जैसे-जैसे कांग्रेस
पार्टी की कमजोरियाँ सामने आ रही हैं, वैसे-वैसे उसके भीतर से अंतर्विरोधी स्वर भी
उठ रहे हैं। अगस्त के पहले हफ्ते में अनुच्छेद 370 को लेकर यह बात खुलकर सामने आई
थी। नरेंद्र मोदी के प्रति ‘नफरत’ को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता
शशि थरूर ने जयराम रमेश और अभिषेक मनु सिंघवी की बातों का समर्थन करके पार्टी की
सबसे महत्वपूर्ण रणनीति पर सवालिया निशान लगाया है। सन 2007 के गुजरात विधान सभा चुनाव
में सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ बताते हुए इस रणनीति का
सूत्रपात किया था।
गुजरात-दंगों में मोदी की भूमिका
का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था, जिसके पीछे पार्टी का समर्थन कोई छिपी बात नहीं
थी। मोदी का अमेरिकी वीज़ा रद्द हुआ, तब भी कहीं न कहीं पार्टी का समर्थन भी था।
फिर अमित शाह की गिरफ्तारी हुई और उनके गुजरात प्रवेश पर रोक लगी। सारी बातें
व्यक्तिगत रंजिशों की याद दिला रही थीं। फिर जब 2013 में मोदी को बीजेपी ने
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया, तो सोशल मीडिया पर अघोषित युद्ध छिड़
गया।
कांग्रेस और बीजेपी की
प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है, पर मोदी के प्रति अलग किस्म की नफरत कांग्रेसी
नेतृत्व के मन में है। यह वैचारिक मतभेद से कुछ ज्यादा है। ऐसे में पार्टी के भीतर
से अलग स्वरों का सुनाई पड़ना कुछ सोचने को मजबूर करता है। एक पुस्तक विमोचन
समारोह में जयराम रमेश ने गुरुवार को कहा, मोदी के कार्यों को भी
देखना चाहिए, जिनकी वजह से वे मतदाताओं का समर्थन हासिल करके सत्ता हासिल कर पाए
हैं।
उन्होंने यह भी कहा, मोदी
ऐसी भाषा में बोलते हैं, जो उन्हें लोगों से जोड़ती है। जब तक हम इस बात को नहीं
समझेंगे कि किन बातों की वजह से लोग उन्हें पसंद करते हैं और कौन सी बातें हैं, जो
हम नहीं कर पाए हैं, तब तक हम उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे। हम उन्हें हमेशा
खलनायक की तरह पेश करेंगे, तो सफल नहीं होंगे। मैं किसी को प्रधानमंत्री की सराहना
करने के लिए नहीं कह रहा हूँ, बल्कि सिर्फ इतना चाहता हूँ
कि उनके कामों को पहचानें।
उनकी इस बात के अगले रोज
ही वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने ट्वीट किया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को
हमेशा बुरा कहना गलत है। मैंने हमेशा कहा कि मोदी को बुरा कहना गलत है…ऐसा करके
विपक्ष वास्तव में एक तरह से उनकी मदद करता है। काम हमेशा अच्छा, बुरा या सामान्य होता है-उसका मूल्यांकन व्यक्ति के आधार पर
नहीं, मुद्दों के आधार पर किया जाना चाहिए। निश्चित
रूप से, उज्ज्वला योजना उनके दूसरे अच्छे कामों में से
एक है।
इन दो नेताओं की बातें
लहरें पैदा कर रही थीं कि शशि थरूर का बयान आया, मैं छह साल से दलील दे रहा हूं कि
मोदी कोई सही काम करते हैं या सही बात कहते हैं, तब उनकी सराहना की जानी चाहिए। ताकि
जब वह कुछ गलत करें, और हम उनकी आलोचना करें तब उसकी विश्वसनीयता
रहे। मेरी बात की तब भर्त्सना की गई थी, जबकि विपक्ष के ही कुछ नेताओं ने मेरी बात
का स्वागत भी किया था।
वास्तव में शशि थरूर एक
अरसे से मौका पड़ने पर मोदी की तारीफ करते रहे हैं। सितंबर 2014 में संरा महासभा
में मोदी के भाषण की उन्होंने तारीफ की थी और कहा था कि उन्होंने पाकिस्तान को
करारा जवाब दिया है। उसी साल जून में उन्होंने एक अमेरिकी वैबसाइट से कहा कि मोदी
ने आधुनिकता और प्रगति समर्थक राजनेता की बनाई है। जुलाई 2015 में थरूर ने कहा
मोदी जब भी विदेश यात्रा पर जाते हैं, अपनी सकारात्मक छवि बनाकर आते हैं।
गौर से देखें तो शशि थरूर
ने मोदी की आलोचना भी की है और मौका लगने पर तारीफ भी। पर यह बात पार्टी के शीर्ष
नेतृत्व पर लागू नहीं होती। पार्टी नेतृत्व ने मोदी को दानव के रूप में ही पेश
किया है। इसबार भी इन तीन बयानों के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा,
विपक्ष की जिम्मेदारी होती है प्रधानमंत्री और सरकार की आलोचना करना। आलोचना को
विरूपण नहीं कहा जा सकता। विपक्ष तोते की तरह सरकार की तारीफ नहीं कर सकता।
कांग्रेस कार्यसमिति की
एक और नेता शैलजा ने कहा, मुझे समझ में नहीं आता कि जयराम रमेश किस आधार पर यह बात
कह रहे हैं। यह भी तो देखें कि हर बात के लिए नेहरू जी को दोष दिया जा रहा है।
बहरहाल पार्टी ने आधिकारिक रूप से इन बयानों को लेकर कुछ नहीं कहा है, पर लगता है
कि परिवार के ‘ज्यादा करीबी’ नेताओं ने भी अपनी बात कह दी। पार्टी-प्रवक्ता
मनीष तिवारी ने कहा, जिन नेताओं ने मोदी के संदर्भ में कोई बात कही है, वे ही अपनी
बात ज्यादा स्पष्ट कर सकेंगे। पर तिवारी ने भी ‘आलोचना’ और ‘नफरत’ की स्पष्ट व्याख्या नहीं की।
जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर
उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। नेताओं के
बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक
लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की
सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष
किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।
शशि थरूर पिछले छह साल से अपनी बात यदा-कदा कहते रहे हैं, वहीं जुलाई 2015 में
नरेंद्र मोदी ने नरेंद्र मोदी ने ऑक्सफोर्ड की एक डिबेट में शशि थरूर के वक्तव्य
की तारीफ की थी। थरूर का वक्तव्य अंग्रेजों की औपनिवेशिक लूट से जुड़ा था। ध्यान
देने वाली बात यह है कि थरूर ने ऑक्सफोर्ड में बहुसंख्यक भारतीयों के मन को छूने
वाली बातें कही थीं। यही बात हाल में अनुच्छेद 370 को लेकर कांग्रेस के कुछ नेताओं
के बयानों के साथ जुड़ी है।
विरोध की ज्वाला में जलती पार्टी को बहुसंख्यक जनता की भावना को भी समझना
चाहिए। जनता को नरेंद्र मोदी अपने जैसे क्यों लगते हैं? पार्टी के भीतर से
निकल रहे दो प्रकार के स्वरों का संदेश क्या है? क्या यह अच्छे स्वास्थ्य का
लक्षण है? मतभेद होना कोई गलत बात तो नहीं। पर
कांग्रेस की परम्परा, नेतृत्व शैली और आंतरिक संरचना को देखते हुए यह अटपटा है। दरअसल समस्या उस
नैरेटिव की है, जिसे कांग्रेस स्पष्ट नहीं कर पा रही है।
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