नागरिकता संशोधन
अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया
मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक
शुरू हुआ और उसने देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. यह आंदोलन अब देश के दूसरे
इलाकों में भी शुरू हो गया है. रविवार को दिल्ली में कम से कम चार बसें, एक दर्जन
कारें और दर्जनों बाइकें स्वाहा होने के बाद सवाल उठे हैं. मंगलवार को दिल्ली के
सीलमपुर इलाके में भी करीब-करीब इस हिंसा की पुनरावृत्ति हुई. क्या वजह है इस
हिंसा की? सीलमपुर में प्रदर्शन
क्यों हुआ? आंदोलन से जुड़ी, जो
तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे इसके दो पहलू उजागर हुए हैं. पहला है कि आगजनी और
हिंसा का और दूसरा है जामिया में पुलिस की कठोर कार्रवाई का. इस मामले ने भी सुप्रीम
में दस्तक दी है. इंदिरा जयसिंह की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस शरद बोबडे
ने हिंसा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा कि हिंसा रुकने पर ही सुनवाई होगी. वहाँ सुनवाई हुई भी है. दिक्कत
यह है कि एक पक्ष केवल छात्र आंदोलन पर बात करना चाहता है, तो दूसरा पक्ष केवल
हिंसा पर. क्या दोनों बातों पर एकसाथ बात नहीं होनी चाहिए?
छात्रों का कहना
है कि हिंसा हमने नहीं की है, बल्कि बाहरी लोग हैं. कौन हैं बाहरी लोग? वे कहाँ से आए हैं और विश्वविद्यालय में उनकी
दिलचस्पी क्यों है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में
शांतिपूर्ण विरोध हमारा सांविधानिक अधिकार है, पर इस अधिकार का इस्तेमाल
सांविधानिक तरीके से ही होना चाहिए. सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी बसों और निजी
वाहनों को आग लगाना कहाँ का विरोध प्रदर्शन है? उधर ममता बनर्जी कोलकाता में प्रदर्शन कर रहीं
हैं. उनके पास भी इस बात की जवाब नहीं है कि ट्रेनों में आग लगाने का काम कौन लोग
कर रहे हैं? रेल की पटरियाँ कौन उखाड़ रहा है? दिल्ली से खबरें मिल रही
हैं कि जामिया का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से ही शुरू हुआ था, पर अचानक यह हिंसक
हो गया. किसी ने इसे हाईजैक कर लिया. किसने हाईजैक कर लिया और क्यों?
रविवार को जामिया कैम्पस में पुलिस प्रवेश और निर्दोष छात्रों की पिटाई गले से
उतरने वाली बात नहीं है. कौन है इसका जिम्मेदार? क्यों पीटे जाएं निर्दोष? और कैसे भाग गए असली अपराधी? जामिया विश्वविद्यालय की कुलपति ने पुलिस प्रवेश
की निंदा की है, जबकि उधर अलीगढ़ विवि के कुलपति ने पुलिस को प्रवेश की अनुमति दी.
सवाल है कि पुलिस को कानून व्यवस्था के हित में विवि कैम्पस में प्रवेश का अधिकार
है भी या नहीं? जामिया प्रसंग के बाद
प्रसिद्ध लेखक जावेद अख्तर ने ट्वीट किया कि कानूनन पुलिस किसी भी परिस्थिति में
विवि अधिकारियों की अनुमति के बगैर कैम्पस में प्रवेश नहीं कर सकती है. जामिया
कैम्पस में प्रवेश करके पुलिस ने एक ऐसी नज़ीर को जन्म दिया है, जिससे हरेक विवि
के लिए खतरा पैदा हो गया है.
जावेद अख्तर के
ट्वीट के बाद कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। इनमें एक प्रतिक्रिया भारतीय पुलिस
सेवा के अधिकारी संदीप मित्तल की भी थी. उन्होंने लिखा, प्रिय कानून विशेषज्ञ
कृपया आईपीएस की उस धारा या अधिनियम की जानकारी देकर ज्ञानवर्धन करें. वस्तुतः
विवि कैम्पस को पवित्र माना जाता है, जहाँ पुलिस सामान्यतः प्रवेश नहीं करती. पर ऐसा
कोई कानून नहीं है, जो पुलिस को कैम्पस में प्रवेश
करने से रोकता हो. पुलिस अधिकारी परिस्थितियों के आधार पर तय करते हैं कि
प्रवेश करना चाहिए या नहीं. उन्हें लगे कि कैम्पस में कुछ गलत हो रहा है, तो वे
प्रवेश कर भी सकते हैं.
यदि कोई विवि ऐसा
कोई नियम बनाए, तब भी वह देश के नियमों से संगत नहीं होगा. भारतीय दंड संहिता ही
लागू होगी. विवि अनुदान आयोग ने सन 2016 में छात्रों और कैम्पस की सुरक्षा के लिए
जो नियम बनाए हैं, उनमें ऐसी कोई बात नहीं है. एकमात्र प्रतिबंध किशोरों
(जुवेनाइल) की गिरफ्तारी को लेकर हो सकता है. उनकी गिरफ्तारी के लिए विशेष पुलिस
होनी चाहिए, पर ऐसी पुलिस होती नहीं है. इसलिए किशोरों की गिरफ्तारी सादी वर्दी
वाली पुलिस करती है. जामिया वाले मामले में भी काफी पुलिस वाले सादी वर्दी में थे.
यों भी पुलिस एहतियातन और इंटेलिजेंस के लिए बड़ी संख्या में सादी वर्दी में भी
अपने लोगों को तैनात करती है.
सन 2016 में
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विवि में पुलिस कार्रवाई को लेकर आपत्तियां व्यक्त की
गईं, पर सच यह है कि उसके पहले भी कई बार पुलिस ने कैम्पस में प्रवेश किया है. मैं
तो सन 1973 में लखनऊ विवि में आगजनी की घटना को देख चुका हूँ. दुर्भाग्य से वहाँ उत्तर
प्रदेश पीएसी विद्रोह भी शुरू हुआ था. 2016-17 में कश्मीर के पुलवामा इलाके में
पुलिस ने एक कैम्पस में प्रवेश किया था. सन 1974 के आंदोलन के दौरान गुजरात और
बिहार में पुलिस ने कई कैम्पसों में प्रवेश किया. जामिया में भी जबतक आंदोलन शांत
था, पुलिस ने प्रवेश नहीं किया.
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