हाल में नव-निर्वाचित लोकसभा सदस्यों के शपथ-समारोह में देखने को मिला कि हिंदी और संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ रही है और अंग्रेज़ी में शपथ लेने वालों की संख्या कम हो रही है। सन 2014 में जहाँ 114 सदस्यों ने अंग्रेज़ी में शपथ ली, वहीं इसबार 54 ने। सन 2014 में संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या 39 थी, जो इसबार बढ़कर 44 हो गई। हिंदी और अंग्रेज़ी के बाद तीसरे स्थान पर सबसे ज्यादा शपथ संस्कृत में ली गईं।
इन बातों से क्या हम कोई निष्कर्ष निकाल सकते हैं? क्या संस्कृत भाषा की हमारे जीवन में कोई भूमिका है? संस्कृत ही नहीं देश में शास्त्रीय भाषाओं का महत्व क्या है? क्या इसे सांस्कृतिक-राजनीति मानें? शेष पाँच शास्त्रीय भाषाओं की जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय-भूमिकाएं हैं, क्योंकि वे जीवंत-भाषाएँ हैं। संस्कृत भाषा की क्या भूमिका है?
काफी लोग संस्कृत को मृत-भाषा मान चुके हैं। ऐसा नहीं मानें, तब भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के माध्यम के रूप में उसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ती। तब क्या केवल जन-भावनाओं के कारण उसे बढ़ावा दिया जा रहा है? भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में उसकी क्या कोई भूमिका है? सवाल यह भी है कि संस्कृत भाषा की अनदेखी करके क्या आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य का विकास हो सकता है?
गहरा अनुग्रह
भारतीय जनता पार्टी के आग्रह अपनी जगह हैं, पर स्वतंत्रता आंदोलन या उसके पहले से हमारे समाज का संस्कृत भाषा के प्रति अनुराग गहरा है। आधुनिक भारत में उसकी उपादेयता पर विचार करने के पहले हमें अपने राष्ट्रीय-आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद की पृष्ठभूमि पर विचार करना होगा। संस्कृत के महत्व को राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा स्वीकार किया गया। पर यह बात फिर भी कही जाती है कि संस्कृत आम इस्तेमाल की भाषा नहीं है।
जवाहर लाल नेहरू ने डिसकवरी ऑफ इंडिया में लिखा है, ‘मैं नहीं जानता कि कितने दिनों से संस्कृत एक मरी हुई भाषा है-इस मानी में कि वह आमतौर पर बोली नहीं जाती। कालिदास के जमाने में भी यह जनता की भाषा नहीं थी, अगरचे यह सारे भारत के पढ़े-लिखों की भाषा थी। और सदियों तक ऐसी बनी रही, बल्कि दक्षिण-पूर्वी एशिया और मध्य एशिया में भी फैली।’ नेहरू ने आगे लिखा है, ‘सन 1937 में त्रिवेंद्रम में डॉ एफएफ टॉमस ने इस बात की तरफ इशारा किया था कि भारत की एकता में संस्कृत का कितना बड़ा हाथ है। उन्होंने तजवीज़ किया कि संस्कृत के किसी सरल रूप को, अखिल-भारतीय भाषा के रूप में बढ़ावा देना चाहिए। उन्होंने मैक्समूलर के इस कथन को उधृत किया कि संस्कृत आज भी अकेली भाषा है, जो इस बड़े देश में सब जगह बोली जाती है।’
नेहरू ने लिखा है, ‘संस्कृत समझने वालों की गिनती, खासतौर से दक्षिण में, अब भी बहुत बड़ी है।…आजकल की उर्दू तक में 80 फीसदी लफ्ज़ संस्कृत के हैं। अक्सर बताना मुश्किल हो जाता है कि कोई खास लफ्ज़ संस्कृत से आया है या फारसी से, क्योंकि दोनों भाषाओं के मूल शब्द अक्सर एक से हैं। अचरज की बात है कि दक्षिण की द्रविड़ भाषाओं ने, अगरचे वे मूल में बिलकुल अलग परिवार की भाषाएँ हैं, संस्कृत के इतने शब्द अपना लिए हैं कि करीब-करीब उनका आधा शब्दकोश संस्कृत से मिलता है।’
भाषाओं की भाषा
डॉ सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय आर्य-भाषा और हिंदी में लिखा है, ‘संस्कृत आज भी आधुनिक भारतीय भाषाओं में जीवन-रस का संचार कर रही है, तब उसे मृत कैसे कहा जा सकता है?’ वस्तुतः आज भी हिंदी के लगातार बदलते स्वरूप में जब भी कोई बात भाषाविदों को पेचीदा लगता है, तब वे सबसे पहले संस्कृत की मदद से उसे सुलझाने का प्रयास करते हैं। दूसरे देश की सभी भाषाओं को जब परस्पर विचार-विनिमय करना होता है, तब उन्हें संस्कृत की मदद मिलती है।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-07-2019) को "संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ी है " (चर्चा अंक- 3384) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'