Friday, December 13, 2019

नागरिकता कानून में बदलाव के निहितार्थ


नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर चल रही बहस में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं, जो देश के विभाजन के समय पैदा हुए थे. इसके समर्थन और विरोध में जो भी तर्क हैं, वे हमें 1947 या उससे पहले के दौर में ले जाते हैं. समर्थकों का कहना है कि दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश है, जिसने धार्मिक आधार पर विश्व के सभी पीड़ित-प्रताड़ित समुदायों को आश्रय दिया है. हम देश-विभाजन के बाद धार्मिक आधार पर पीड़ित-प्रताड़ित लोगों को शरण देना चाहते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि तीन देशों से ही क्यों, म्यांमार और श्रीलंका से क्यों नहीं? इसका जवाब है कि केवल तीन देश ही घोषित रूप से धार्मिक देश हैं. शेष देश धर्मनिरपेक्ष हैं, वहाँ धार्मिक उत्पीड़न को सरकारी समर्थन नहीं है.
जिन देशों का घोषित धर्म इस्लाम है, वहाँ कम से कम मुसलमानों का उत्पीड़न धार्मिक आधार पर नहीं होता. पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर दबाव डाला जाता है कि वे धर्मांतरण करें. उनकी लड़कियों को उठा ले जाते हैं और फिर उनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता है. पाकिस्तान में बहुत से मुस्लिम संप्रदायों का भी उत्पीड़न होता है. जैसे शिया और अहमदिया. पर शिया को सुन्नी बनाने की घटनाएं नहीं हैं. उत्पीड़न के आर्थिक, भौगोलिक और अन्य सामाजिक आधार भी हैं. मसलन पाकिस्तान में बलूचों, पश्तूनों, मुहाजिरों और सिंधियों को भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, पर यह धार्मिक उत्पीड़न नहीं है.

जो इस संशोधन के विरोधी हैं, उनका कहना है कि यह संशोधन देश की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के विरोध में है क्योंकि इसमें मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है. कुछ का कहना है कि यह मुसलमानों को निकालने की साजिश है. हालांकि संशोधन विधेयक में ऐसी कोई बात नहीं है, पर यह अंदेशा इस आधार पर है कि सरकार कुछ समय बाद देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) भी बनाने की घोषणा करेगी. जो मुसलमान अपनी नागरिकता को दस्तावेजों की मदद से स्थापित नहीं कर पाएंगे, उन्हें गैर-कानूनी निवासी माना जाएगा. यह नियम गैर मुसलमानों पर लागू नहीं होगा, क्योंकि इस संशोधन के बाद हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और पारसी वगैरह अवैध निवासी नहीं माने जाएंगे. गुजरात और राजस्थान जैसे सीमावर्ती राज्यों में बरसों से हजारों ऐसे लोग रह रहे हैं, जो पाकिस्तान से भागकर आए हैं और जिन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन किया है.  
इस कानून के दो साफ निहितार्थ हैं. एक, राजस्थान गुजरात, बंगाल, असम की सीमा पर और दिल्ली में भी हजारों की संख्या में मौजूद हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी वगैरह की नागरिकता का रास्ता साफ हो जाएगा. इस प्रक्रिया में भी समय लगेगा, क्योंकि उन्हें धार्मिक उत्पीड़न साबित करना होगा. दूसरा महत्वपूर्ण निहितार्थ है असम की एनआरसी में जिन 20 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं हैं, उनमें मुसलमानों के अलावा शेष संप्रदायों के लोगों के अवैध निवास का मामला खत्म हो जाएगा.
चूंकि इस समस्या की शुरुआत असम से ही हुई है और यह आज से नहीं स्वतंत्रता के बाद से ही चल रही है, इसलिए इसकी पहली प्रतिक्रिया असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में हुई है. असम में जो एनआरसी तैयार की गई है, वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर और उसकी देख-रेख में तैयार हुई है. अभी ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनका क्या होगा, पर यह विवाद अब तार्किक परिणति पर पहुँचेगा. कहा यह भी जा रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून के बाद असम की एनआरसी को फिर से तैयार करना होगा. चूंकि इस संशोधन में कटऑफ तारीख दिसंबर 2014 है, इसलिए इसमें बदलाव भी होंगे.
कानून में संशोधन के बाद भारत में अवैध रूप से रह रहे व्यक्तियों को वैध बनाने के लिए चार शर्तें रखी गईं हैं. 1.वे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई हों, 2.वे अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हों, 3.वे भारत में 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले आए हों और 4.असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के कुछ विशेष जनजातीय क्षेत्रों में निवास न कर रहे हों, जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं या ऐसे क्षेत्रों में जहाँ रहने के लिए आंतरिक परमिट की जरूरत होती है जैसे कि अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड. इन क्षेत्रों में प्रवेश के लिए भारत के नागरिकों को भी परमिट की जरूरत होती है. संविधान का अनुच्छेद 14 नागरिकों और विदेशियों को समानता का अधिकार देता है. अब कुछ शर्तें जुड़ जाने के बाद कानून की वैधानिकता के सवाल भी उठेंगे.
यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने जाएगा. इसकी संवैधानिकता से जुड़े सवालों पर सुप्रीम कोर्ट में ही विचार संभव है. गृहमंत्री अमित शाह ने गत 22 नवंबर को राज्यसभा में कहा कि पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू किया जाएगा. यह मामला असम से निकला है और आज का नहीं 1947 के बाद का है, जब देश स्वतंत्र हुआ था. भारत में असम अकेला राज्य है, जहाँ सन 1951 में इसे जनगणना के बाद तैयार किया गया था.
असम में जो एनआरसी तैयार की गई है, वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर और उसकी देख-रेख में तैयार हुई है. अभी ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनका क्या होगा, पर यह विवाद अपने चरम पर पहुँच रहा है. नागरिकता संशोधन कानून के बाद असम की एनआरसी को फिर से तैयार करना होगा. राष्ट्रीय एनआरसी को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ है. वह बनी तो कोई नई कटऑफ तारीख भी तय होगी. हाल में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा था कि एनआरसी का महत्व आज के लिए ही नहीं भविष्य के लिए है. उस वक्त यह बात समझ में नहीं आई थी. अब समझ में आती है. 


1 comment:

  1. यह मामला काफी संवेदन शील है और मोदी सरकार ने इसे छेद कर आग से खेलने का ककम किया है , लेकिन यह भी सच है किसी न किसी को तो यह करना ही होता चाहे कोई भी सरकार होती , और यह भी तथ्य है कि कांग्रेस सरकार तो यह नहीं ही करती
    अभी भी जो जान आंदोलन नाम से जो विरोध किया जा रहा है वह राजनितिक ज्यादा है और इसे विरोधी दलों द्वारा अपने स्वार्थों को पूरा करने व मोदी से बदले के रूप में ही देखा जा सकता है हालाँकि इसमें भा ज पा को ही नुक्सान होने की ज्यादा सम्भावना है और यह भी सम्भावना है कि यह पासा मोदी के लिए उल्टा न पड़ जाए

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