राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह वास्तविक बन गया है। पहला सवाल यही है कि उसे इतनी देर तक छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से यह बात हवा में है। राहुल गांधी ने चार पेज का जो पत्र लिखा है उसे गौर से पढ़ें, तो उसकी ध्वनि है कि में इस्तीफा तो दे रहा हूँ, पर गलती न तो मेरी है और न मेरी पार्टी की। व्यवस्था ही खराब है। दोष आँगन का है नाचने वाले का नहीं।
उन्होंने पत्र की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया कि ‘कांग्रेस प्रमुख के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी मेरी है। भविष्य में पार्टी के विस्तार के लिए जवाबदेही काफ़ी अहम है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है। पार्टी को फिर से बनाने के लिए कड़े फ़ैसले की ज़रूरत है। 2019 में हार के लिए कई लोगों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। यह अन्याय होगा कि मैं दूसरों की जवाबदेही तय करूं और अपनी जवाबदेही की उपेक्षा करूं।’
इसके बाद पत्र का काफी बड़ा हिस्सा इस बात को समर्पित है कि हार के पीछे उनकी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने बीजेपी की विचारधारा को पहला निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है, ‘हमें कुछ कड़े फैसले करने होंगे और चुनाव में हार के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराना होगा। सत्ता के अपने मोह को छोड़े बिना और एक गहरी विचारधारा की लड़ाई लड़े बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते।’ प्रतिस्पर्धी दल का नेता होने के नाते उनकी बात वाजिब है। पर जब वे पूरे देश की सांविधानिक व्यवस्था पर प्रहार शुरू करते हैं, तब सवाल खड़े होते हैं। उन्होंने लिखा, ‘देश और संविधान पर जो हमला हो रहा है, वह हमारे राष्ट्र की बुनावट को नष्ट करने के लिए डिज़ाइन किया गया है…हमने 2019 के चुनाव में एक राजनीतिक पार्टी का सामना नहीं किया बल्कि, भारत सरकार की पूरी मशीनरी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। हर संस्था को विपक्ष के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया था। यह बात अब बिल्कुल साफ़ है कि भारत की संस्थाओं की जिस निष्पक्षता की हम अब तक सराहना करते रहे थे, वह निष्पक्षता अब नहीं रही।’
यही आरोप कांग्रेस पर भी लगता रहा है। सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट ने जब तोता बताया था, तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ संसद में महाभियोग कांग्रेस की पहल पर लाया गया। विरोधियों के खिलाफ आयकर छापे क्या पहली बार डाले जा रहे हैं? इसकी एक लम्बी परम्परा है। चुनाव आयोग से उन्हें शिकायत है, तो उसका उपचार व्यवस्था के भीतर ही खोजना होगा। पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई, और सही किया। रास्ता यही है।
ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि ‘भारत की संस्थाओं की निष्पक्षता अब नहीं रही’? ‘चौकीदार चोर है’ को राजनीतिक आरोप मान लें, आप तो पूरी व्यवस्था को नकार रहे हैं। पर आपको जनता ने नकारा है। क्या आपको जनता पर भी भरोसा नहीं है? व्यवस्था और संस्थाओं पर आरोप स्वतंत्रता के बाद से लगते रहे हैं। पर उपचार भी उनके ही पास है। आप इस यात्रा में पिछड़ गए हैं, तो रास्ते को दोष देने के बजाय यात्रा के तौर-तरीकों पर विचार कीजिए। अन्यथा यह नकारात्मक सोच है।
सवाल है कि यह संकट नेतृत्व का है या विचारधारा का? राहुल के पत्र को ध्यान से पढ़ें तो निष्कर्ष निकलता है कि वे हजारों साल से चल रही किसी लड़ाई को लड़ रहे हैं। उन्होंने लिखा, बीजेपी के ख़िलाफ़ मेरे मन में कोई नफ़रत नहीं है लेकिन भारत के बारे में उनके विचार का मेरा रोम-रोम विरोध करता है। उनके अनुसार, यह ‘कोई नई लड़ाई नहीं है, यह हमारी धरती पर हज़ारों सालों से लड़ी जाती रही है। जहां वे अलगाव देखते हैं, वहां मैं समानता देखता हूं। जहां वे नफ़रत देखते हैं, मैं मोहब्बत देखता हूं। जिस चीज़ से वो डरते हैं मैं उसको अपनाता हूं।’
सच यह है कि वोटर ‘मैं’ नहीं है। वे मानकर चल रहे हैं कि उन्होंने जो कुछ कहा, वही सत्य है। वे कहते हैं कि ‘एक समय मैं पूरी तरह अकेला खड़ा रहा और मुझे इस पर गर्व है।’ क्या पार्टी उनके साथ नहीं थी? बीजेपी यदि वोटर के एक बड़े वर्ग का समर्थन हासिल करने में सफल रही है, तो उसके कारणों को भी उन्हें देखना चाहिए। वोटर को ही दोषी साबित करके आप राजनीति कैसे करेंगे? अपने नैरेटिव को बदलिए। वोटर के पास जाकर उसे अपनी बात समझाइए।
मान लिया कि बीजेपी की जीत में पुलवामा और बालाकोट प्रकरण की महत्वपूर्ण भूमिका थी। कांग्रेस ने अपने नैरेटिव को तय करते वक्त इन बातों को ध्यान में क्यों नहीं रखा? उसकी बातें जनता के गले नहीं उतरीं, तो क्यों? पार्टी ने देशद्रोह कानून खत्म करने और सेना को विशेष शक्ति देने वाले कानून को बदलने पर जोर दिया तो क्यों? उन्हें कम से कम यह बात स्पष्ट करनी चाहिए कि देशद्रोह कानून और सेना की शक्तियों के बारे में उनकी राय अब क्या है।
यह बात राहुल को ख़ुद सोचनी चाहिए। क्या इसमें उनकी चूक नहीं है? पार्टी का सकल दृष्टिकोण अध्यक्ष की राय से ही बनता है। अब वे पार्टी को मँझधार में छोड़कर कैसे जा सकते हैं? उसे रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी भी उनकी ही है। हार-जीत राजनीति का हिस्सा है। राहुल गांधी चाहते हैं कि जवाबदेही के ज्यादा कड़े मानक पार्टी में बनाए जाने चाहिए, तो उन्हें परिभाषित और स्थापित करने की जिम्मेदारी भी उनकी ही है।
क्या राहुल की जो राय है, वही जनता की राय भी है? चुनाव परिणामों से यह बात साबित नहीं होती। वे जनता को आश्वस्त नहीं कर पाए। अब उन्हें और उनकी पार्टी को सोचना चाहिए। क्या पार्टी के भीतर विचारधारा को लेकर किसी प्रकार का अंतर्मंथन चलता है या चल रहा है? प्रशासनिक व्यवस्था, संविधानिक संस्थाओं, चुनाव की मशीनरी वगैरह के बारे में पार्टी की राय कैसे बनती है? ईवीएम से लेकर राष्ट्रवाद तक उसे फिर से अपनी बातों पर विचार करना चाहिए।
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वस्तुतः तो राहुल इस्तीफा देने वाले ही नहीं थे ,ये तो मीडिया , व विपक्ष के अनावश्यक दबाव की वजह से उन्होंने इस्तीफा दिया , उनका यह भी सोच था कि सभी प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर के जिम्मेदार कॉंग्रेसी नेता भी उनका अनुसरण करेंगे व उनकी मान मनोवल कर वापिस पदनशीन कर देंगे , लेकिन वे नेता यह जानते थे कि एक बार इस्तीफा देते ही उनकी पूरी छुट्टी हो जायेगी , इसलिए वे चुप रहे ,यह भी सोच रहा होगा कि यह तो हमेशा का ही रोना है कुछ दिन हो कर शांत हो जाएगा , लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ , विपक्ष को खिल्ली उड़ाने का मौका मिल गया राहुल अब सारा नया खून लाने के पक्ष में हैं , और बुजुर्गों से मुक्ति पाना चाहते हैं , लेकिन खुल कर नहीं कह पा रहे हैं और अंजाम पार्टी को भुगतना पड़ रहा है , गहलोत व कमलनाथ जैसे मोटी चमड़ी वाले तो जरा भी सरकने को तैयार नहीं हैं जब कि राहुल नाम ले कर उनको संकेत दे चुके हैं , उन बुजुर्ग नेताओं के साथ भी समस्या है कि ताउम्र यहाँ मलाई चाटने के बाद अब जाएँ तो कहाँ जाएँ , बेचारे राहुल इस्तीफा दे कर भी फंस गए न दे क्र तो संकट में थे ही
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