हैदराबाद बलात्कार मामले के चारों अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद
ट्विटर पर एक प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश में मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और
भी अच्छा हुआ।’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी
अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।’ ज्यादातर
राजनीतिक नेताओं और सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों ने इस एनकाउंटर का समर्थन किया
है। जया बच्चन सबसे आगे रहीं, जिन्होंने हाल में राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों
को लिंच करना चाहिए। अब उन्होंने कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद।
कांग्रेसी नेता
अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को
तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन
में ट्वीट किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति
मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं
ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए।
यह लम्बी सूची
है, जिसमें शिवराज सिंह चौहान, भूपेश बघेल, त्रिवेंद्र सिंह रावत, उमा भारती, राज्यवर्धन
राठौर, मीनाक्षी लेखी, संजय निरूपम से लेकर मालिनी अवस्थी और बबीता फोगट जैसे नाम
हैं। हैदराबाद पुलिस को बधाइयाँ दी जा रही हैं। इस टीम में शामिल पुलिस वालों के
हाथों में लड़कियाँ राखी बाँध रही हैं, टीका लगाया जा रहा है। उनपर फूल बरसाए जा
रहे हैं। हैदराबाद बलात्कार मामले ने पूरे देश को उतनी शिद्दत के साथ नहीं हिलाया
था, जितनी शिद्दत से एनकाउंटर में चार अभियुक्तों की मौत ने हिलाया है। इस परिघटना
के समर्थन के साथ विरोध भी हो रहा है, पर समर्थन के मुकाबले वह हल्का है। दरअसल
निशाने पर अपराधी नहीं, देश की न्याय-व्यवस्था है। स्वाति मालीवाल का कहना है कि
कम से कम ये दरिंदे सरकारी मेहमान बनकर बैठे नहीं रहेंगे, जैसे निर्भया के हत्यारे
बैठे हैं।
एनकाउंटर की परिस्थितियों को लेकर भी सवाल हैं। पुलिस ने मजबूरी में गोलियाँ
चलाईं या सोच-समझ कर इन चारों को मौत के घाट उतारा, इसे लेकर भी कयास हैं। चूंकि
यह हिरासत में मौत का मामला है, इसलिए इसकी जाँच भी होगी। उस जाँच के परिणामों से
ज्यादा महत्वपूर्ण है यह सवाल कि क्या यह ठीक हुआ? यह गलत है, तो जनता इतनी विभोर क्यों है? मारो-मारो के स्वर हवा
में हैं। ये चारों अपराधी थे भी या नहीं, यह भी कोई नहीं पूछ रहा।
अपराधियों को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं
की गई। क्या वजह है कि एक गलत काम को जनता सही मान रही है? वस्तुतः यह देश की न्याय-प्रक्रिया के प्रति
उमड़ा रोष है। अपराधियों के मन में खौफ नहीं है। हैदराबाद के बाद उन्नाव से खबर
आई। इस खामी के लिए राजनीति कम जिम्मेदार नहीं है, पर जब ‘जनता की भावनाओं’ के दोहन का मौका आता है, तब राजनीति सबसे आगे होती
है।
सत्तर के दशक में नक्सलपंथियों के सफाए के लिए चलाए गए एनकाउंटर अभियानों से
लेकर मुम्बई में अपराधी गिरोहों के सफाए और हाल में उत्तर प्रदेश में अपराधियों के
खिलाफ एनकाउंटर की कार्रवाइयों को जनता का ऐसा समर्थन नहीं था। कम से कम पुलिस पर
ऐसी पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई। यों भी जनता की हमदर्दी पुलिस के साथ कभी नहीं रही।
तब ऐसा अब क्यों हो रहा है? इसे समझने की जरूरत है। पुलिस हिरासत
में मौत का समर्थन जनता नहीं करती है। तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम
गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन भी नहीं करती है। पर उसके मन में यह बात
गहराई तक बैठ चुकी है कि देश में अपराधियों को सजा नहीं मिलती है।
अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ
समय से न्यायपालिका को लेकर भी निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल
उठे हैं। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ
न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से
देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। हैदराबाद
के बलात्कारी गरीब और अनपढ़ लोग थे। देश का गुस्सा उनपर फूटा जरूर है, पर वास्तव
में जो बड़े अपराधी हैं, वे पैसे वाले भी हैं। सबसे ज्यादा परेशान कर रही हैं
न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें।
सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा
जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे
महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस
हफ्ते 7 दिसम्बर तक देश की अदालतों
में तीन करोड़ सत्रह लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 71,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान
लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश
में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
उच्च न्यायालयों में 25-30 प्रतिशत और अधीनस्थ अदालतों में 20 प्रतिशत तक
न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ लंबित हैं। सारी नियुक्तियाँ हो जाएं तब भी प्रति दस
लाख की जनसंख्या पर 13 जजों की संख्या काफी कम है। इसे कम से कम 30 या उससे ऊपर ले
जाने की ज़रूरत है। विकसित देशों में यह संख्या 50 के आसपास है। सामान्य व्यक्ति
के दृष्टिकोण से देखें तो अदालतों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते।
कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने निचली अदालत में पाँच
और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा था। यह तभी संभव है जब
प्रक्रियाएँ आसान बनाई जाएँ। आम शिकायत है कि देश में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग
आपस में रेवड़ियाँ बाँटते हैं। न्यायपालिका भी इस प्रवृत्ति की शिकार है। जनता
तकनीकी बातें नहीं जानती। वह न्याय चाहती है और अपराधियों में मन में खौफ।
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