उन्नाव की जिस लड़की के साथ पहले बलात्कार हुआ, फिर उसे जलाकर मार डाला गया,
उसके पिता की माँग है कि अपराधियों को उसी तरह दौड़कर गोली मारी जाए, जैसे हैदराबाद के बलात्कारियों को मारी गई है. हैदराबाद
में बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों की एनकाउंटर में हुई मौत के बाद देशभर में बहस
छिड़ी है. पुलिस की यह कार्रवाई क्या उचित है? क्या उन्हें ठीक करने का यही तरीका है और क्या
यह सही तरीका है? क्या पुलिस को किसी को भी
अपराधी बताकर मार देने का अधिकार है? सवाल यह भी है कि यह एनकाउंटर क्या वास्तव में अपराधियों के भागने की कोशिश के
कारण हुआ? या पुलिस ने जानबूझकर इन्हें मार डाला,
क्योंकि उसे यकीन था कि इन्हें लम्बी
न्यायिक प्रक्रिया के बाद भी सजा दिला पाना सम्भव नहीं होगा. जनता का बड़ा हिस्सा मानता है कि एनकाउंटर सही हुआ या गलत, दरिंदों का अंत तो
हुआ.
चिंता की बात यह है कि जनता का विश्वास न्याय पर से डोल रहा है. बरसों तक
अपराधियों को सजा नहीं मिलती. पिछले कुछ वर्षों के रेप से जुड़े आंकड़े बताते हैं
कि ऐसे मामलों में दोषी साबित होनेवाले लोगों की संख्या बेहद कम है। 2014 से 2017
तक के आँकड़े बताते हैं कि जितने केस रजिस्टर हुए उनमें से ज्यादा से ज्यादा 31.8
प्रतिशत में अभियुक्तों पर दोष सिद्ध हो पाए. सौम्या विश्वनाथन (2008), जिगिशा घोष (2009), निर्भया (2012), शक्ति मिल्स गैंगरेप (2013), उन्नाव कांड (2017) जैसे तमाम
मामलों में अभी तक न्यायिक प्रक्रिया चल ही रही है.
सन 2012 में निर्भया मामले को लेकर शोर हुआ, तो न्यायिक प्रक्रिया में कुछ
तेजी आई, फिर भी पिछले पाँच दशकों में रेप के मामलों में सजाएं सुनाए जाने का
प्रतिशत कमोबेश एक जैसा ही रहा है. सन 1973 में जो प्रतिशत 44.3 था वह 1983 में
37.7 और 2009 में 26.9 और 2012 में 24.2 प्रतिशत रह गया. निर्भया मामले के बाद
2014 में यह 27.4, 2015 में 28.8, 2016 में 24.8 और 2017 में 31.8 प्रतिशत हुआ.
2012 के बाद फास्ट ट्रैक अदालतों ने जो फैसले किए भी हैं, वे आगे की अदालतों में
ठहरे पड़े हैं.
हैदराबाद मामले के चारों अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद ट्विटर पर
एक प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश
में मारे गए, तो अच्छा हुआ. पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ.’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी
अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी.’ ज्यादातर
राजनीतिक नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटर का समर्थन किया है. जया बच्चन सबसे
आगे रहीं, जिन्होंने हाल में राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना चाहिए.
इस एनकाउंटर के बाद उन्होंने कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद.
कांग्रेसी नेता
अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें. यह ट्वीट बाद में हट गया. मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को
तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया,
जिसे बाद में हटा लिया. दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष
रूप से इसका समर्थन किया. पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि
एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए.
यह लम्बी सूची
है, जिसमें शिवराज सिंह चौहान, भूपेश बघेल, त्रिवेंद्र सिंह रावत, उमा भारती, राज्यवर्धन
राठौर, मीनाक्षी लेखी, संजय निरूपम से लेकर मालिनी अवस्थी और बबीता फोगट जैसे नाम
हैं. हैदराबाद पुलिस को बधाइयाँ दी जा रही हैं. इस टीम में शामिल पुलिस वालों के
हाथों में लड़कियाँ राखी बाँध रही हैं, टीका लगाया जा रहा है. उनपर फूल बरसाए जा
रहे हैं.
ऐसा लगता है कि निर्भया, उन्नाव और हैदराबाद बलात्कार मामलों ने देश को उतनी
शिद्दत के साथ नहीं झकझोरा था, जितनी शिद्दत से एनकाउंटर में चार अभियुक्तों की
मौत ने हिलाया है. इस परिघटना के समर्थन के साथ विरोध भी हो रहा है, पर समर्थन के
मुकाबले वह हल्का है. सवाल यह भी है कि क्या इलाज यही है? क्या हमें कस्टोडियल मौतें स्वीकार हैं? पुलिस की हिरासत में मरने वाले सभी अपराधी नहीं
होते. निर्दोष भी होते हैं, पर पुलिस का भी कुछ नहीं होता. ऐसे मामलों में भी किसी
को सजा नहीं मिलती. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, पिछले सात साल में कस्टडी में मौत के लिए किसी पुलिसवाले को दोषी नहीं ठहराया
गया.
जनता के निशाने पर इस वक्त अपराधियों के साथ देश की न्याय-व्यवस्था भी है.
स्वाति मालीवाल का कहना है कि कम से कम ये दरिंदे सरकारी मेहमान बनकर बैठे नहीं
रहेंगे, जैसे निर्भया के हत्यारे बैठे हैं. ज्यादातर लोग इस बात पर भी जाना नहीं
चाहते कि एनकाउंटर सही है या गलत. कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि मारे गए चारों अपराधी
थे भी या नहीं. जनता नाराज है. उसके मन में तमाम पुराने अनुभवों का गुस्सा है. अपराधियों
को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं की गई. क्या
वजह है कि इसे जनता सही मान रही है?
जनता को लगता है
कि अपराधियों के मन में खौफ नहीं है. उन्हें सजा मिलती नहीं है. हैदराबाद की घटना
होने के फौरन बाद उन्नाव से खबर आई. सत्तर के दशक में नक्सलपंथियों के
सफाए के लिए चलाए गए एनकाउंटर अभियानों से लेकर मुम्बई में अपराधी गिरोहों के सफाए
और हाल में उत्तर प्रदेश में अपराधियों के खिलाफ एनकाउंटर की कार्रवाइयों को जनता
का ऐसा समर्थन नहीं था. कम से कम पुलिस पर ऐसी पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई. यों भी जनता
की हमदर्दी पुलिस के साथ कभी नहीं रही. तब ऐसा अब क्यों हो रहा है?
इसे समझने की जरूरत है. पुलिस हिरासत में मौत का समर्थन जनता नहीं करती है.
तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन भी वह
नहीं करती है. पर उसके मन में यह बात गहराई से बैठ रही है कि अपराधी कानूनी शिकंजे
से बाहर रहते हैं. अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है.
पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर निराशा है. उसके भीतर और बाहर से कई तरह
के सवाल उठे हैं. कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के
साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है. इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से
देखना चाहिए. दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं.
हैदराबाद के बलात्कारी गरीब और अनपढ़ लोग थे. देश का गुस्सा उनपर फूटा जरूर
है, पर वास्तव में बड़े अपराधी साधन सम्पन्न हैं. वे अपने साधनों की मदद से
सुविधाएं हासिल कर लेते हैं. जेल जाते हैं, तो वहाँ भी उन्हें सुविधाएं मिलती हैं.
सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति को न्याय किस तरह से मिले? उसके मन में बैठे अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है.
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 7 दिसम्बर, 2019 तक देश की अदालतों में तीन करोड़ सत्रह
लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे. इनमें 71,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं. यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या
तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार
हैं. यह संख्या लगातार बढ़ रही है.
उच्च न्यायालयों में 25-30 प्रतिशत और अधीनस्थ अदालतों में 20 प्रतिशत तक
न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ लंबित हैं. सारी नियुक्तियाँ हो जाएं तब भी प्रति दस
लाख की जनसंख्या पर 13 जजों की संख्या काफी कम है. इसे कम से कम 30 या उससे ऊपर ले
जाने की ज़रूरत है. विकसित देशों में यह संख्या 50 के आसपास है. सामान्य व्यक्ति के
दृष्टिकोण से देखें तो अदालतों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है. एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते.
हैदराबाद में हुआ, वह भी न्याय नहीं है. न्याय की प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए,
पर उसमें बरसों नहीं लगने चाहिए. प्रक्रियाओं का मतलब यह तो नहीं कि अपराधी सरकारी
मेहमानों की तरह रहें. जनता तकनीकी बातें नहीं जानती. वह न्याय चाहती है और यह भी
कि अपराधियों में मन में कानून का खौफ होना चाहिए. हैदराबाद के एनकाउंटर के बाद यह
मामला याचिकाओं की शक्ल में सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुँचा है. अब अदालत ही बताएगी कि
रास्ता क्या है. हमारी न्याय-व्यवस्था की यह सबसे बड़ी परीक्षा है.
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