Sunday, July 28, 2019

राजनीतिक ‘मॉब लिंचिंग’ क्यों?

सन 2014 में मोदी सरकार के आगमन के पहले ही देश में पत्र-युद्ध शुरू हो गया था। चुनाव परिणाम आने के एक साल पहले अमेरिका में कुछ भारतीय राजनेताओं के नाम से चिट्ठी भेजी गई कि नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिलना चाहिए। लंदन के गार्डियन में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के नाम से लेख छपा जिसमें कहा गया कि मोदी आया तो कहर बरपा हो जाएगा। गार्डियन, इकोनॉमिस्ट, वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में मोदी के आगमन के साथ जुड़े खतरों को लेकर सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखी गईं।

सरकार बनने के एक साल बाद अवॉर्ड वापसी का एक दौर चला और यह जारी है। शुरू में इन पत्रों का जवाब कोई नहीं दे रहा था, पर हाल के वर्षों में जैसे ही ये पत्र सामने आते हैं, कुछ दूसरे लेखकों, कलाकारों, संगीतकारों, इतिहासकारों की तरफ से पत्र जारी होने लगे हैं। कहना मुश्किल है कि आम नागरिक इन पत्रों की तरफ ध्यान देते हैं या नहीं, पर इनसे जुड़ी राजनीति का बाजार गर्म है। आमतौर पर ये पत्र, लेख या टिप्पणियाँ एक खास खेमे से निकल कर आती हैं। यह खेमा लम्बे अरसे तक देश के कला-संस्कृति जगत पर हावी रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 49 हस्तियों की ओर से ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाओं को रोकने के लिए लिखे गए पत्र के जवाब में 61 सेलिब्रिटीज ने खुला पत्र जारी किया है। इन्होंने पीएम को लिखे गए पत्र को ‘सिलेक्टिव गुस्सा’ और ‘गलत नैरेटिव’ सेट करने की कोशिश करने वाला बताया है। इसके पहले पीएम को संबोधित करते हुए चिट्ठी में लिखा गया था कि देश भर में लोगों को ‘जय श्रीराम’ के नारे के आधार पर उकसाने का काम किया जा रहा है। साथ ही दलित, मुस्लिम और दूसरे कमजोर तबकों की ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की मांग की गई है।

इसमें दो राय नहीं कि ‘मॉब लिंचिंग’ पर सरकार को कड़ा रुख अपनाना चाहिए और अपराधियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। बेहतर होता कि पत्र लेखक उन घटनाओं को लेकर सरकार के पास जाते, जिनमें शिथिलता बरती गई। लगता यह भी है कि इस पत्र के ज्यादातर संदर्भ (और हस्ताक्षर कर्ता भी) बंगाल से जुड़े हैं, जहाँ भारतीय जनता पार्टी अपनी जगह बना रही है। इस पत्र को राजनीति से अलग कैसे माना जाए? सच यह है कि बंगाल में बीजेपी केवल ‘जय श्रीराम’ के सहारे सफल नहीं है।

सच यह है कि बीजेपी की मुहिम में एक बड़ा तबका सीपीएम के कार्यकर्ताओं का है, जिसे तृणमूल कार्यकर्ताओं में मारपीट कर दबा लिया था। बीजेपी ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया है। क्या यह सच नहीं है कि पिछले साल हुए स्थानीय निकाय चुनाव में एक तिहाई सीटों पर तृणमूल प्रत्याशी निर्विरोध जीते थे, क्योंकि चुनौती देने वालों को खड़ा होने नहीं दिया गया?

जवाबी पत्र में लिखा गया है कि कश्मीर में जब अलगाववादियों ने स्कूल बंद कराए, तब ये लोग कहां थे? जेएनयू प्रकरण के बाद देश में ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ नए खतरे के रूप में पैदा हुआ है। सही या गलत बड़ी संख्या में जनता इन बातों को लेकर परेशान है। जनता किसी भी रूप में ‘मॉब लिंचिंग’ की समर्थक नहीं है, पर आपके आसपास कितनी ‘मॉब लिंचिंग’ हो रही है? मीडिया की प्रवृत्ति है कि जैसे ही कोई खबर वायरल होती है, उसी किस्म की खबरें फैलने लगती हैं।

इस व्यवस्था में दोष हैं, पर ये दोष किसी राजनीतिक बदलाव की देन नहीं हैं, व्यवस्था में पहले से मौजूद हैं। इसमें जनता की नासमझी भी शामिल है। पिछले कुछ वर्षों में असम, ओडिशा, गुजरात, त्रिपुरा, बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र से अलग-अलग किस्म की लिंचिंग की खबरें आईं हैं। ज्यादातर मामले अफवाहों से जुड़े हैं। ज्यादातर मरने वाले गरीब लोग हैं। और ज्यादातर का साम्प्रदायिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है।

पत्र लेखक कुछ खास तरह की लिंचिंग पर ही जोर देना चाहते हैं, क्योंकि उससे उनका राजनीतिक दृष्टिकोण जुड़ा है। सच है कि गोहत्या के नाम पर हत्याएं हुईं हैं, पर देश के कुछ इलाकों से बच्चा चुराने वाले गिरोह के अंदेशे में हुई हत्याओं के समाचार भी आए हैं। हम सारी खबरों को एकसाथ जोड़कर पढ़ते हैं। पिछले साल बेंगलुरु की खबर थी कि 25 साल के एक व्यक्ति को भीड़ ने बाँधकर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। भीड़ को शक़ था कि वह बच्चा चोरी करने वाले गिरोह के लिए काम करता था। लोग एक फ़र्ज़ी वॉट्सऐप वीडियो को लेकर नाराज़ थे।

महाराष्ट्र के शहर धुले के ग्रामीण इलाके में वॉट्सएप मैसेज से फैली बच्चा चोरी की अफवाह के कारण घूम रहे पाँच अनजान लोगों को गाँव वालों ने पीट-पीट कर मौत घाट उतर दिया। वहाँ भी वही कराची टाइप वीडियो वायरल हुआ था। गाँव वालों ने पाँच अनजान लोगों को घेर लिया और फिर पंचायत भवन में बंद करके इतना पीटा कि पाँचों की जान चली गई। ये पाँच लोग राज्य परिवहन की बस से उतरे थे।

इन बातों को तोड़-मरोड़कर जब कोई कहे कि भारत 'लिंचोक्रेसी' बन चुका है, तब उसकी मंशा पर सवाल उठते हैं। भारत में भीड़ के हाथों हिंसा और धार्मिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। चोरी-डकैती या कभी-कभी किसी कार दुर्घटना में भी भीड़ इकट्ठा हो जाती है और ड्राइवरों को पीट-पीट कर मार डालती है। ऐसा इस मान्यता के कारण होता है कि कानून जो कहता है वो करता नहीं है। लोग हाल की घटनाओं को ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।

एक हिंसा वह है जिसमें एक समूह यह मानता है कि कुछ रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं की किसी भी हालत में सुरक्षा होनी चाहिए। चाहे वह कानून के ख़िलाफ़ ही क्यों ना हो। इस तरह की हिंसा में लोगों को पता होता है कि वे जो कर रहे हैं, वह ग़ैर-क़ानूनी है। लेकिन फिर भी यह महसूस करते हैं कि वे सही हैं। इस किस्म की प्रवृत्तियों का विरोध होना चाहिए, पर इसके सहारे राजनीति का खेल नहीं खेलना चाहिए। भीड़ के हाथों होने वाली हिंसा की आड़ में राजनीतिक मॉब लिंचिंग भी होती रही है। बंगाल में ऐसी हिंसा काफी समय से हो रही है। अलग-अलग इलाकों में इसके अलग-अलग रूप हैं। बेहतर हो कि हम उसपर विचार करें और कानून बनाएं।

हरिभूमि में प्रकाशित



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