कर्नाटक में अब धैर्य की
प्रतीक्षा है। सत्तारूढ़ गठबंधन के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं और गुब्बारा किसी
भी समय फूट सकता है। पर इस दौरान कुछ सांविधानिक प्रश्नों को उत्तर भी मिलेंगे।
बड़ा सवाल दल-बदल कानून को लेकर है, जो अंततः अब और ज्यादा स्पष्ट होगा। यह काम
सुप्रीम कोर्ट में ही होगा, पर उसके पहले राजनीतिक अंतर्विरोध खुलेंगे।
चुनाव-पूर्व और चुनावोत्तर गठबंधनों की उपादेयता पर भी बातें होंगी। प्रतिनिधि
सदनों में सदस्यों की भूमिका राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के रूप में है। यह
भूमिका बनी रहेगी, पर सवाल यह तो उठेगा कि दो राजनीतिक दल जो जनता के सामने वोट
माँगने गए, तब एक-दूसरे के विरोधी थे। वे अपना विरोध मौका पाते ही कैसे भुला देते
हैं?
सन 2006 में जब मधु कोड़ा
झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, तबसे यह सवाल खड़ा है कि जनादेश की व्याख्या किस
तरह से होगी? यही सवाल अब कर्नाटक में
है कि 225 के सदन में 37 सदस्यों का नेता मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है? जो लोग इस वक्त बागी विधायकों को लेकर नैतिकता
के सवाल उठा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजनीतिक नैतिकता अंतर्विरोधी
है। पिछले साल मई के महीने में जब कांग्रेस-जेडीएस सरकार बन रही थी, तब ‘प्रगतिशील’ विश्लेषक उसे साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई
के रूप में देख रहे थे। वे नहीं देख पा रहे थे कि राजनीतिक सत्ता अपने आप में बड़ा
प्रलोभन है। उसे किसी भी तरीके से हथियाने का नाम ‘विचारधारा’ है।
कर्नाटक सरकार ने पिछले एक साल में किस तरह से काम किया, यह हमारे सामने है।
इसबार के लोकसभा चुनाव में राज्य की 28 में से 26 सीटें एनडीए ने जीतीं। राज्य में गठबंधन
सरकार के भीतर की दरारें बार-बार दिखाई पड़ती हैं। कहा तो यह भी जाता है कि
कांग्रेस के कुछ बड़े नेता इस सरकार को गिराना चाहते हैं, क्योंकि गठबंधन की
जल्दबाजी की वजह से मुख्यमंत्री पद जेडीएस के पास चला गया। सबसे बड़ी बात यह है कि
अभी करीब चार साल बाकी हैं। यह सरकार आज के सांविधानिक संकट से बाहर निकल भी आए,
पर चलेगी कैसे?
उम्मीद थी कि गुरुवार को
पेश किए गए विश्वासमत पर उसी रोज मतदान हो जाएगा। यह सर्वस्वीकृत नियम है कि फ्लोर
टेस्ट से ही सरकार का फैसला होना चाहिए। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर
हुए फ्लोर टेस्ट में किसी बहस की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई थी। केवल संख्या का सवाल
था, जिसका पता लगाने में समय नहीं लगता है। सवाल है कि इसबार वैसा क्यों नहीं हुआ?
गठबंधन सरकार ने मतदान को
दो वजहों से टाला है। उसे पता है कि सदन में उसके पास बहुमत नहीं है, इसलिए मतदान
का कोई अर्थ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के कारण बागी विधायकों को
अनुपस्थित रहने की छूट मिल गई है। विधानसभा अध्यक्ष उनके इस्तीफे स्वीकार नहीं
करेंगे, क्योंकि गठबंधन सरकार की दिलचस्पी उन्हें दल-बदल कानून के तहत अयोग्य
घोषित करने में है। बागी विधायकों ने दल-बदल किया भी है, तो वे साफ-सुथरे तरीके से
सदस्यता छोड़ना चाहते हैं।
दल-बदल कानून की भावना भी
यह है कि यदि दो तिहाई सदस्य एकसाथ नहीं हैं, तो सदस्यता छोड़ना ही अकेला रास्ता
है। पर सरकार उन्हें साफ-सुथरे तरीके से सदस्यता त्याग नहीं करने देगी, क्योंकि इसके
बाद वैकल्पिक सरकार में वे शामिल होंगे। उन्हें दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित
किया जाएगा, तो वे मंत्री नहीं बन पाएंगे, क्योंकि दल-बदल कानून की व्यवस्था के
अनुसार तभी मंत्री बन सकेंगे, जब वे दुबारा जीतकर आएं। चुनाव तो उन्हें फिर भी
लड़ना होगा, पर साफ-सुथरे तरीके से सदस्यता-त्याग के बाद वे सीधे मंत्री बन सकते
हैं। उन्हें सदस्यता प्राप्त करने के लिए छह महीने का समय मिलेगा। इस बारीक अंतर
के कारण यह संकट है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
के बाद सदस्यों ने पार्टी ह्विप का उल्लंघन किया है, इसलिए गठबंधन सरकार उन्हें
अयोग्य घोषित करने से बच रही है। मतदान सोमवार को भी होने की उम्मीद नहीं है। कर्नाटक
कांग्रेस के प्रभारी दिनेश गुंडूराव ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में याचिका
दाखिल करके उसके 17 जुलाई के फैसले को चुनौती दी है। पार्टी चाहती है कि कोर्ट
स्पष्ट करे कि 15 विधायकों को सदन की कार्यवाही से छूट देने का आदेश पार्टी ह्विप जारी
करने के संवैधानिक अधिकार पर लागू नहीं होता है। पार्टी को 10वीं अनुसूची के तहत
विधायकों को ह्विप जारी करने का पूरा अधिकार है।
दूसरी तरफ विधानसभा
अध्यक्ष ने राज्यपाल वजूभाई वाला द्वारा दी गई समय-सीमा का पालन नहीं किया है। इन
बातों की तार्किक परिणति क्या है, इसके लिए सोमवार तक का इंतजार करना होगा। गतिरोध
तोड़ने की जिम्मेदारी अब सुप्रीम कोर्ट पर है। सांविधानिक गतिरोध टूट भी जाए, पर
इतना स्पष्ट है कि कांग्रेस पार्टी आंतरिक गतिरोधों की शिकार हो चुकी है। राज्य
में कुमारस्वामी और सिद्धारमैया की अनबन छिपी नहीं है। सिद्धारमैया और उनकी अपनी
पार्टी के विधायकों के बीच गहरी खाई बन चुकी है। उधर पार्टी की हाईकमान अपने
अंतर्विरोधों की शिकार है। गोवा और तेलंगाना में उसे धक्का लगा है और कर्नाटक हाथ
से निकल रहा है। आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से कर्नाटक महत्वपूर्ण राज्य है।
कांग्रेस पार्टी के संकट
को दो सतहों पर देखा जा सकता है। राज्यों में उसके कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग
रहे हैं। वहीं पार्टी केन्द्र में अपने नेतृत्व का फैसला नहीं कर पा रही है। कर्नाटक
में पार्टी छोड़कर भागने वाले ज्यादातर विधायक कांग्रेसी हैं। ज्यादातर बहुत
सीनियर नेता हैं, जो पार्टी के भीतर अपनी उपेक्षा से नाराज हैं। यह कहना सही नहीं
कि वे पैसे के लिए भागे हैं। ज्यादातर के पास काफी पैसा है। रोशन बेग जैसे कद्दावर
नेताओं मन में संशय पैदा क्यों हुआ? रामलिंगा रेड्डी जैसे
वरिष्ठ नेता का मन क्यों डोला? उनके मन में
पार्टी नेतृत्व को लेकर खलिश जरूर है।
राहुल गांधी के इस्तीफे
के बाद केन्द्र में अराजकता का माहौल है। कांग्रेस ने वर्तमान संकट की जिम्मेदारी
बीजेपी पर डाली है, पर उसे पहले अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर
पर पार्टी नेतृत्व के बारे में फैसला टलता जा रहा है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक
चन्द्रयान की तरह टलती जा रही है। कर्नाटक में संकट इसलिए है, क्योंकि केन्द्र में
संकट है। केन्द्र में संकट है, इसलिए कर्नाटक भी संकट में है। बहरहाल इंतजार कीजिए
कि सोमवार को होता क्या है।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-07-2019) को "आशियाना चाहिए" (चर्चा अंक- 3404) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'