भारतीय जनता पार्टी के सबसे सौम्य और लोकप्रिय चेहरों में निश्चित रूप से अरुण
जेटली को शामिल किया जा सकता है, पर वे केवल चेहरा ही नहीं थे. वैचारिक स्तर पर
उनकी जो भूमिका थी, उसे झुठलाया नहीं जा सकता. पार्टी और खासतौर से नेतृत्व के
नजरिए से देखें, तो यह मानना पड़ेगा कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर
स्वीकृति दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका उनकी रही. हालांकि उनके राजनीतिक जीवन का
काफी लम्बा समय नरेंद्र मोदी की राजनीति से पृथक रहा, पर कुछ महत्वपूर्ण अवसरों पर
उन्होंने निर्णायक भूमिका अदा की. दुर्भाग्य से उनका देहावसान असमय हो गया, अन्यथा
उनके सामने एक बेहतर समय आने वाला था.
सन 2002 में गुजरात के दंगे जब हुए, तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने ही बने
थे. उनके पास प्रशासनिक अनुभव बहुत कम था. दंगों के कारण उत्पन्न हुई बदमज़गी के
कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मोदी
को ‘राजधर्म’ का निर्वाह करना चाहिए. यह एक प्रकार से नकारात्मक
टिप्पणी थी. पर्यवेक्षकों का कहना है कि अटल जी चाहते थे कि मोदी मुख्यमंत्री पद
छोड़ दें, क्योंकि गुजरात के कारण पार्टी की नकारात्मक छवि बन रही थी. मोदी के
समर्थन में लालकृष्ण आडवाणी थे, पर लगता था कि वे अटल जी को समझा नहीं पाएंगे.
नरेंद्र मोदी का व्यावहारिक राजनीतिक जीवन तब शुरू हुआ ही था. हालांकि वे
संगठन के स्तर पर काफी काम कर चुके थे, पर प्राशासनिक स्तर पर उनका अनुभव कम था.
उनकी स्थिति जटिल हो चुकी थी. यदि वे इस तरह से हटे, तो अंदेशा यही था कि समय की
धारा में वे पिछड़ जाएंगे. ऐसे वक्त पर अरुण जेटली ने मोदी का साथ दिया. बताते हैं
कि वे वाजपेयी जी को समझाने में न केवल कामयाब रहे, बल्कि मोदी के महत्वपूर्ण
सलाहकार बनकर उभरे. वे अंतिम समय तक नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी सलाहकारों में से
एक रहे.
इसके बाद सन 2007 के विधानसभा चुनाव में मोदी की परीक्षा थी, क्योंकि मोदी
सरकार पर गुजरात के दंगों का दाग था. कोई नहीं कह सकता था कि परिणाम क्या होगा.
दिल्ली में यूपीए की सरकार आ चुकी थी. सोनिया गांधी ने अपने प्रचार की शुरुआत मोदी
को ‘मौत का सौदागर’ बताकर की थी. ऐसे मौके पर अरुण
जेटली ने मोदी को सलाहकार की भूमिका अदा की और राज्य के एक-एक विधानसभा क्षेत्र के
लिए रणनीति तैयार की. उस चुनाव में मोदी की न केवल जीत हुई, बल्कि वे सफल राजनेता
के रूप में उभर कर आए.
नरेंद्र मोदी की छवि ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के नायक के बजाय विकास और कुशल प्रशासन के नायक के
रूप में स्थापित करने में सबसे बड़ी भूमिका थी अरुण जेटली की. उन्होंने कहा कि
मोदी के पास ही विलक्षण निर्णय क्षमता और परिवर्तनकारी ऊर्जा है. सन 2007 में
गुजरात की उस विजय के बावजूद केंद्रीय स्तर पर पार्टी असमंजस में थी. सन 2008 में
वाममोर्चा ने यूपीए से समर्थन वापस ले लिया. लोकसभा में उस वक्त आडवाणी जी ने
पार्टी का नेतृत्व किया, पर उनका प्रभाव कम हो रहा था. उसके पहले जिन्ना वाली
टिप्पणियों के कारण आडवाणी जी को आलोचना का सामना करना पड़ा था.
सन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपेक्षित
सफलता नहीं मिल पाई थी. पार्टी को केंद्रीय स्तर पर नेता की तलाश थी. आडवाणी जी का
प्रभा मंडल क्रमशः फीका पड़ रहा था. यों भी उनकी उम्र ज्यादा थी, उनके स्थान पर
किसी कम उम्र नेता की जरूरत थी. सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और
वेंकैया नायडू के नाम सामने थे. मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह
चौहान भी बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे. ऐसे वक्त में अरुण जेटली में दृश्य के
पीछे रहकर नरेंद्र मोदी के नाम को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
वह दौर महत्वपूर्ण था. सन 2010 में मोदी के विश्वस्त
सहयोगी अमित शाह पर संकट की छाया थी. उनके गुजरात प्रवेश पर कानूनी रोक लग गई थी.
ऐसे मौके पर अरुण जेटली ने उन्हें कानूनी सलाह देकर मदद की. सन 2013 में मोदी को
प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें बीजेपी का संकट मोचक माना जाता था. मोदी सरकार के पहले दौर में ऐसे
तमाम मौके आए, जब पार्टी की स्थिति नाजुक हो गई. ऐसे में वे सामने आकर खड़े हुए और
पार्टी को संकट से बचाया.
निःसंकोच कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को हर तरह के मामलों में उनका सहारा
था. यह उनकी ही अवधारणा थी कि एक समय आएगा, जब बीजेपी पूरी तरह से कांग्रेस का
स्थान ले लेगी. राज्यसभा में अल्पमत होने के कारण सरकार के सामने जीएसटी और
दिवालिया कानून को पास कराने की चुनौती थी, जिसपर पार पाने में जेटली को सफलता
हासिल हुई. ये दो कानून आने वाले समय में मोदी सरकार की सफलता के सूत्रधार बनेंगे.
खासतौर से जीएसटी को लेकर जेटली ने विभिन्न राज्य सरकारों को (खासतौर से
जम्मू-कश्मीर को) जितने धैर्य और भरोसे के साथ आश्वस्त किया वह साधारण बात नहीं है.
इस साल मई में जब नई सरकार का गठन हो रहा था, अरुण जेटली ने जब कुछ समय के लिए
कोई सरकारी पद लेने में असमर्थता व्यक्त की थी, तभी समझ में आ गया था कि स्वास्थ्य
को लेकर उनकी समस्या गंभीर है. बीजेपी और कांग्रेस के बीच जब भी महत्वपूर्ण मसलों
पर बहस चली, जेटली ने पार्टी का वैचारिक पक्ष बहुत अच्छे तरीके से रखा.
मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने न केवल वित्तमंत्री का पद संभाला, बल्कि
जरूरत पड़ने पर रक्षा और सूचना-प्रसारण मंत्रालय की बागडोर भी थामी. वे अटल बिहारी
वाजपेयी की सरकार में भी मंत्री रहे. उन्होंने वाणिज्य और उद्योग, विधि, कम्पनी
कार्य तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय संभाले. वे सन 2009 से 2014 तक राज्यसभा में
विपक्ष के नेता भी रहे. पर प्रशासनिक रूप से उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका
वित्तमंत्री के रूप में रही.
वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने ने कुछ ऐसे कदम उठाए, जिनके दूरगामी परिणाम
होंगे. इनमें पहला बड़ा काम है मौद्रिक नीति कमेटी की स्थापना. यह समिति देश में
ब्याज की दरें तय करने का काम करती है. यह समिति देश में मुद्रास्फीति की न्यूनतम
और अधिकतम सीमा भी तय करती है. इसकी स्थापना सन 2016 में हुई थी, जिसका पूरा श्रेय
अरुण जेटली को जाता है.
वित्तमंत्री के रूप में उनकी दूसरी उपलब्धि है दिवालिया कानून यानी कि
इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड. देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों के कर्जों की वसूली
नहीं हो पाने की विकराल समस्या सामने आई. भारत में वर्ष 2016 से पहले ऐसा कोई अकेला कानून नहीं था जो
'इनसॉल्वेंसी एवं बैंकरप्सी' को एक साथ परिभाषित करता हो. पहले इसे परिभाषित
करने के लिए 12 कानूनों का इस्तेमाल किया जाता था, जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी
अधिक पुराने हो चुके थे. नया कानून लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी
और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा.
उनकी तीसरी उपलब्धि है
गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) विधेयक को संसद से पास कराना और उसे लागू भी
कराना. इसे संविधान संशोधन अधिनियम 2017 के रूप में पेश किया गया था. इसे पास
कराने के लिए एक तरफ कांग्रेस समेत सभी विरोधी दलों को भरोसे में लिया गया और इसके
लागू होने के बाद इससे जुड़े अंतर्विरोधों का सामना अरुण जेटली ने किया. इस कानून
से जुड़ी तमाम झूठी-सच्ची बातें आज भी हवा में हैं, पर सच यह है कि देश में टैक्स
सुधार की यह अबतक की सबसे बड़ी कोशिश है.
देश के आर्थिक विकास में एक बड़ा अड़ंगा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रास्ते में
लगी रुकावटों के कारण है. जेटली को उन रुकावटों को कम करने और प्रत्यक्ष विदेशी
पूँजी निवेश को बढ़ाने से जुड़ी नीतियों की रूपरेखा तैयार करने का श्रेय जाता है.
इसमें फॉरेन इनवेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड की समाप्ति एक बड़ा कदम है. मई, 2017 में केंद्रीय कैबिनेट ने 25
साल पुराने विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफआईपीबी) को खत्म करने का फैसला किया. इससे विदेशी पूँजी निवेश के प्रस्तावों पर फैसला जल्द हो सकेगा.
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