आज 28 दिसंबर को
कांग्रेस पार्टी अपना 135 वाँ जन्मदिन मना रही है। जो पार्टी को देश के राष्ट्रीय
आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए
संघर्ष कर रही है। हालांकि झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी का उत्साह
बढ़ा दिया है, पर सच यह है कि वहाँ वह झारखंड मुक्ति मोर्चा की सहयोगी के रूप में
खड़ी है। बहरहाल इस सफलता से उत्साहित पार्टी के नेता कई तरह के दावे कर रहे हैं। उन्हें
लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का पराभव शुरू हो गया है और कांग्रेस की वापसी में
ज्यादा देर नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के अंदेशों से पैदा हुए
प्रतिरोधी स्वरों ने पार्टी के उत्साह को और बढ़ाया है।
हरियाणा,
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम पार्टी के आत्मविश्वास का आधार बने हैं। ऐसे
में पार्टी के एक तबके ने फिर से माँग शुरू कर दी है कि राहुल गांधी को वापस लाओ। यहीं
से इस पार्टी के अंतर्विरोधों की कहानी शुरू होती है। पार्टी का सबसे बड़ा एजेंडा
आज भी यही है कि किसी तरह से राहुल गांधी को लाओ। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ
नेता जयराम रमेश ने एक
इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे
लिए संकट की घड़ी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है।
क्या वास्तव में
कांग्रेस की वापसी हो रही है? कहना मुश्किल है
कि यह बीजेपी का पराभव-काल है। इसी महीने कर्नाटक विधानसभा उपचुनाव के नतीजे भी आए
हैं। राज्य में 5 दिसम्बर को 15 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ था। पिछले साल जिस
परिघटना को कांग्रेसी रणनीति की विजय बताया जा रहा था, वह अपमानजनक हार में बदल गई
और सिद्धारमैया और गुंडूराव ने अपने पदों से इस्तीफा देकर हाथ झाड़ लिए। इस साल मई
में जब बीजेपी लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव में भारी विजय के साथ सत्ता पर वापस
आई, तब विश्लेषकों का पहला निष्कर्ष यही था कि एजेंडा सेट करने में बीजेपी सफल है
और विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस के पास कोई योजना नहीं है।
क्या महाराष्ट्र
और झारखंड की सरकारों में शामिल होना कांग्रेस की सफलता है? हरियाणा विधानसभा चुनाव में अंतिम क्षणों में
पार्टी की बागडोर भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हाथों में सौंपने के कारण मिली आंशिक सफलता
भी पार्टी के नैरेटिव की नहीं क्षेत्रीय क्षत्रप की सफलता थी। भारतीय जनता पार्टी
की रणनीति के छिद्र भी उजागर हो रहे हैं। पर यह कांग्रेस की सफलता नहीं है। महाराष्ट्र
में सरकार में शामिल होने के बावजूद बागडोर शरद पवार और उद्धव ठाकरे के हाथों में
ही है। झारखंड में भी पार्टी की भूमिका दोयम दर्जे की है।
पार्टी को संतोष है
कि पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर एकछत्र राज के बाद महाराष्ट्र और
झारखंड में वह सत्ता की भागीदार है, पर क्या यह उसका पुनरोदय है? क्या उसकी भविष्य की
उम्मीदें इस बात पर निर्भर करेंगी कि बीजेपी अपने अंतर्विरोधों की शिकार होकर
धड़ाम से जमीन पर गिर जाए? बीजेपी के पास
प्रयोग करने का समय है। महाराष्ट्र और झारखंड में वह अकेले अपने बलबूते खड़ी होना
चाहती है। वोट प्रतिशत को देखते हुए अभी उसे परास्त नहीं माना जा सकता। उसके पास
जोखिम उठाने का समय और साधन दोनों हैं।
कांग्रेस के
सामने सहयोगी दलों का मुँह ताकने की मजबूरी है। उसके राष्ट्रीय आधार को ठोस लग रही
है। उसके पास क्षेत्रीय नेता नहीं हैं और उन्हें तैयार करने की योजना भी नजर नहीं
आ रही है। सवाल तीन हैं। उसके कार्यकर्ता कितनी मेहनत करने को तैयार हैं? उसकी संगठनात्मक संरचना में कितना बदलाव आया है? और उसका नया नैरेटिव क्या है? पिछले कुछ वर्षों में राहुल गांधी ने
संगठनात्मक पुनर्गठन शुरू किया था, जिसके तहत कुछ नए नेता सामने आए थे। अब पहिया
उल्टी दिशा में चल रहा है।
पिछले रविवार को
पार्टी ने नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय सिटिजन रजिस्टर के विरोध में दिल्ली
के राजघाट पर धरना-सत्याग्रह किया। उसकी प्रकट राजनीति के हिस्से संविधान की
प्रस्तावना पढ़ने का काम आया है। क्या उसके सम4थक वोटर को यह बात समझ में आती है? उत्तर प्रदेश में और देश की कुछ शिक्षा
संस्थाओं में एनआरसी विरोधी आंदोलन चल रहा है। उत्तर प्रदेश के आंदोलन में लगता है
कि उसमें समाजवादी पार्टी की भूमिका ज्यादा बड़ी है।
लगता नहीं कि
मुसलमानों के बीच कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया है। किया भी होगा, तो सपा को
नुकसान पहुँचा कर। बीजेपी के वोटर को वह कितना आकर्षित कर पाई है? आंदोलन की हिंसा के कारण नागरिकों का एक बड़ा
तबका नाराज है, जिसका राजनीतिक लाभ बीजेपी को ही मिलेगा। कांग्रेस ने इस आंदोलन से
क्या हासिल किया अभी यह स्पष्ट नहीं है। हालांकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी
एनपीए और एनआरसी के विरोध में बोल रहे हैं, पर पार्टी की दुविधा यह है कि इस
कार्यक्रम का श्रीगणेश उसकी सरकार ने ही 2009 में किया था।
पता नहीं कि
कांग्रेस की राजनीतिक जमीन कहाँ है। उसका नैरेटिव या एजेंडा क्या है? झारखंड के बाद अब दिल्ली में चुनाव होने वाले
हैं। लगता नहीं कि वह इस चुनाव को जीतने के हौसलों के साथ उतरेगी। भारतीय जनता
पार्टी की निगाहें पश्चिमी बंगाल पर हैं। अगले साल बिहार और उसके अगले साल यानी
2021 में असम और पश्चिम बंगाल के महत्वपूर्ण चुनाव हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति के
लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी को अपनी
विजय की आशा है और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को। बंगाल में कांग्रेस और माकपा
दोनों ही अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो उम्मीद की
किरणें नजर नहीं आतीं।
भारतीय जनता
पार्टी ने हालांकि इस साल लोकसभा चुनाव में भारी विजय हासिल की है, पर विधानसभा
चुनावों में उसका प्रदर्शन वैसा ही नहीं है, जैसा 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद का
था। शायद इसीलिए पार्टी 2024 के चुनाव के पहले नागरिकता के सवाल को अपने एजेंडा के रूप में तैयार कर रही
है। कांग्रेस के पास इसका जवाब है? क्या उसका अपना
कोई एजेंडा है? जवाब काफी मुश्किल हैं।
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