Monday, August 19, 2019

हांगकांग ने किया चीन की नाक में दम

हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले तीन महीने से यहाँ के निवासी सरकार-विरोधी आंदोलन चला रहे हैं। पिछले हफ्ते पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच कई झड़पे हैं हुई हैं। पुलिस ने आँसू गैस के गोले दागे। इस ‘नगर-राज्य’ की सीईओ कैरी लाम ने चेतावनी दी है कि अब कड़ी कार्रवाई की जाएगी। प्रेक्षक पूछ रहे हैं कि कड़ी कार्रवाई माने क्या?

चीन ने धमकी दी है कि यदि हांगकांग प्रशासन आंदोलन को रोक पाने में विफल रहा, तो वह इस मामले में सीधे हस्तक्षेप भी कर सकता है। यह आंदोलन ऐसे वक्त जोर पकड़ रहा है, जब चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी मसलों को लेकर जबर्दस्त टकराव चल रहा है। शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हुए प्रदर्शन के दौरान कुछ आंदोलनकारी अमेरिकी झंडे लहरा रहे थे।

चीन के सरकारी मीडिया का आरोप है कि इस आंदोलन के पीछे अमेरिका का हाथ है। चीनी मीडिया ने एक हांगकांग स्थित अमेरिकी कौंसुलेट जनरल की राजनीतिक शाखा प्रमुख जूली ईडे की एक तस्वीर प्रसारित की है, जिसमें वे एक होटल की लॉबी में आंदोलनकारी नेताओं से बात करती नजर आ रही हैं। इनमें 22 वर्षीय जोशुआ वांग भी है, जो सरकार विरोधी आंदोलन का मुखर नेता है। चायना डेली और दूसरे अखबारों ने इस तस्वीर को छापने के साथ यह आरोप लगाया है कि आंदोलन के पीछे अमेरिका का ‘काला हाथ’ है।

क्या चीन करेगा हस्तक्षेप?

हांगकांग से निकलने वाले चीन-समर्थक अखबार ‘ताई कुंग पाओ’ ने लिखा है कि जूली ईडे इराक में ऐसी गतिविधियों में शामिल रही हैं। चीन के सरकारी सीसीटीवी का कहना है कि सीआईए ऐसे आंदोलनों को भड़काता रहता है। चीन सरकार आगामी 1 अक्तूबर को कम्युनिस्ट क्रांति की 70वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है। हांगकांग का आंदोलन समारोह के माहौल को बिगाड़ेगा, इसलिए सरकार आंदोलन को खत्म कराना चाहती है। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि यदि हांगकांग प्रशासन अनुरोध करेगा, तो चीन सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सकती है। चीन को अंदेशा है कि हांगकांग में चल रही लोकतांत्रिक हवा कहीं चीन में न पहुँच जे। चीन सरकार पश्चिमी मीडिया की विरोधी है। चीन में गूगल, यूट्यूब और ट्विटर, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी है।


प्रदर्शनकारी पुलिस-प्रशासन से सीधे भिड़ने के बजाय ‘हिट एंड रन’ की रणनीति अपना रहे हैं। पिछले हफ्ते शनिवार को अनुमति न मिलने के बाद भी प्रदर्शनकारी ताई पो जिले में जमा हुए और पुलिस जैसे ही यहां पहुंची, वे पीछे हट गए और छोटे-छोटे समूहों में बँटकर शहर के अलग-अलग हिस्सों में चले गए। इसके बाद उन्होंने शहर के क्रॉस हार्बर टनल में यातायात को ठप कर दिया। पिछले दस हफ्तों से हरेक शनिवार को किसी न किसी प्रकार का प्रदर्शन हो रहा है।

अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से प्रदर्शनकारियों ने शुक्रवार को हांगकांग के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर प्रदर्शन किया था। वे अपने परिवार और बच्चों के साथ भी शामिल हो रहे हैं। उनका कहना है कि इससे आंदोलन का महत्व बच्चों को भी समझ में आएगा। हांगकांग के लोगों ने अंग्रेजी की वर्णमाला में पी फॉर प्रोटेस्ट (विरोध) और डी फॉर डिमांस्ट्रेशन (प्रदर्शन) प्रसारित करना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि वे अपना प्रदर्शन तब तक जारी रखेंगे जब तक लाम उनकी मांगे नहीं मान लेतीं। उनकी मांगों में शहर के प्रमुख का प्रत्यक्ष चुनाव और पुलिस हिंसा की जाँच शामिल है।

जून में एक प्रस्तावित कानून के खिलाफ हांगकांग के निवासी न केवल खड़े हुए, बल्कि उन्होंने इसे अपने अस्तित्व का प्रश्न बना लिया। काले कपड़े पहने हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। मोटे तौर पर यह कानून हांगकांग के अधिकारियों को यह अधिकार देता था कि वे जरूरी समझें तो किसी नागरिक का प्रत्यर्पण मेनलैंड चीन को कर सकें। इसका प्रत्यक्ष कारण था हांगकांग में बढ़ती आपराधिक गतिविधियाँ, पर नागरिकों को अंदेशा था कि इस अधिकार का दुरुपयोग किया जाएगा। व्यवस्था की आलोचना करने वालों को चीन भेजा जा सकता है, जहाँ मामूली सुनवाई के बाद मौत की सजा तक देना आसान है। नागरिकों के प्रतिरोध के कारण हांगकांग प्रशासन ने उस कानून को ठंडे बस्ते में डाल दिया है, पर उसे पूरी तरह रद्द भी नहीं किया है। हांगकांग में अशांति का मतलब है पश्चिमी देशों में बेचैनी का बढ़ना।

पाँच साल से आंदोलन

हांगकांग में सन 2014 से आंदोलनों का क्रम चल रहा है। सन 1997 में हांगकांग पर ब्रिटिश सम्प्रभुता खत्म करके उसे चीन के अधीन कर दिया गया था, इस आश्वासन के साथ कि वहाँ की व्यवस्था मेनलैंड चीनी व्यवस्था से अलग होगी। हांगकांग के शासन में तीन अंग हैं। मुख्य कार्याधिकारी, विधायिका और न्यायपालिका। पर वास्तविक शक्ति मुख्य कार्याधिकारी के पास हैं, जिसकी नियुक्ति में चीन सरकार की भूमिका होती है। 2007 में यह निर्णय किया गया कि 2017 में होने वाले चुनावों में लोगों को मताधिकार का प्रयोग करने का हक मिलेगा। 2014 की शुरुआत में इसके लिए कानूनों में जरूरी बदलाव शुरू हुए।

उम्मीद थी कि चीनी व्यवस्था धीरे-धीरे लोकतांत्रिक बनेगी, पर 2017 के चुनाव के तीन साल पहले हांगकांग को लोकतांत्रिक अधिकार देने की जो पेशकश की गई, वे नागरिकों को अपर्याप्त लगे। विरोध में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ जिसे अम्ब्रेला आंदोलन या 'ऑक्युपाई सेंट्रल' नाम दिया गया। आंदोलनकारी पीले रंग के बैंड और छाते अपने साथ लेकर आए थे। इसलिए इसका नाम 'यलो अम्ब्रेला प्रोटेस्ट' रखा गया। सितम्बर, 2014 में हांगकांग के छात्रों ने कक्षाओं का बहिष्कार करके इसकी शुरुआत की, पर वह आंदोलन कमजोर पड़ गया। इसे नागरिकों के बड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिल पाया।

उस आंदोलन की विफलता से चीन सरकार के हौसले बढ़े हैं, पर इसबार आंदोलन का जो स्वरूप है, वह जबर्दस्त है। करीब बीस लाख लोगों का सड़कों पर उतरना मामूली बात नहीं है। समूची आबादी के एक चौथाई से ज्यादा। जनता के इस भारी रोष से घबरा कर कैरी लाम मेनलैंड चीन के अधिकारियों से मिलने शेंजेन गईं और वहाँ से निर्देश लेकर वापस लौटीं। उनपर न केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है, साथ ही प्रशासन की साख बनाए रखने का जिम्मा भी है। सन 2014 के आंदोलन के बाद चीन ने कैरी लाम का इस्तेमाल ढाल की तरह किया है। नागरिकों के बीच उनकी छवि अच्छी रही है।

मेनलैंड चीन के व्यापारियों की परेशानी यह है कि वे हांगकांग की व्यवस्था में गिफ्ट और घूस देकर वैसे ही काम नहीं करा पा रहे हैं, जैसे मेनलैंड चीन में हो जाता था। इस वजह से हांगकांग के कानून में से कई तरह के अपराधों को सूची से हटाया गया। सन 1997 में जब हांगकांग को चीन के अधीन किया गया था, तब वायदा किया गया था कि अगले पचास साल यानी कि 2047 तक हांगकांग को न्यायिक स्वायत्तता मिलती रहेगी। पर लोकतंत्र समर्थकों को इस बात से निराशा है कि चीन सरकार धीरे-धीरे इसे निरंकुश व्यवस्था में तब्दील करती जा रही है।

परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं

चीनी न्याय-व्यवस्था और हांगकांग की व्यवस्था में जमीन-आसमान का फर्क है। चीनी व्यवस्था में तमाम गोपनीय बातें हैं, जिनका विवरण जनता को नहीं दिया जाता, जबकि हांगकांग की व्यवस्था ब्रिटिश मॉडल पर तैयार हुई है। हांगकांग-वासियों को डर है कि वह दिन आ सकता है, जब उन्हें फेसबुक पोस्ट के लिए भी गिरफ्तार करके चीन भेजा जा सकता है। इन दिनों जो माहौल है उससे कुछ-कुछ मिलता-जुलता माहौल 2003 में बन गया था, जब यहाँ एक नया कानून लाया जा रहा था, जिसके अनुसार चीनी जनवादी गणराज्य (पीआरसी) के प्रति विरोध को देशद्रोह का अपराध घोषित किया गया था। उस वक्त जनता के विरोध के कारण वह कानून वापस लेना पड़ा और तत्कालीन चीफ एक्जीक्यूटिव को इस्तीफा देना पड़ा।

चीन यदि उदारवादी लोकतांत्रिक देश होता तो हांगकांग का उसमें विलय सहज बात होती। पर समस्या चीन की व्यवस्था में है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपने महान होने का भ्रम भी है। उसे हांगकांग के नागरिकों की बातें समझ में नहीं आएंगी। लगभग यही स्थिति ताइवान के साथ है। वह ताइवान को भी अपने अधीन चाहती है। हांगकांग के मुकाबले ताइवान कहीं बड़ा है। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने इस साल जनवरी में ताइवान के लोगों से कहा कि उनका हर हाल में चीन के साथ 'एकीकरण' होकर रहेगा। चीन मानता है कि ताइवान उसका टूटा हुआ हिस्सा है।



अमेरिका और चीन के करेंसी युद्ध का खतरा

इधर हांगकांग का आंदोलन चल रहा है उधर चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी मामलों को लेकर संग्राम छिड़ा हुआ है। पिछले सप्ताह अमेरिका ने चीन को ‘करेंसी धोखेबाज’ (करेंसी मैनिपुलेटर) घोषित किया है। हाल में पीपुल्स बैंक और चाइना ने डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा युआन को कमजोर कर दिया है। ग्यारह साल पहले सन 2008 में मुद्रा का जो स्तर उस स्तर तक उसका अवमूल्यन कर दिया गया है। इससे चीनी माल की कीमत काफी कम हो गई है, जिससे अमेरिका को होने वाला उसका निर्यात बढ़ सकता है और अमेरिका द्वारा बढ़ाए गए टैक्स का असर कम हो जाएगा।

हालांकि अमेरिकी फैसले से चीन के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकेगी, पर भविष्य में किसी किस्म का प्रतिबंध लगाने के लिए इस फैसले को भी उधृत किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी अमेरिका अपनी आपत्तियाँ दर्ज करा सकता है। अमेरिका का कदम एक माने में प्रतीकात्मक ही है, पर इससे दोनों देशों के बीच बढ़ रही कड़वाहट का प्रदर्शन जरूर होता है।

मुद्रा का अवमूल्यन अक्सर देश अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए करते रहे हैं। इसके लिए देश का केंद्रीय बैंक मुद्रा बाजार में अपनी मुद्रा की सप्लाई बढ़ा देता है। चीन को इसकी जरूरत यों भी अपने गिरते विदेश-व्यापार को संभालने के लिए है। इस साल जुलाई में उसकी संवृद्धि दर 6.2 फीसदी हो गई थी, जो पिछले 27 साल में सबसे कम है। यों भी चीनी अर्थव्यवस्था काफी हद तक निर्यात पर आश्रित है। इसलिए युआन का कमजोर होना इस वक्त जरूरी था।

सवाल है कि क्या अमेरिका भी डॉलर की कीमत कम करने की कोशिश करेगा। दोनों देशों के केंद्रीय बैंकों की कार्य पद्धतियाँ अलग हैं। फिर भी अमेरिका डॉलर की कीमत कम करने पर विचार कर सकता है। पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ट्रंप ने ऐसी इच्छा व्यक्त भी की है, पर अमेरिका का फेडरल बैंक क्या उनकी सुनेगा? पिछले 90 साल से दुनिया ने करेंसी-युद्ध का नाम नहीं सुना है। पिछली सदी में 1930 के दशक में जब वैश्विक मंदी आ रही थी, तब तमाम देशों ने अपनी मुद्रा की कीमत कम करने के प्रयास किए थे। इसके कारण विश्व बाजार में अराजकता का माहौल पैदा हो गया था। क्या अब फिर से दुनिया उसी राह पर जाएगी?

खत्म होने वाला है कारों का ज़माना

भारत के शहरों के लिए एक खास खबर है। ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने अपने ताजा अंक में यूरोप में कार-युग का पराभव पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यूरोप के शहरों में कारों की संख्या कम हो रही है और साइकिलों और खासतौर से इलेक्ट्रिक स्कूटरों की संख्या बढ़ रही है। नए ‘साइकिल हाइवे’ बनाए जा रहे हैं, नगरपालिकाएं शहरों में स्पीड लिमिट कम करती जा रही हैं, कार-फ्री डे मनाए जा रहे हैं, पैदल चलने वालों के लिए अलग से रास्ते बनाए जा रहे हैं और कार पार्किंग की जगह साइकिल पार्किंग बनाए जा रहे हैं। दिल्ली के बहुत से नव-दौलतियों के लिए यह अच्छा चलन नहीं है। लम्बी कार खरीद कर वे कम से कम अपनी दौलत का प्रदर्शन तो कर लेते हैं। अलबत्ता सड़कों की दशा देखकर उन्हें भी गश आ जाता होगा। आज नहीं आता तो अगले कुछ वर्षों में आने लगेगा।

दुनिया के अनेक ऐतिहासिक शहरों में कार-विहीन परिवहन की व्यवस्था की जा रही है। वेनिस शहर इसका बेहतरीन उदाहरण है। इकोनॉमिस्ट ने बेल्जियम के एंटवर्प शहर के कार-मुक्त क्षेत्र का विवरण दिया है, जो आधुनिक नगर-नियोजकों की योजनाओं के कारण यूरोप के दूसरे बड़े शहरों की तरह ट्रैफिक जामों का शिकार हो गया था। अब वहाँ का मुख्य बाजार मीर कार-फ्री है। पिछले एक दशक में इस शहर में साइकिल लेन बनाई गई हैं, पैदल चलने वालों के लिए रास्ते बनाए गए हैं और परिवहन की पाबंदियाँ लगाई गई हैं। जगह-जगह बाइक और स्कूटरों को किराए पर देने वाले स्टैंड खड़े हो गए हैं। सड़कों पर अब बच्चों की किलकारियाँ सुनाई पड़ने लगी हैं।

ऐसा नहीं कि कारें ही समस्या हैं। इलेक्ट्रिक स्कूटरों ने अराजकता भी फैलाई है। पेरिस में एक ग्रुप उनके खिलाफ भी खड़ा हो गया है। उनके आवागमन और पार्किंग को लेकर नियमों को कड़ा करने की मांग हो रही है, पर वे जगह कम लेते हैं। आसानी से कहीं भी खड़े किए जा सकते हैं। सार्वजनिक परिवहन के बस स्टैंडों और मेट्रो स्टेशनों से फाइनल मील पार करने के लिए किराए की साइकिलें उपलब्ध हैं। बेशक निजी कार के अपने फायदे हैं, पर नुकसान भी कम नहीं हैं। यूरोप के शहरों ने पिछले एक दशक में कार फ्री क्षेत्र बनाने के प्रयोग किए हैं, जिनमें वे सफल रहे हैं। भारत के शहरों को भी उनसे सीखना होगा। कम से कम दिल्ली के चाँदनी चौक और लखनऊ के अमीनाबाद जैसे इलाकों को कार-मुक्त करना ही चाहिए।



1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 24वीं पुण्यतिथि - सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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