असम और बिहार के काफी
बड़े हिस्से में बाढ़ आई हुई है। बिहार के 12 जिलों के 102 प्रखंडों में बाढ़ का
पानी फैला हुआ है, जिससे 66 लाख से ज्यादा की जनसंख्या प्रभावित
है। इस साल बारिश देर से हुई है, जिसकी वजह से बाढ़ की खबरें कुछ देर से मिल रही
हैं, वर्ना ये खबरें हर साल की हैं। कुछ दिन पहले सूखे की खबरें थीं, बल्कि आज भी
हैं। कुछ दिन पहले मुम्बई शहर के लोग गर्मी से परेशान थे। मना रहे
थे कि बारिश जल्द से जल्द हो। और जब हुई, तो शहर पानी में डूब गया।
एक टीवी चैनल दिल्ली की खबर दिखा रहा था, जिसमें एक ट्रैक्टर वाला 10-10 रुपये
सवारी के रेट से पानी से भरी सड़क पार करा रहा था। देश की राजधानी और कोसी की बाढ़
के दर्द अलग-अलग हैं, पर दर्द है जो खत्म होकर नहीं दे रहा। इस साल समुद्र के
किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी
भेजा गया। 2015 में वहाँ
भारी वर्ष के कारण पूरा शहर पानी में डूब गया था। इस साल गर्मी वहाँ की सवा करोड़ आबादी
को पानी का महत्व समझा गई।
दुनिया में सबसे ज्यादा पानी
चेरापूंजी में गिरता है। पिछले कुछ साल से वहाँ सर्दियों में सूखा पड़ रहा है।
दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में जमीन के नीचे का पानी करीब-करीब सूख गया है। असम के धेमाजी जिले की कहानी बड़ी
दर्दनाक है। पिछले साल इस जिले में मॉनसून के दौरान 1 जून से 29 अगस्त
के बीच सामान्य से 88 फीसदी कम बारिश हुई। यह मॉनसून का हाल था, पर मॉनसून के पहले
वहाँ इतनी बारिश हो रही थी कि बाढ़ आई हुई थी। जब देश में मॉनसून वापसी का वक्त आया,
तो 31 अगस्त को जिले की सियांग नदी में जबर्दस्त बाढ़ आ गई। चीन ने नदी में उसमें काफी पानी छोड़ दिया था।
जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश कभी कम और कभी ज्यादा होने लगी है। मौसम
विज्ञानियों का कहना है कि भारत में मॉनसून देर से आने लगा है और देर से ही वापस
लौट रहा है। मौसम चक्र में बदलाव कोई नई परिघटना नहीं है। हजारों साल से उसमें
बदलाव आता रहा है। दरअसल हमें खुद को बदलना चाहिए और पानी के प्रबंधन पर ध्यान
देना चाहिए।
सूखे के दौरान पानी की किल्लत का एक बड़ा कारण है
तालाबों, पोखरों और नदियों की उपेक्षा। सन 2000 में दिल्ली में किए गए एक
सर्वे से पता लगा कि शहर के 794 तालाबों में से ज्यादातर पर अवैध कब्जे हो चुके हैं,
जो तालाब बचे थे, उनकी हालत खराब थी। सरकारी फाइलों में जो तालाब हैं, वहाँ अब कुछ नहीं है। कमोबेश
यही हालत दूसरे शहरों की है। दुर्भाग्य है कि प्राकृतिक
सम्पदा हमारे लिए आपदा बनकर आती है। हमने प्रकृति के साथ रहना नहीं सीखा है, बल्कि
प्रकृति को अपने तरीके से बदलने की कोशिश की है। मोटे तौर पर यह हमारे प्रबंधन की
कमजोरी है।
जून 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ के पीछे एक बड़ी
वजह थी नदी के प्रवाह क्षेत्र की अनदेखी। केदारनाथ मंदिर के करीब से निकलने वाली
मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं। दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी।
लोगों को लगा कि अब वह एक धारा में ही बहेगी। मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी
पुराने रास्ते यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी। पर लोगों ने उसके रास्ते में मकान
बना लिए थे। सभी निर्माण बह गए।
नदी में सैकड़ों साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके मार्ग को भी फ्लड वे
माना जाता है। इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है। ऐसा ही नेपाल से निकलने वाली
कोसी नदी के साथ हुआ है, जो बिहार से गुजरती है। यह नदी अपनी धारा बदलती रहती है।
हमने उसे तटबंध बनाकर रोकने की कोशिश की है।
जब कोसी में तटबंध नहीं थे, तब भी बाढ़ आती थी। तब
बड़ी नदियों का पानी छोटी सहायक नदियों, पोखरों और इनसे जुड़ी झीलों में चला जाता था, जिससे बाढ़ की शिद्दत कम हो जाती थी। गर्मियों में बड़ी नदी में पानी घटता तो
ये छोटी नदियां और पोखर बड़ी नदियों को पानी वापस कर देते थे। यह प्राकृतिक लेन-देन
था। प्रकृति के साथ छेड़खानी ने समस्याएं पैदा की
हैं। हमारे जल-प्रबंधन को प्रकृति-सम्मत और विज्ञान-सम्मत होना चाहिए।
हमारा नगर-प्रबंधन भी खराब है। मुम्बई और दिल्ली जैसे
शहरों में मामूली बारिश से शहर डूब जाता है। दोष शहरी ड्रेनेज प्रणाली का है, जो या
तो है नहीं और है, तो दोषपूर्ण है। ऐसा न्यूयॉर्क शहर में तो नहीं होता।
शोध पत्रिका ‘वॉटर
रिसोर्सेज रिसर्च’
में अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने लिखा है कि वर्षा ज्यादा होने से बाढ़
का रिश्ता नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है जल निकासी की अव्यवस्था, नदियों के
कैचमेंट एरिया और इलाके में हुए निर्माण। नई कॉलोनियों के लिए जमीन की जरूरत हुई
तो हमने तमाम विभागों की मंजूरी ली, प्रकृति की तरफ पीठ फेर ली। इस किस्म की
परेशानियों के बारे में भी विचार कीजिए और जन-प्रतिनिधियों से सवाल कीजिए। चीजें
बदल जाएंगी।
No comments:
Post a Comment