाणा के
सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों पर गौर करने से ऐसा लग रहा था। बहरहाल एक्सिस ने
हरियाणा के एग्जिट पोल को रोककर एक दिन बाद सुनाया, जिसमें समझ का बदलाव देखा जा
सकता है। परिणाम के इतना करीब होने के बावजूद एक्सिस ने एनडीए और कांग्रेस के बीच
9 सीटों के फर्क का अनुमान नहीं लगाया था और ‘अन्य’ को उसने महत्व ही नहीं दिया, जबकि हरियाणा में वह
महत्वपूर्ण साबित हुआ। केवल रिपब्लिक टीवी जन की बात अन्य के मामले में कुछ करीब
तक पहुँचा।
अलग-अलग एग्जिट
पोल के अनुमान अलग-अलग होने में दिक्कत नहीं है। हमारे देश में वोटर के मूड का
अनुमान लगाना इतना आसान भी नहीं है। फिर भी कम से कम एग्जिट पोल से उस दिशा का
अनुमान तो लगना चाहिए, जो शोधकर्ताओं को नजर आ रही है। इस साल मई में लोकसभा चुनाव
परिणाम आने के बाद एग्जिट पोल के परिणामों को देखें, तो उनकी पोल खुल जानी चाहिए।
एनडीए को 242 से लेकर 352 सीटों तक के अनुमान थे। जाहिर है किसी न किसी के करीब
सीटें मिलीं, जो दावा कर सकता है कि हम बेहतर साबित हुए, पर काफी पोल गलत भी साबित
हुए। भला क्यों?
यहाँ से एक और
सवाल पैदा होता है। क्या काफी ओपीनियन पोल अलग-अलग राजनीतिक शक्तियों के पक्ष में
या विरोध में माहौल बनाने का काम करते हैं? क्या यह एक व्यावसायिक
गतिविधि है, जिसे प्रसारण के बाद भूल जाना चाहिए, क्योंकि यह भी एक धंधा है? क्या हमारा मीडिया जनमत को सही तरीके से पेश
करता है, ताकि सरकार और समाज उसे देखते हुए फैसले करे? कुल मिलाकर सारे सवाल हमारी लोकतांत्रिक
व्यवस्था से जुड़े हैं। एग्जिट-पोल, ओपीनियन पोल और मीडिया के विश्लेषण और
टिप्पणियों का व्यावहारिक अर्थ भी है।
एग्जिट पोल की
हास्यास्पद विडंबना का सबसे अच्छा उदाहरण 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव हैं।
हालांकि ज्यादातर पोल. संचालकों को लगता था कि आम आदमी पार्टी जीतेगी, पर 70 में
से 67 सीटें जीतेगी, इसका अनुमान नहीं था। दिल्ली में तब तक आम आदमी के साथ
योगेन्द्र यादव भी हुआ करते थे। अपनी विजय को लेकर उनका अनुमान भी सही साबित नहीं
हुआ। यह खामी दिल्ली जैसे महानगर में हुई, जहाँ का वोटर अपेक्षाकृत पढ़ा-लिखा है और उसके पास तक जाकर
उसकी राय लेना आसान है। आप कल्पना करें कि जिन गाँवों तक जाना आसान नहीं है वहाँ
की राय कैसे दर्ज की जाती होगी। सर्वेक्षक तीस-चालीस हजार के सैम्पल का दावा करते
हैं। ये भी दावे हैं। एक सर्वेक्षक का फॉर्म भरने और एक गाँव से दूसरे गाँव जाने
में जो समय लगता है, उसे जोड़ें तो
समझ में यह भी आता है कि ये संस्थाएं जल्दबाजी में अनुमान लगाती हैं। यह बौद्धिक
ईमानदारी नहीं है।
देश में चुनाव
पूर्व सर्वेक्षणों का चलन नब्बे के दशक से बढ़ा। तबसे ही टीवी पर चुनाव की कवरेज
भी बढ़ी है। शुरू में दूरदर्शन ने और बाद में निजी चैनलों ने यह काम किया। इससे
चुनाव के साथ-साथ कुछ और व्यवसाय चल निकले हैं। चुनाव को संचालित करने वाली
संस्थाएं भी उभर कर सामने आईं हैं, जिनमें प्रशांत किशोर जैसे विशेषज्ञ शामिल हैं। चुनाव के
पहले वैज्ञानिक तरीके से जनता की राय का पता करने, मुद्दों का अनुमान लगाने और सीटों का अनुमान लगाने की
वैज्ञानिक पद्धतियाँ भी दुनिया में विकसित हो रही हैं।
मतदाता का वोटिंग
व्यवहार राजनीति शास्त्र का विषय है। आमतौर पर पश्चिमी देशों के एग्जिट पोल सही
साबित होते रहे हैं, पर अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में अमेरिकी पोल भी फेल
हो गए। कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तरह
विश्वसनीय होते हैं। हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वेक्षण के लिए सही साँचा
ही तैयार नहीं हो पाता है। सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता को लेकर सामान्य वोटर की
दिलचस्पी दिखाई नहीं देती। मोटे तौर पर यह एक व्यावसायिक कर्म है जो चैनल या
अख़बार को दर्शक और पाठक मुहैया कराता है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण कर्म है,
जिसकी साख बचानी चाहिए।
No comments:
Post a Comment