कांग्रेस पार्टी का संकट बढ़ता जा रहा है। जिन राज्यों में
कांग्रेस की सरकार है, संकट वहाँ है। कर्नाटक में सरकार अल्पमत में आ गई है। किसी
तरह से वह चल रही है, पर कहना मुश्किल है कि मंगलवार के बाद क्या होगा। कर्नाटक
में संकट चल ही रहा था कि गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक बीजेपी में
शामिल हो गए। इसके बाद अल्पमत में बीजेपी सरकार मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। मध्य
प्रदेश और राजस्थान में गुनगुनाहट है।
हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में इसी साल चुनाव होने
हैं। इन राज्यों में क्या पार्टी वापसी करेगी? वापसी नहीं हुई, तो इन वहाँ भी भगदड़ मचेगी। यों भगदड़ इस
वक्त भी है। तीनों राज्यों में कांग्रेस अपने आंतरिक संकट से रूबरू है। तेलंगाना
में पार्टी लगभग खत्म होने के कगार पर है। ‘मजबूत हाईकमान’ वाली इस पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इस वक्त खुद संकटों
से घिरा है। पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है सड़कों पर उतर पाने में असमर्थता। यह
पार्टी केवल ट्विटर के सहारे मुख्यधारा में बनी रहना चाहती है। कार्यकर्ता कठपुतली
की भूमिका निभाते रहे हैं। उनमें प्राण अब कैसे डाले जाएंगे?
पार्टी ने विचारधारा के स्तर पर जो कुछ भी किया हो, पर सच
यह है कि वह परिवार के चमत्कार के सहारे चल रही थी। उसे यकीन था कि यही चमत्कार
उसे वापस लेकर आएगा। परिवार अब चुनाव जिताने में असमर्थ है, इसलिए यह संकट पैदा
हुआ है। धुरी फेल हो गई है और परिधि बेकाबू। संकट उतना छोटा नहीं है, जितना दूर से
नजर आ रहा है। नए नेता की परीक्षा इस बात से होगी कि वह परिवार का वफादार है या
नहीं। परिवार से अलग लाइन लेगा, तो संकट। वफादारी की लाइन पर चलेगा, तब भी संकट।
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद केन्द्र में अराजकता का
माहौल है। राज्यों से समाचार मिल रहे हैं कि ठीक वहाँ भी नहीं है। हालांकि यह सब
लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से शुरू हुआ है, पर वास्तव में इसकी शुरूआत 2014
के लोकसभा चुनाव के बाद ही हो गई थी। पार्टी को उम्मीद थी कि एकबार पराजय का क्रम
थमेगा, तो फिर से सफलता मिलने लगेगी। उसकी सारी रणनीति राहुल को स्थापित करने के
लिए सही समय के इंतजार पर केन्द्रित थी। वह भी हो गया, पर संकट और गहरा गया।
कांग्रेस ने वर्तमान संकट की जिम्मेदारी बीजेपी पर डाली है।
बीजेपी एक देश, एक पार्टी का राज चाहती है। वह चाहती है, तो आप क्या चाहते हैं? अपने सदस्यों को रोकने की जिम्मेदारी आपकी है। देश की सबसे
बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का इस दशा को प्राप्त करना उसके नेतृत्व के राजनीतिक कौशल
पर सवालिया निशान लगाता है। बीजेपी आज ताकतवर हुई है। आज से छह साल पहले तक तो आप
बेहतर थे। आपकी दशा क्यों बिगड़ी?
इधर कर्नाटक और गोवा में कहानी चल रही है और उधर दिल्ली से
खबरें हैं कि कांग्रेस कार्यसमिति अगले हफ्ते अपने कार्यवाहक अध्यक्ष का चुनाव करने
जा रही है। फिलहाल कार्यसमिति की तारीख घोषित नहीं हुई है। पार्टी अध्यक्ष का नाम
तय होने के बाद कम से कम नेतृत्व का संकट खत्म होगा। खबरें थीं कि कुछ लोगों ने
सोनिया गांधी से अपील की थी कि वे अंतरिम अध्यक्ष बन जाएं, पर शायद वे तैयार नहीं
हैं।
कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर और
राज्यों में भी बड़े कद के नेता नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि पिछले दो दशक से
पार्टी का सारा प्रयास राहुल गांधी को नेता के रूप में विकसित करने पर लगा रहा। इस
दौरान उनके आसपास किसी नेता को उठने का मौका नहीं मिला। अब राहुल के स्थान पर जिस
किसी नेता को खड़ा करेंगे, उसे अपने प्रतिस्पर्धियों का मुकाबला करना होगा। पिछले
छह साल में बीजेपी ने नेहरू-गांधी परिवार पर निशाना साधा है।
बीजेपी जानती है कि परिवार के पतन पर ही पार्टी का भविष्य
निर्भर है। कर्नाटक और गोवा से जो खबरें आ रहीं हैं, वे केन्द्रीय संकट को भी
व्यक्त कर रही हैं। पार्टी के कार्यकर्ता को अपना भविष्य संकट में दिखाई पड़ रहा
है। पिछले साल कर्नाटक विधानसभा का चुनाव होने के पहले तक देश में कांग्रेस का
सबसे मजबूत गढ़ कर्नाटक ही था, पर आज वहाँ पार्टी अपने अंतर्विरोधों में घिर गई
है।
कर्नाटक में सिद्धारमैया, डीके शिवकुमार और मल्लिकार्जुन
खड़गे जैसे नेता इसलिए उभर पाए, क्योंकि वहाँ पार्टी सत्ता में थी। कैप्टेन
अमरिंदर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत भी अपवाद हैं। पर ये सभी नेता पिछली पीढ़ी के
हैं। नई पीढ़ी का नेतृत्व है ही नहीं।
विडंबना है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता व्यक्तिगत हितों
को पहले देखते हैं। वे उसी पार्टी में रहना चाहते हैं, जहाँ उनके हित सुरक्षित
हों। इस लिहाज से कांग्रेस का सबसे मजबूत राज्य अब पंजाब है। कर्नाटक में अभी
कांग्रेस-जेडीएस सरकार कायम है, पर अगले हफ्ते के बाद वह किस तरह बनी रहेगी, यह
समझना मुश्किल है। ताश के पत्तों की तरह एक घटना का प्रभाव दूसरी घटना पर पड़ता
है।
आने वाले समय में मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी संकट पैदा
होने लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद को लेकर
पार्टी के भीतर मतभेद हैं। मध्य प्रदेश में कमलनाथ अपने विधायकों को एकजुट रखने पर
काफी समय दे रहे हैं। खबरें हैं कि उन्होंने एक-एक मंत्री को दस-दस विधायकों पर
नज़र रखने की ज़िम्मेदारी दी है, ताकि वे टूटें नहीं।
कांग्रेस से हमदर्दी रखने वाले विश्लेषकों को भी लगता है कि
पार्टी ने इच्छा-मृत्यु का वरण कर लिया है। सामान्य समझ की बात है कि लोकसभा चुनाव
में बीजेपी को जीत मिली है, तो उसका असर कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान पर
पड़ना ही है। इन तीनों राज्यों में पार्टी का आधार कमजोर है। सबसे बड़ी बात यह है
कि पार्टी में केन्द्रीय स्तर पर एकजुटता नहीं है। हाल में बागी विधायकों से बात
करने गए डीके शिवकुमार मुम्बई में अकेले पड़ गए। उधर दिल्ली में हो रहे परिवर्तन
के संदर्भ में मिलिंद देवड़ा ने मुम्बई कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया,
तो संजय निरुपम ने उनपर तंज मारते हुए ट्वीट किया। ऐसी तंजमारी बढ़ेगी, कम नहीं
होगी। नए राष्ट्रीय अध्यक्ष को सामने आने दीजिए, खुद देख लीजिएगा।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-07-2019) को "कुछ नया होना भी नहीं है" (चर्चा अंक- 3397) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'