भारतीय राष्ट्र राज्य के
लिए इतना बड़ा फैसला पिछले कई दशकों में नहीं हुआ है। सरकार ने बड़ा जोखिम उठाया
है। इसके वास्तविक निहितार्थ सामने आने में समय लगेगा। फिलहाल लगता है कि सरकार ने
प्रशासनिक और सैनिक स्तर पर इतनी पक्की व्यवस्थाएं कर रखी हैं कि सब कुछ काबू में
रहेगा। अलबत्ता तीन बातों का इंतजार करना होगा। सरकार के इस फैसले को अदालत में
चुनौती दी जाएगी। हालांकि सरकार ने सांविधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत ही फैसला
किया है, पर उसे अभी न्यायिक समीक्षा को भी पार करना होगा। खासतौर से इस बात की
व्याख्या अदालत से ही होगी कि केंद्र को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार है या
नहीं। इस फैसले के राजनीतिक निहितार्थों का इंतजार भी करना होगा। और तीसरे राज्य
की व्यवस्था को सामान्य बनाना होगा। घाटी के नागरिकों की पहली प्रतिक्रिया का
अनुमान सबको है, पर बहुत सी बातें अब भी स्पष्ट नहीं हैं। इन तीन बातों के अलावा
अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपने नजरिए से परिचित कराने की चुनौती है। सबसे ज्यादा
पाकिस्तानी लश्करों की गतिविधियों पर नजर रखने की जरूरत है।
सोमवार को कैबिनेट ने
पहले अनुच्छेद 370 में अंतर्निहित एक विशेष उपबंध के तहत भारत के संविधान को पूरी तरह
से जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू करने का फैसला किया। यह एक अस्थायी उपबंध था, जिसे
एक न एक दिन हटना ही था। इसके साथ गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में संकल्प पेश करके राज्य के पुनर्गठन का
प्रस्ताव किया। अब जम्मू कश्मीर और लद्दाख के दो केंद्र शासित क्षेत्र बनाए
जाएंगे। जम्मू कश्मीर की विधानसभा भी होगी, जबकि लद्दाख बिना विधानसभा वाला
केंद्रशासित क्षेत्र होगा। यानी कि जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित क्षेत्र का स्तर
दिल्ली और पुदुच्चेरी जैसा होगा।
अमित शाह ने कहा कि 1950
और 1960 के दशकों में तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने इसी तरीके से अनुच्छेद 370 में
संशोधन किया था। हमने भी यही तरीका अपनाया है। सारा काम बहुत तेजी से हुआ, जबतक
देश को इन फैसलों की जानकारी मिलती अनुच्छेद 370 को खत्म करने वाले राजपत्र पर राष्ट्रपति
के हस्ताक्षर हो चुके थे। कांग्रेस और कुछ विरोधी दलों ने इस प्रस्ताव का विरोध
किया है। शायद उन्होंने इसके राजनीतिक निहितार्थ पर विचार नहीं किया है।
इस फैसले के गहरे
राजनीतिक निहितार्थ हैं। जम्मू-कश्मीर का दर्जा केंद्र शासित क्षेत्र का होगा, पर
उसकी विधानसभा भी होगी। पर विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के बाद हालात बदल
जाएंगे। अभी तक विधानसभा में घाटी का बोलबाला है, बावजूद इसके कि जनसंख्या का वृहत्तर
हिस्सा जम्मू क्षेत्र में रहता है। इस फैसले के दूरगामी परिणाम होने वाले
हैं। हमें उसके राजनीतिक निहितार्थ का इंतजार करना होगा।
सबसे महत्वपूर्ण है
कांग्रेसी प्रतिक्रिया। क्या वह राष्ट्रीय जनमत से मेल खाती है? कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में
कहा कि कश्मीर की जनता ने भारत के संविधान पर भरोसा किया। भारत की धर्मनिरपेक्षता
पर भरोसा किया। सरकार ने उस भरोसे को तोड़ा है। क्या देश की जनता को गुलाम नबी से
सहमत है? क्या जनता अनुच्छेद 370
को बनाए रखना चाहती है? इस बात पर जनता
की राय लेने के पहले उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से भी पूछना चाहिए।
अब हमें कश्मीर में चल
रहे असंतोष आंदोलन की तार्किक परिणति को भी देखना होगा। क्या वजह है कि पिछले तीन
दशक से वहाँ हिंसा का दौर चल रहा है? भारत-विरोधी गतिविधियाँ चरम पर हैं। पाकिस्तान-परस्त संगठन नौजवानों को हथियार
उठाने की प्रेरणा दे रहे हैं। इन गतिविधियों के खिलाफ क्या देश के दूसरे इलाकों
में प्रतिक्रिया नहीं होगी?
बेशक इस फैसले से न तो
आतंकवादी खत्म हो जाएंगे और न पाकिस्तान-प्रायोजित छद्म युद्ध रुकेगा, पर अब लड़ाई
आमने-सामने की होगी। अब तक दुश्मन हमारी ही छतरी की आड़ में हमसे ही लड़ रहा था। जम्मू-कश्मीर
को विशेष सांविधानिक उपबंधों का जो सहारा मिला हुआ था, वह हमारे शरीर पर घाव पैदा
कर रहा था। जो लोग घाटी में चल रहे आंदोलन को सामान्य लोकतांत्रिक विरोध की संज्ञा
दे रहे हैं, वे धोखा दे रहे हैं।
सरकार के इस फैसले के बाद
अब नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की परीक्षा है, जो घाटी के मुख्य राजनीतिक दल हैं।
फिलहाल उनके सामने विरोध प्रकट करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है, पर उन्हें जल्द
से जल्द बदले हुए हालात के मुताबिक अपनी रणनीति बनानी होगी। कांग्रेस मानती है कि
अनुच्छेद 370 ने कश्मीर को देश के साथ जोड़कर रखा, जबकि व्यावहारिक स्थिति यह है
कि इसने लगातार देश को कश्मीर से जुड़ने नहीं दिया। संविधान में इसे 1949 में
जोड़ा गया था, जबकि विलय 1947 में ही हो गया था।
कश्मीर को इस हाल तक
पहुँचाने में हुर्रियत जैसे संगठनों की बड़ी भूमिका है, जिन्हें पाकिस्तानी फौजी
संगठन आईएसआई से मदद मिलती है। अब उनपर भी नकेल डाली गई है। पाकिस्तान से आने वाले
धन पर भी रोक लगी है। इसका प्रभाव देखा जा सकता है। पिछले कई महीनों से पत्थर मार
गिरोहों की हरकतें कम हुई हैं।
कश्मीर की राजनीति अब
उन्हीं तौर-तरीकों पर नहीं चलेगी, जिनपर चल रही थी। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की
जिम्मेदारी है कि वे कश्मीरी जनता को भारत के साथ जोड़ते। वे इसमें विफल रहे हैं।
उनके तौर-तरीके बदले नहीं तो बहुत जल्द दोनों पार्टियाँ इतिहास के कूड़ेदान में
होंगी। अमित शाह ने कहा कि अनुच्छेद 370 का सहारा लेकर तीन परिवारों ने सालों तक
जम्मू-कश्मीर को लूटा है। बीजेपी ने अनुच्छेद 370 के बारे में अपने कहे को पूरा
करके दिखाया है, पर यह केवल उसकी राजनीति का सवाल नहीं है। सवाल केवल 370 का नहीं
है, बल्कि इस इलाके के अमन-चैन का है।
इस वक्त कश्मीर की
राजनीति से ज्यादा महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता का सवाल है। पिछले 72
साल से कश्मीर नासूर की तरह समस्या बना हुआ है। उसका कोई समाधान होना चाहिए। कोई
नहीं चाहता कि निर्दोष नागरिक परेशान हों, पर पाकिस्तानी एजेंटों पर नकेल डालने की
जरूरत है। वे हिंसा का माहौल तैयार कर रहे हैं। यह जिम्मेदारी वहाँ के राजनीतिक
दलों की है कि वे राष्ट्रीय हितों के बारे में विचार करते।
पिछले साल जून में जब
कश्मीर में नागरिक सरकार टूटी तभी समझ में आ रहा था कि केंद्र सरकार किसी योजना पर
काम कर रही है। अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक
को राज्यपाल के रूप में लाया गया, तभी समझ में आ रहा था कि
कुछ होने वाला है। 51 साल बाद कश्मीर में इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई
थी। सन 1967 में कर्ण सिंह के हटने के बाद से राज्य में
नौकरशाहों, राजनयिकों,
पुलिस और फौज के
अफसर ही राज्यपाल बनते रहे हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 60 साल के हुए - पर्यावरण कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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