राजनीतिक दलों को अधिकार
है कि वे किसी भी मामले को राजनीतिक नजरिए से देखें, पर सामान्य नैतिकता का तकाज़ा
है कि कम से कम बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को वे मानवीय दृष्टि से देखें। हाल के
वर्षों में कई बार ऐसा हुआ है, जब बलात्कार को लेकर हुई बहस बेवजह राजनीतिक मोड़
ले लेती है। हाल में उन्नाव कांड पर लोकसभा में चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री
स्मृति ईरानी के साथ दुर्व्यवहार को लेकर कांग्रेस के दो सदस्यों के विरुद्ध
प्रस्ताव रखा जाना इस दुखद पहलू का नवीनतम उदाहरण है। इस संबंध में संसदीय कार्य
मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सदन में प्रस्ताव रखा और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा
कि वह इस विषय पर न्यायपूर्ण निर्णय करेंगे। कांग्रेस के दो सदस्यों पर केवल
दुर्व्यवहार की आरोप ही नहीं था, बल्कि शुक्रवार 6 दिसंबर को आसन की ओर से निर्देश
के बावजूद दोनों सदस्यों ने माफी नहीं मांगी।
इस प्रकरण को अलग कर दें,
तब भी बलात्कार जैसे प्रकरण पर बहस का रुख अपराध और उसके निराकरण पर होना चाहिए।
पूरा देश पहले हैदराबाद और फिर उन्नाव की घटना को लेकर बेहद गुस्से में है। यह
गुस्सा अपराधियों और अपराध की ओर केंद्रित होने के बजाय राजनीतिक प्रतिस्पर्धी की
ओर होता है, तो ऐसी राजनीति पर शर्म आती है। संसद में गंभीर टिप्पणियों का जवाब
गंभीर टिप्पणियों से ही दिया जाना चाहिए। रोष की मर्यादापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए
भी कोशों में शब्दों की कमी नहीं है। कम से कम ऐसे मौकों पर हमारे स्वर एक होने
चाहिए।
आग पर सिंकती रोटियाँ
क्या वजह है कि बलात्कार राजनीतिबाजी
का औजार बन गया है? इन घटनाओं को लेकर देश
में नाराजगी है। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक यह इसे देखा जा सकता है। शायद
राजनीतिक दल इस रोष का लाभ अपने फायदे में उठाना चाहते हैं। इस आग पर अपनी रोटी
सेकना चाहते हैं। जनता के गुस्से को भड़काना भी एक राजनीति है, जिसे हम कश्मीर में
देख रहे हैं। इस नाराजगी को सहज रूप में स्वीकार करना चाहिए, पर उसे रास्ता दिखाने
की जिम्मेदारी भी तो किसी की है। रास्ता नहीं दिखाते और आग भड़काते हैं, तो आपके
इरादों पर शंका होने लगती है।
अक्सर जब कई घटनाएं होती
जाती हैं, तब किसी एक मौके पर जनता का गुस्सा फूटता है। दिसम्बर 2012 में दिल्ली
की घटना के बाद ऐसा ही गुस्सा फूटा था और अब हैदराबाद की घटना के बाद उसी तरह की
नाराजगी सामने आई है। पुलिस की गोली से चारों अभियुक्तों की मौत का समाचार आने के
बाद बड़ी संख्या में लोगों ने एक स्वर से कहा कि जो हुआ वह ठीक हुआ। इस बात को पर
भी सवाल हैं कि आरोपियों की मौत को लेकर हैदराबाद पुलिस की विश्वसनीय है या नहीं।
इस मामले पर देश के मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों से शिकायतें की गईं
हैं।
जन-भावनाएं स्वयं-स्फूर्त
होती हैं। भावनाओं को तकनीकी बारीकियों में रखकर नहीं देखा जा सकता। गुस्सा है, तो
है। जन-प्रतिनिधियों और समाज के व्यवस्थापकों तक अपनी बात को पहुँचाने के लिए कई
बार स्वरों को ऊँचा करना भी जरूरी होता है। हैदराबाद प्रकरण के बाद की
प्रतिक्रियाओं से एक बात साफ है कि देश के नागरिकों के मन में घुटन है, गुस्सा है।
पर इस रोष को व्यक्त करने के तरीके अलग-अलग हैं। पर जब मामले का राजनीतिकरण होता
है, मूल समस्या पीछे रह जाती है और कुछ दूसरी बातें आगे आ जाती हैं। इस मामले में
भी यही हुआ है। जब इतने संवेदनशील मामले का राजनीतिकरण होता है, सामान्य नागरिक
समझ नहीं पाता कि समस्या क्या है और उसका समाधान क्या है। कानूनों को किस तरह से
प्रभावशाली बनाया जाए कि अपराधियों में मन में भय पैदा हो? कानूनों को लागू करने की मशीनरी को कैसे कुशल
बनाया जाए?
न्याय-व्यवस्था में देरी
लोकसभा में उन्नाव प्रकरण
पर चर्चा के दौरान बार-बार हैदराबाद प्रकरण सामने आया। हालांकि यह चर्चा अनावश्यक
रूप से विवाद से घिर गई, पर इस बातचीत में कुछ महत्वपूर्ण बातें भी सामने आईं थीं।
अधिकतर सांसदों ने तेलंगाना पुलिस की कार्रवाई को उचित ठहराया। उनका कहना था कि
यदि अपराधी पुलिस के हथियार छीनने का प्रयास करेंगे, तो पुलिस भी कार्रवाई करेगी। मीनाक्षी
लेखी ने कहा, पुलिस को हथियार दिखाने के लिए नहीं दिए गए हैं। इसी चर्चा के दौरान
तृणमूल कांग्रेस के सौगत रॉय ने कहा कि मैं ‘एनकाउंटरों’ का समर्थन नहीं करता, पर न्याय-व्यवस्था में तेजी लाने की जरूरत भी है। यह
बात घूम फिरकर ज्यादातर सदस्यों ने कही है कि कमी कहीं न कहीं न्याय-व्यवस्था में
भी है। और यह बात जनता को सबसे ज्यादा चुभती है। इसे समझने के लिए हमें हैदराबाद
में चार अभियुक्तों की मौत के बाद पैदा हुई जन-भावना को पढ़ना चाहिए।
उन्नाव की जिस लड़की के साथ पहले बलात्कार हुआ, फिर उसे जलाकर मार डाला गया,
उसके पिता की माँग है कि अपराधियों को उसी तरह दौड़कर गोली मारी जाए, जैसे
हैदराबाद के बलात्कारियों को मारी गई है। हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के
आरोपियों की एनकाउंटर में हुई मौत के बाद देशभर में बहस छिड़ी है। पुलिस की यह
कार्रवाई क्या उचित है? क्या उन्हें ठीक
करने का यही तरीका है और क्या यह सही तरीका है? क्या पुलिस को किसी को भी अपराधी बताकर मार
देने का अधिकार है? सवाल यह भी है कि यह
एनकाउंटर क्या वास्तव में अपराधियों के भागने की कोशिश के कारण हुआ? या पुलिस ने जानबूझकर इन्हें मार डाला, क्योंकि उसे यकीन
था कि इन्हें लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के
बाद भी सजा दिला पाना सम्भव नहीं होगा। जनता का बड़ा हिस्सा मानता है कि
एनकाउंटर सही हुआ या गलत, दरिंदों का अंत तो हुआ।
भरोसा क्यों टूटा?
जनता का विश्वास न्याय व्यवस्था पर से डोलना मामूली बात नहीं, बल्कि चिंता की
बात है। केवल बलात्कार की बात ही नहीं है। ज्यादातर अपराधों में बरसों तक
अपराधियों को सजा नहीं मिलती। सजा मिलती भी है, तो ज्यादातर गरीबों को। पैसे वाले
अपराधी अपने पैसे के बल पर न्याय-व्यवस्था के छिद्रों का लाभ उठाकर रास्ते निकाल
लेते हैं। पिछले कुछ वर्षों के रेप से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि ऐसे मामलों में
दोषी साबित होनेवाले लोगों की संख्या बेहद कम है। 2014 से 2017 तक के आँकड़े बताते
हैं कि जितने केस रजिस्टर हुए उनमें से ज्यादा से ज्यादा 31।8 प्रतिशत में अभियुक्तों
पर दोष सिद्ध हो पाए। सौम्या विश्वनाथन (2008), जिगिशा घोष (2009), निर्भया (2012), शक्ति
मिल्स गैंगरेप (2013), उन्नाव कांड (2017) जैसे तमाम मामलों में अभी तक न्यायिक
प्रक्रिया चल ही रही है। निर्भया मामले को गुजरे सात साल हो गए हैं। तब लगता था कि
अब व्यवस्थाएं सुधर ही जाएंगी। हुआ कुछ नहीं।
सन 2012 में निर्भया मामले को लेकर शोर हुआ, तो न्यायिक प्रक्रिया में कुछ तेजी
आई, फिर भी पिछले पाँच दशकों में रेप के मामलों में सजाएं सुनाए जाने का प्रतिशत
कमोबेश एक जैसा ही रहा है। सन 1973 में जो प्रतिशत 44.3 था वह 1983 में 37.7 और
2009 में 26।9 और 2012 में 24.2 प्रतिशत रह गया। निर्भया मामले के बाद 2014 में यह
27.4, 2015 में 28.8, 2016 में 24.8 और 2017 में 31.8 प्रतिशत हुआ। 2012 के बाद
फास्ट ट्रैक अदालतों ने जो फैसले किए भी हैं, वे आगे की अदालतों में ठहरे पड़े
हैं।
हैदराबाद मामले के चारों अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद ट्विटर पर
एक प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश में
मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ।’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी
अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।’ ज्यादातर
राजनीतिक नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटर का समर्थन किया है। जया बच्चन सबसे
आगे रहीं, जिन्होंने हाल में राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना
चाहिए। इस एनकाउंटर के बाद उन्होंने कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद।
कांग्रेसी नेता
अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को
तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया,
जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष
रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि
एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए।
जो जस कीन्ह…
यह लम्बी सूची
है, जिसमें शिवराज सिंह चौहान, भूपेश बघेल, त्रिवेंद्र सिंह रावत, उमा भारती,
राज्यवर्धन राठौर, मीनाक्षी लेखी, संजय निरूपम से लेकर मालिनी अवस्थी और बबीता
फोगट जैसे नाम हैं। बबीता फोगट ने कहा, दिल को सुकून मिला है। शिवराज
सिंह चौहान ने कहा, जो जस कीन्ह, सो तस फल चाखा। किसी ने कहा, तत्र दोषं न पश्यामि
शठे शाठ्य समातरेत्। ये सब प्रतिक्रियाएं हमारी परंपराओं की देन हैं। हैदराबाद
पुलिस को बधाइयाँ दी जा रही हैं। इस टीम में शामिल पुलिस वालों के हाथों में
लड़कियाँ राखी बाँध रही हैं, टीका लगाया जा रहा है। उनपर फूल बरसाए जा रहे हैं।
ऐसा लगता है कि निर्भया, उन्नाव और हैदराबाद बलात्कार मामलों ने देश को उतनी
शिद्दत के साथ नहीं झकझोरा था, जितनी शिद्दत से एनकाउंटर में चार अभियुक्तों की
मौत ने हिलाया है। इस परिघटना के समर्थन के साथ विरोध भी हुआ है, पर समर्थन के
मुकाबले वह हल्का है। सवाल यह भी है कि क्या इलाज यही है? क्या हमें कस्टोडियल मौतें स्वीकार हैं? पुलिस की हिरासत में मरने वाले सभी अपराधी नहीं
होते। निर्दोष भी होते हैं, पर पुलिस का भी कुछ नहीं होता। ऐसे मामलों में भी किसी
को सजा नहीं मिलती। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, पिछले सात साल में कस्टडी में मौत के लिए किसी पुलिसवाले को दोषी नहीं ठहराया
गया।
जनता के निशाने पर इस वक्त अपराधियों के साथ देश की न्याय-व्यवस्था भी है।
स्वाति मालीवाल का कहना है कि कम से कम ये दरिंदे सरकारी मेहमान बनकर बैठे नहीं
रहेंगे, जैसे निर्भया के हत्यारे बैठे हैं। ज्यादातर लोग इस बात पर भी जाना नहीं
चाहते कि एनकाउंटर सही है या गलत। कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि मारे गए चारों
अपराधी थे भी या नहीं। जनता नाराज है। उसके मन में तमाम पुराने अनुभवों का गुस्सा
है। अपराधियों को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं
की गई। क्या वजह है कि इसे जनता सही मान रही है?
जनता को लगता है
कि अपराधियों के मन में खौफ नहीं है। उन्हें सजा मिलती नहीं है। हैदराबाद की घटना
होने के फौरन बाद उन्नाव से खबर आई। सत्तर के दशक में नक्सलपंथियों के
सफाए के लिए चलाए गए एनकाउंटर अभियानों से लेकर मुम्बई में अपराधी गिरोहों के सफाए
और पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध अभियान में इसका सहारा लिया गया। फिर भी देश अपराधियों
के खिलाफ एनकाउंटर की कार्रवाइयों का समर्थन नहीं करता है। कम से कम ऐसा समर्थन तो
कभी नहीं दिया। पुलिस पर ऐसी पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई। यों भी जनता की हमदर्दी
पुलिस के साथ कभी नहीं रही। तब ऐसा अब क्यों हो रहा है?
जनता चाहती क्या
है?
इस बात को समझने की जरूरत है। पुलिस हिरासत में मौत का समर्थन जनता नहीं करती
है। तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन
भी वह नहीं करती है। पर उसके मन में यह बात गहराई से बैठ रही है कि अपराधी कानूनी
शिकंजे से बाहर रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी
सहारा है। पर पिछले कुछ समय से जनता निराश है। न्यायपालिका के भीतर और बाहर से कई
तरह के सवाल उठे हैं। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा
के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी
से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं।
हैदराबाद के बलात्कारी गरीब और अनपढ़ लोग थे। देश का गुस्सा उनपर फूटा जरूर
है, पर वास्तव में बड़े अपराधी साधन सम्पन्न हैं। इन्हें मारकर भी समस्या का
समाधान नहीं हुआ है। अपराधी अपने साधनों की मदद से सुविधाएं हासिल कर लेते हैं।
जेल जाते हैं, तो वहाँ भी उन्हें सुविधाएं मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि
सामान्य व्यक्ति को न्याय किस तरह से मिले? उसके मन में बैठे अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। इन सवालों का जवाब राजनीतिक व्यवस्था को
देना चाहिए। पर जब वही रास्ते से भटक कर मामले की संवेदनशीलता की अनदेखी करेगी, तो
उम्मीद किससे की जाए?
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 10 दिसम्बर, 2019 तक देश की अदालतों में तीन करोड़ सत्रह
लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 71,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या
तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार
हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
उच्च न्यायालयों में 25-30 प्रतिशत और अधीनस्थ अदालतों में 20 प्रतिशत तक
न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ लंबित हैं। सारी नियुक्तियाँ हो जाएं तब भी प्रति दस
लाख की जनसंख्या पर 13 जजों की संख्या काफी कम है। इसे कम से कम 30 या उससे ऊपर ले
जाने की ज़रूरत है। विकसित देशों में यह संख्या 50 के आसपास है। सामान्य व्यक्ति
के दृष्टिकोण से देखें तो अदालतों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते।
हैदराबाद में जो हुआ, वह भी न्याय नहीं है। न्याय की प्रक्रिया पूरी होनी
चाहिए, पर उसकी भी समय सीमा होनी चाहिए। उसमें बरसों नहीं लगने चाहिए। प्रक्रियाओं
का मतलब यह तो नहीं कि अपराधी सरकारी मेहमानों की तरह रहें। जनता तकनीकी बातें
नहीं जानती। वह न्याय चाहती है और यह भी कि अपराधियों में मन में कानून का खौफ
होना चाहिए। सजा नहीं मिलने से अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं। हैदराबाद के
एनकाउंटर के बाद यह मामला याचिकाओं की शक्ल में सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुँचा है। अब
अदालत ही बताएगी कि समस्या का समाधान क्या है। न्याय-व्यवस्था की भी परीक्षा की
घड़ी है, पर सबसे बड़ी परीक्षा राजनीति की है। क्या वह ऐसे ही भटकती रहेगी?
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