नागरिकता संशोधन
अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया
मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक
शुरू हुआ और उसने देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. यह आंदोलन अब देश के दूसरे
इलाकों में भी शुरू हो गया है. आंदोलन से जुड़ी, जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे
इसके दो पहलू उजागर हुए हैं. पहला है कि आगजनी और हिंसा का और दूसरा है पुलिस की कठोर कार्रवाई का. इस मामले ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तो
तैयार है, पर चीफ जस्टिस शरद अरविंद
बोबडे ने हिंसा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा कि हिंसा रुकने पर ही सुनवाई होगी.
छात्रों का कहना
है कि हिंसा हमने नहीं की है, बल्कि बाहरी लोग हैं. कौन हैं बाहरी लोग? वे कहाँ से आए हैं और विश्वविद्यालय में उनकी
दिलचस्पी क्यों है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में
शांतिपूर्ण विरोध हमारा सांविधानिक अधिकार है, पर इस अधिकार का इस्तेमाल
सांविधानिक तरीके से ही होना चाहिए. सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी बसों और निजी
वाहनों को आग लगाना कहाँ का विरोध प्रदर्शन है? उधर ममता बनर्जी कोलकाता में प्रदर्शन कर रहीं
हैं. उनके पास भी इस बात की जवाब नहीं है कि ट्रेनों में आग लगाने का काम कौन लोग
कर रहे हैं? रेल की पटरियाँ कौन उखाड़ रहा है? दिल्ली से खबरें मिल रही
हैं कि जामिया का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से ही शुरू हुआ था, पर अचानक यह हिंसक
हो गया. किसी ने इसे हाईजैक कर लिया. किसने हाईजैक कर लिया और क्यों?
पुलिस कार्रवाई की जाँच सुप्रीम कोर्ट भी समय आने पर करेगा, पर हिंसा को
निर्बाध चलने दिया गया, तो उसके परिणाम खतरनाक होंगे. जामिया मिलिया देश की
इस्लामी संस्कृति का संरक्षक है, पर वह आधुनिक विश्वविद्यालय है. उसके पीछे देश के
राष्ट्रवादी मुसलमान नेताओं का परिश्रम है. वहाँ प्रदर्शनकारियों का ‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाह हु अकबर’ के नारे लगना और प्रदर्शन स्थल पर नमाज़ पढ़ना यह बता रहा है कि कहीं न कहीं कट्टरपंथी
भी सक्रिय हैं.
यह आंदोलन नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ खड़ा हुआ है, तो इसके
आलोचकों को बताना चाहिए कि वे इसे गलत क्यों मानते हैं. यदि यह असंवैधानिक है, तो
उन्हें अदालत जाने का अधिकार भी है. सरकार से भी बात करनी चाहिए. पर राष्ट्रीय
नागरिकता रजिस्टर के नाम पर मुसलमानों को डराना एक प्रकार की राजनीति है. देश का
बहुमत कभी नहीं चाहेगा कि मुसलमानों को डराया और सताया जाए. पूरी कौम के मन में
दहशत फैलाना कम खतरनाक नहीं है. इससे हमारा सामाजिक ताना-बाना टूटता है.
खबर है कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने रविवार के मार्च के एक दिन पहले
दक्षिण पूर्व जिले की पुलिस को पत्र भेजकर सूचित किया था कि इस बात का अंदेशा है
कि आंदोलन में बड़े स्तर पर हिंसा हो और इस बात की कोशिश की जाए कि यह किसी तरह से
काबू के बाहर हो जाए. छात्रों ने आसपास के क्षेत्रों की जनता को आंदोलन से जोड़ने
के बहाने इस मार्च की योजना बनाई थी. पुलिस को अंदेशा था कि इस मौके पर स्थानीय
राजनेता और समाज विरोधी तत्व इसमें घुस जाएंगे. कहा जा रहा है कि पुलिस के पास
पहले से जानकारी थी, तो उसने ऐसी गतिविधियों को रोकने की व्यवस्था क्यों नहीं की.
इस मार्च के दौरान उसमें शामिल कुछ लोगों ने कोशिश की कि उसे संसद भवन तक ले जाया
जाए. हालात जब बिगड़े तब पुलिस ने शाम को कैम्पस में प्रवेश किया.
दिल्ली के विश्वसनीय पत्रकार सूत्रों के अनुसार पुलिस ने आंदोलनकारी छात्रों
से बात की थी. उधर एक स्थानीय राजनेता ने इसी सिलसिले में एक और रैली आयोजित की
थी. इन सबके बीच एक स्थानीय माफिया और उसके समर्थक भी रैली में शामिल हो गए. मथुरा
रोड के पास रैली अराजक होने लगी. उन्होंने डीटीडीसी की बसों में आग लगानी शुरू कर
दी. इसके बाद पुलिस ने लाठी चार्ज किया और आँसू गैस के गोले छोड़े. इसी दौरान
बोतलें, बल्ब और ट्यूबलाइटें भी फेंकी गईं.
पुलिस ने कैम्पस के भीतर जाकर जो कार्रवाई की उसकी आलोचना हो रही है. जामिया कुलपति प्रोफ़ेसर
नजमा अख़्तर पुलिस कार्रवाई से बेहद खफा हैं. उनका कहना है, ‘पुलिस का कैंपस में बिना इजाज़त आना और लाइब्रेरी में घुसकर
बेगुनाह बच्चों को मारना अस्वीकार्य है. मैं बच्चों से कहना चाहता हूं कि आप इस
मुश्किल घड़ी में अकेले नहीं हैं. मैं आपके साथ हूं. पूरी यूनिवर्सिटी आपके साथ
खड़ी है.’ अक्सर ऐसे आंदोलनों में असामाजिक तत्व अपना काम करके निकल
जाते हैं और निर्दोष मार खाते हैं. पर यह सवाल तो है कि आंदोलन को कैम्पस से बाहर
क्यों ले जाया गया? इसमें राजनीतिक तत्व
शामिल क्यों हुए?
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने अपने ट्वीट में कहा है कि रविवार की इस हिंसा की खबरों से उन्हें
तकलीफ हुई है. सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना और सामान्य जन-जीवन को खराब
करना देश के लिए हितकर नहीं है. प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री अमित शाह ने भी
छात्रों से कहा है कि नागरिकता अधिनियम में किसी की भी नागरिकता को समाप्त करने की
व्यवस्था नहीं है. सोशल मीडिया में तमाम तरह की अफवाहें हैं. दिल्ली की इस हिंसा
के बाद देश के करीब 30 विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों से भी विरोध प्रदर्शन
की खबरें हैं.
शांतिपूर्ण विरोध
प्रदर्शन एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है, पर एक रैली में ही कम के कम चार बसों,
एक दर्जन कारों और दर्जनों बाइकों का फुँक जाना खतरनाक संकेत है. आंदोलन का मतलब
यह नहीं है कि आप कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेंगे. साथ ही प्रशासन की
जिम्मेदारी है कि छात्रों के सवालों का जवाब दे. इस दोतरफा संवाद को टूटना नहीं
चाहिए.
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