कांग्रेस पार्टी कर्नाटक
के पचड़े और राहुल गांधी के इस्तीफे के कारण पैदा हुए संकट से बाहर निकली भी नहीं
थी कि अनुच्छेद 370 को लेकर विवाद पैदा हो गया है। यह विवाद पार्टी के भीतर का
मामला है और एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रश्न पर पार्टी के भीतर से निकल रहे दो प्रकार
के स्वरों को व्यक्त कर रहा है। एक मायने में इसे अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण कहा जा
सकता है, क्योंकि मतभेद होना कोई गलत बात तो नहीं। अलबत्ता कांग्रेस की परम्परा,
नेतृत्व शैली और आंतरिक संरचना को देखते हुए यह अटपटा है।
पिछले सोमवार को अनुच्छेद
370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिली स्वायत्तता को समाप्त करने का समाचार मिलने के
बाद पूर्व सांसद जनार्दन द्विवेदी ने जब राम मनोहर लोहिया को उधृत करते हुए अपना
समर्थन व्यक्त किया, तो इसमें ज्यादा हैरत नहीं हुई। द्विवेदी इस वक्त अपेक्षाकृत
हाशिए पर हैं और इससे पहले आरक्षण को लेकर अपनी स्वतंत्र राय व्यक्त कर चुके हैं।
हैरत ज्योतिरादित्य सिंधिया के ट्वीट पर हुई, जिसमें उन्होंने कहा, मैं
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को लेकर किए गए फैसले का समर्थन करता हूं। साथ ही भारत में
इसके पूर्ण एकीकरण का भी समर्थन करता हूं।
अनेक असहमतियाँ
उन्होंने लिखा कि बेहतर
होता कि सांविधानिक प्रक्रिया का पालन किया जाता, तब इस मामले पर कोई भी सवाल नहीं
उठाया जा सकता था। फिर भी, यह हमारे देश के हित में
है और मैं इसका समर्थन करता हूं। सिंधियाजी राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं और
यह बात हवा में है कि पार्टी अध्यक्ष के सम्भावित उम्मीदवारों में उनका नाम भी है।
उनसे पहले मिलिंद देवड़ा, अनिल शास्त्री और दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी करीब-करीब
ऐसी ही राय व्यक्त की थी।
इसके पहले राज्यसभा में पार्टी
के सचेतक भुवनेश्वर कलिता ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि इस मुद्दे पर मेरी
अलग राय है। उत्तर प्रदेश की एक विधायक अदिति सिंह ने भी पार्टी लाइन से हटकर अपने
विचार व्यक्त किए। वे भी राहुल गांधी की करीबी मानी जाती हैं। सबसे ज्यादा विस्मय
डॉ कर्ण सिंह की बात पर हुआ। उन्होंने भी
इस मसले पर सरकार के फैसले का समर्थन किया। डॉ कर्ण सिंह का प्रतीकात्मक महत्व भी
है, क्योंकि वे जम्मू-कश्मीर के पूर्व नरेश महाराजा हरि सिंह के पुत्र हैं।
बढ़ता असमंजस
इस मामले में व्यक्तिगत
राय से ज्यादा दो बातें ध्यान खींच रही हैं। पहली यह कि पार्टी अनुच्छेद 370 को
लेकर कोई निश्चित राय नहीं बना पाई है। कश्मीर घाटी में वह गुलाम नबी आजाद जैसे
नेताओं के भरोसे है। शीर्ष स्तर पर पी चिदंबरम ने कड़ा रुख अख्तियार किया है, पर शेष
देश में कार्यकर्ता अपनी-अपनी पतंगें उड़ा रहे हैं। दूसरे, इस असमंजस को दूर करने के
लिए पार्टी कार्यसमिति की बैठक मंगलवार को हुई, जिसमें एक प्रस्ताव पास किया गया।
इस प्रस्ताव में 370 पर राय व्यक्त करने से ज्यादा इस बात पर जोर दिया गया कि
सरकार ने इसे हटाने में पूरी प्रक्रिया को नहीं अपनाया और कश्मीरियों को भरोसे में
नहीं लिया।
राहुल गांधी के इस्तीफे
के बाद से पार्टी में असमंजस बढ़ता जा रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पार्टी फौरन
कोई फैसला करती, पर लगता यह है कि उसे टाला जा रहा है। पहले कहा गया था कि संसद के
सत्रावसान के बाद कार्यसमिति की बैठक में इस सवाल पर विचार किया जाएगा। बैठक हुई
भी तो वह 370 में उलझ कर रह गई। अब आज (10 अगस्त को) कार्यसमिति की बैठक में
नेतृत्व के सवाल पर बात होगी।
विचारधारा का सवाल
संयोग से समय की धारा ने
पार्टी को ऐसे किनारे पर ला पटका है, जहाँ से उसे अपने गंतव्य को फिर से तलाशना
है। अनुच्छेद 370 की कसौटी पर उसकी परीक्षा होने वाली है, क्योंकि मोदी सरकार की
भी यह सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी है। मोदी सरकार यदि इस परीक्षा को पार कर गई, तो
उसे पकड़ पाना आसान नहीं होगा। सवाल है कि कांग्रेस क्या करे? पुरानी पीढ़ी के नेता 370 को नेहरू की ‘पवित्र देन’ मानते हुए उसके विरोध में जाने से
घबरा रहे हैं, पर नई पीढ़ी के नेताओं को अपने चुनाव क्षेत्र की फिक्र है। उनपर
जनमत का दबाव है।
सवाल केवल कश्मीर का
नहीं, नए भारत का है। असल समस्या उस नैरेटिव की है, जिसे कांग्रेस स्पष्ट नहीं कर
पा रही है। वह कैसा भारत बनाना चाहती है? उसका वोटर कौन है? वह किस इलाके के वोटर को
अपनी तरफ खींचना चाहती है और कैसे? नई पीढ़ी के नेता
और कार्यकर्ता पार्टी के परम्परागत तौर-तरीकों के कायल नहीं हैं और नए तौर-तरीके
परिभाषित नहीं हैं। सबसे बड़ी बात कि अब नेहरू-गांधी परिवार का करिश्मा भी काम
नहीं कर रहा है।
विचार-मंथन का मौका
बहरहाल यह संकट कांग्रेस
पार्टी को उस खोज को पूरा करने का मौका दे रहा है। उसके पास विमर्श का एक अवसर है।
अनुच्छेद 370 के बहाने पार्टी के भीतर जो असहमतियाँ व्यक्त हुई हैं, उनकी
सकारात्मक भूमिका भी हो सकती है, बशर्ते पार्टी इस मौके का लाभ उठाए। यह एक प्रकार
से पार्टी के भीतर उस अंतर्मंथन की शुरूआती भी साबित हो सकती है, जिसकी जरूरत अरसे
से महसूस की जा रही है।
कांग्रेस अब उन्हीं
तौर-तरीकों के सहारे नहीं चल सकती, जो लम्बे अरसे से अपनाए जा रहे हैं। उन तरीकों
की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है। उसे नए मुहावरों, नए विचारों और नए कार्यक्रमों
की जरूरत है। पार्टी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर किसी नए नेता की तलाश कर रही है,
तो उसे यह भी देखना होगा कि उस नेता के पास नए विचार भी हों। यानी कि उसे नेता और
कार्यक्रम दोनों में नयापन चाहिए। यह तलाश आसान नहीं है, पर पार्टी को बने रहना
है, तो यह तलाश करनी होगी। आज यह बताने की स्थिति में कोई नहीं है कि रास्ता क्या
होगा। पर जब आप इसी इरादे से मिलकर बैठेंगे, तो कौन जाने रास्ता भी नजर आने लगे।
पार्टी को जनता के मन को
पढ़ना चाहिए। वह बहुसंख्यक समुदाय को कोसकर सफल नहीं हो सकती। चलना तो उसके साथ ही
होगा। अतीत में भी कांग्रेस जब जनांदोलन के रूप में संगठित थी, तब वह बहुसंख्यक
समुदाय को साथ लेकर चलती थी। बहुसंख्यक समुदाय संकीर्ण, नासमझ और अन्यायी नहीं है।
आपने उसे समझने में गलती की है। पहले उसे भरोसे में लीजिए। उसके लिए जनता के भीतर
से ही नेता निकलेंगे, जैसे अतीत में निकले थे।
यह भी सच है कि
सत्ता-विहीन राजनीतिक दलों का अस्तित्व बचा पाना सम्भव नहीं होता। चुनाव जीतना
पहला काम है। कार्यकर्ता भी उसी पार्टी के पास जाते हैं, जो सत्ता में होती है। पर
सत्ता में वही पार्टी होती है, जो जनता के मन को जीत पाती है। यह एक चक्र है। आने
वाले समय में भारतीय राजनीति में यह चक्र चलता रहेगा। जरूरी नहीं है कि कोई एक
पार्टी हमेशा सत्ता में रहे। सत्तर के दशक की शुरुआत में लगता था कि भारत में
दूसरी पार्टी का खड़ा होना सम्भव ही नहीं, पर देखते ही देखते कहानी बदल गई।
पार्टी का स्टैंड
अनुच्छेद 370 केवल
जम्मू-कश्मीर का सवाल नहीं है। अलग-अलग कारणों से पूरे देश की दिलचस्पी उसमें है। उसे
हमारी व्यवस्था ने ही लागू किया था। उसे हटाना है या नहीं हटाना यह हमारे बीच की
बहस है। पर लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने जिस बचकाने तरीके से राज्य
की स्वायत्तता, संयुक्त राष्ट्र की भूमिका और विवाद की प्रकृति को लेकर बातें
कहीं, उनसे उनके होमवर्क के स्तर की जानकारी मिलती है।
राज्यसभा में भुवनेश्वर
कलिता ने पार्टी के स्टैंड को ‘आत्मघाती’ घोषित किया था। उधर पी
चिदंबरम कह रहे थे, ‘आज का दिन भारत के
सांविधानिक इतिहास का सबसे काला दिन है।’ पता सिर्फ इतना करना है कि देश की जनता इन दोनों बयानों में से किसके साथ
खड़ी है। सच यह है कि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है, फिर भी
जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पास हो गया। यह सिर्फ बीजेपी का राजनीतिक कौशल
ही नहीं था।
परीक्षा अभी बाकी है।
कश्मीर बंद है, पर वह धीरे-धीरे खुलेगा। देखना होगा कि स्थानीय और राष्ट्रीय
राजनीति का रुख क्या होने वाला है। पीडीपी के सांसद ने संविधान की प्रति फाड़कर
अपनी समझ का परिचय दे दिया है। पत्थर मार आंदोलन फिर शुरू हुआ और अराजकता फिर पैदा
हुई, तो भारतीय वोटर की प्रतिक्रिया भी होगी। कांग्रेस को अपना रुख तय करना होगा। सब
कुछ एकतरफा नहीं है। नब्बे के दशक के पहले और बाद के हालात एक जैसे नहीं हैं। ऐसा
नहीं कि कांग्रेस के भीतर इस बात को समझने वाले नेता नहीं हैं। कांग्रेस को देश की
भावना को समझना चाहिए।
जम्मू-कश्मीर का भारत में
विलय एक वास्तविकता है और उसे लेकर हमारे बीच कोई विवाद नहीं है। हम जम्मू-कश्मीर
को विवादास्पद नहीं मानते। पाकिस्तान ने एक बड़े इलाके पर गैर-कानूनी कब्जा कर रखा
है, विवाद उसका है। हमारी संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से
प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का
अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना
होगा।
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