हिमा दास और दुती (या द्युति) चंद दो एकदम
साधारण घरों से निकली लड़कियाँ हैं, पर उनकी उपलब्धियाँ असाधारण हैं. दोनों की
चर्चा इन दिनों खेल के मैदान में है. हिमा दास भारत की पहली एथलीट हैं, जिन्होंने
आईएएएफ की अंडर 20 प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है. हाल में यूरोप की
प्रतियोगिताओं में लगातार पाँच स्वर्ण पदक जीतकर वे खबरों में हैं. दुती चंद ने
वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में स्वर्ण पदक जीता. हिमा 400 और 200 मीटर में दौड़ती
हैं और दुती चंद 100 और 200 मीटर में.
छोटी दूरी की ये रेस बहुत मुश्किल मानी जाती
हैं और इनके खास तरह की ट्रेनिंग और शारीरिक गठन की दरकार होती है. एथलेटिक्स के
मैदान में हरेक प्रतियोगिता का अपना महत्व होता है. छोटी रेस की अपनी जरूरत है और
लम्बी रेस की अपनी. इतना ही नहीं, 100 मीटर 400 मीटर की तकनीक भी अलग है. दोनों
खिलाड़ी रिले टीम की सदस्य के रूप में अपनी विशेषज्ञता से बाहर जाकर भी दौड़ती
हैं, ताकि देश को पदक मिले.
दोनों उदीयमान खिलाड़ी हैं और उनसे देश को काफी
उम्मीदें हैं. जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि दोनों कई तरह की परेशानियों से लड़ते
हुए आगे बढ़ी हैं. दुति चंद ने खेल के मैदान के अलावा अंतरराष्ट्रीय खेल अदालत में
जो लड़ाई लड़ी, वह महत्वपूर्ण है. हिमा ने असम में धान के खेतों में प्रैक्टिस
करके खुद को निखारा. दुति चंद ने उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में. उनका परिवार गरीबी
की रेखा के नीचे परिवार है. दोनों भारत की स्त्री-शक्ति को रेखांकित करती हैं और
बदलते भारत की कहानी भी कहती हैं. खेल के मैदान में भारतीय लड़कियों की उपलब्धि के
साथ-साथ अक्सर यह बात पीछे रह जाती है कि वे कितने किस्म की विपरीत परिस्थितियों
का सामना करके सामने आती हैं.
हाल में हुई कॉमनवैल्थ टेबल टेनिस प्रतियोगिता
में भारत की पुरुष और महिला दोनों टीमों ने चैम्पियनशिप हासिल की. पर महिला वर्ग
में जीत ज्यादा महत्वपूर्ण थी. भारत की लड़कियों ने सिंगापुर की टीम को हराया, जो
1997 से अबतक लगातार चैम्पियन रहीं हैं। भारत की लड़कियाँ एथलेटिक्स ही नहीं
कुश्ती, शूटिंग, तीरंदाजी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस, टेनिस, हॉकी और क्रिकेट वगैरह
में विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्तर पर खड़ी हैं.
हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं
के परिणामों को देखें तो आप पाएंगे कि भारत की लड़कियों की सफलता का ग्राफ ज्यादा
ऊँचा है. कॉमनवैल्थ, एशियाई और ओलिम्पिक खेलों में उन्होंने ज्यादा मेडल जीते हैं.
जिन खेलों में वे कहीं नहीं थीं, उनमें अपने स्तर को सुधारा है. देश के खेल स्तर
को वैश्विक ऊँचाई पर ले जाने में लड़कियों की महत्वपूर्ण भूमिका है. यह बात
सामाजिक बदलाव की सूचक है. अगले साल जापान में ओलिम्पिक खेल होने वाले हैं, जिसमें
यकीनन हमें इन लड़कियों की क्षमता का पता लगेगा. जरूरत इस बात की है कि उन्हें समय
से बढ़ावा दिया जाए.
सन 2016 में हुए रियो ओलिम्पिक खेलों में भारत
की स्त्री शक्ति ने खुद को साबित करके दिखाया था. पीवी सिंधु, साक्षी मलिक, दीपा करमाकर, विनेश
फोगट और ललिता बाबर ने अपने-अपने खेलों में सफलताएं हासिल कीं. सवाल जीत या हार का
नहीं,
उस जीवट का है, जो उन्होंने दिखाया. इसके पहले भी करणम मल्लेश्वरी, कुंजरानी देवी, मैरी कॉम, पीटी
उषा,
अंजु बॉबी जॉर्ज, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, फोगट
बहनें,
टिंटू लूका, दुती चंद, दीपिका
कुमारी, लक्ष्मी रानी मांझी और बोम्बायला देवी
इस जीवट को साबित करती रहीं हैं.
ओलिम्पिक सिर्फ मेडल बाँटने का समारोह नहीं होता.
इसके सहारे दुनिया कुछ दिन के लिए एक मंच पर आती है. यह वैश्विक-परिवार है. खेल
व्यक्ति में अनुशासन, लगन और नियमबद्धता भरते हैं. रचनाशील
और धैर्यवान बनाते हैं. वंचित समुदायों का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं. सिर्फ खेलों की
बदौलत अफ्रीकी समाज का आत्मविश्वास हाल के वर्षों में काफी बढ़ा है. जमैका और
बहामास के स्प्रिंटरों, नाइजीरिया, केन्या और इथोपिया के मिडिल और लांग डिस्टेंस
धावकों ने यूरोपीय खिलाड़ियों का वर्चस्व खत्म कर दिया. चीनी, जापानी और कोरियाई खिलाड़ी अपनी पहचान बना रहे
हैं.
भारत में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ने जनजातीय
क्षेत्रों से प्रतिभाएं खोजने का अभियान चला रखा है. दुर्गम इलाकों के निवासियों
के पास परम्परागत जीवट होता है, उसका
फायदा उठाना चाहिए. अकेली मैरीकॉम ने पूर्वोत्तर में खेलों की क्रांति को जन्म दे
दिया है. हम खिलाड़ी को उसकी जाति और धर्म की वजह से पसंद-नापसंद नहीं करते. उसकी
प्रतिभा को पसंद करते हैं. भारत जैसे बहुरंगी देश को खेल फैवीकॉल की तरह जोड़ता है.
जिम्नास्टिक ऐसा खेल है, जिसमें आपने भारतीय
खिलाड़ियों को कम देखा होगा. ऐसे खेल में दीपा ओलिम्पिक मेडल के एकदम करीब पहुँच
गई थी. दीपा ने ओलिम्पिक प्रतियोगिता में क्वालिफाई करने के लिए वॉल्ट पर जिस
प्रोद्यूनोवा का प्रदर्शन किया, वह
बेहद मुश्किल एक्सरसाइज़ है. उसने वह इसलिए चुना, क्य़ोंकि उसमें अंक ज्यादा मिलते
हैं, पर जोखिम भी बहुत हैं.
दीपा त्रिपुरा के पिछड़े इलाके से आती हैं और
उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि साधारण है. उसने असाधारण काम करके दिखाया. रिय़ो में दीपा
के फाइनल प्रदर्शन में उसके साथ कोरिया की होंग उन-जोंग भी वॉल्ट पर प्रदर्शन कर
रही थी. वह उत्तरी कोरिया के टैंचन के गरीब परिवार से ताल्लुक रखती है. उसने भी एक
बेहद कठिन ट्रिपल ट्विस्ट युरचेंको को
अपने लिए चुना. वह अपने प्रयास में सफल नहीं रही, पर उसने रेखांकित किया कि जिनके पास साधन नहीं होते, वे जोखिम उठाते
हैं.
इन लड़कियों ने अपनी पहचान और जगह बनाई है, तो
उन्हें इसके लिए अलग से प्रयत्न किए और जोखिम उठे. इनके परिवारों ने इनका साथ
दिया, फिर भी व्यवस्थाएं ऐसी नहीं जो बेहतर खिलाड़ी तैयार कर सकें. ऐसे में एक
हिमा या एक दुती लाखों ऐसी लड़कियों की प्रेरणा स्रोत बनती हैं, जो अपने गाँव के
गलियारों में ही दौड़कर सपनों को सच करने का प्रयास करती हैं.
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