विडंबना है कि मॉनसून के बादल घिरे होने के बावजूद देश में पानी सबसे बड़ी
समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है. इस संकट के शहरों और गाँवों में अलग-अलग
रूप हैं. गाँवों में यह खेती और सिंचाई के सामने खड़े संकट के रूप में है, तो
शहरों में पीने के पानी की किल्लत के रूप में. पेयजल की समस्या गाँवों में भी है,
पर चूंकि मीडिया शहरों पर केन्द्रित है, इसलिए शहरी समस्या ज्यादा भयावह रूप में
सामने आ रही है. हम पेयजल के बारे में ही सुन रहे हैं, इसलिए खेती से जुड़े मसले
सामने नहीं आ रहे हैं, जबकि इस समस्या का वास्तविक रूप इन दोनों को साथ रखकर ही
समझा जा सकता है.
शहरीकरण तेजी से हो रहा है और गाँवों से आबादी का पलायन शहरों की ओर हो रहा
है, उसे देखते हुए शहरों में पानी की समस्या पर देश का ध्यान केन्द्रित है. हाल
में चेन्नई शहर से जैसी तस्वीरें सामने आई हैं, उन्हें देखकर शेष भारत में घबराहट
है. संयोग से हाल में पेश केन्द्रीय बजट में भारत सरकार ने घोषणा की है कि सन 2024
तक देश के हर घर में ‘नल
से जल’ पहुँचाया जाएगा. सरकार ने झल शक्ति के नाम से नया
मंत्रालय भी बनाया है. सम्भव है कि हर घर तक नल पहुँच जाएं, पर क्या उन नलों में
पानी आएगा?
नीति आयोग की पिछले साल
की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के क़रीब 10 करोड़ लोगों के पानी का संकट है. देश के
21 प्रमुख शहरों में ज़मीन के नीचे का पानी तकरीबन खत्म हो चुका है. इनके परम्परागत
जल स्रोत सूख चुके हैं, कुएं और तालाब शहरी विकास के लिए पाटे जा चुके हैं. देश में पानी का संकट तो है ही साथ ही पानी की गुणवत्ता पर भी सवाल हैं. नीति
आयोग की पिछले साल की रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि पानी की गुणवत्ता के
वैश्विक सूचकांक में भारत का स्थान दुनिया के 122 देशों में 120 वाँ था. यह बात भी
चिंताजनक है.
इस जल संकट की प्रस्तावना
में चेन्नई शहर का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ पानी आपूर्ति करने वाले चार जलाशय
लगभग सूखे हैं. यह हाल उस शहर का है, जो कुछ महीने पहले भारी वर्षा के कारण पानी
में डूबा हुआ था. वहाँ इन दिनों लोग घर के पानी के लिए महीने में 15 से 20 हजार
रुपये तक खर्च कर रहे हैं.
नीति आयोग की रिपोर्ट में
बताया है कि क़रीब 60 करोड़ लोग पानी की किल्लत का सामना कर रहे हैं. क़रीब दो लाख
लोग अपर्याप्त या अस्वच्छ पानी के कारण हर साल जान गँवाते हैं. केन्द्रीय जल आयोग
ने जून में बताया कि देश के दो तिहाई जलाशय अपने सामान्य स्तर से नीचे चले गए हैं.
देश में पानी की आपूर्ति या तो नदियों से होती है या जमीन के नीचे के पानी से.
तकरीबन चालीस फीसदी आपूर्ति जमीन के नीचे के पानी से होती है. खेती और उद्योगों के
लिए इस पानी के अंधाधुंध दोहन के कारण भी यह संकट पैदा हुआ है.
इस संकट के पीछे एक बड़ा कारण
है बढ़ती आबादी. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2050 तक देश के शहरों
में रहने के लिए 41.6 करोड़ लोग और आ जाएंगे. शहरों का विकास भी योजनाबद्ध तरीके
से नहीं हुआ है. बड़ी संख्या में आबादी अवैध बस्तियों में रहती है, जिनके लिए
योजनाएं बनाई ही नहीं गईं हैं. इन शहरों में पीने के पानी की जो माँग आज है, वह
2030 तक बढ़कर दुगुनी हो जाएगी. इन सबके ऊपर है वैश्विक जलवायु में परिवर्तन का
खतरा, जिसके कारण कभी भारी बारिश होती है और कभी सूखा पड़ता है.
दुनिया का लगभग 70
प्रतिशत क्षेत्रफल पानी से भरा हुआ है, फिर भी पीने लायक मीठा पानी
सिर्फ 3 फीसदी है. शेष खारा है. इसमें भी मात्र एक फीसदी मीठे पानी का ही हम इस्तेमाल
कर पाते हैं. यह पानी प्राकृतिक जलचक्र के रूप में घूम-फिरकर हमारे पास आता है. यह
पानी उतना ही है, जितना दो हजार साल पहले था. फर्क आबादी का है, फिर भी यह हमारे
लिए पर्याप्त है और लम्बे समय तक पर्याप्त रहेगा, बशर्ते हम उसका प्रबंधन ठीक से
करें.
भारत में हम हर साल केवल
15 फीसदी पानी का ही इस्तेमाल कर पाते हैं. करीब 85 फीसदी पानी बहकर समुद्र में
चला जाता है. इजरायल जैसे देश को देखें, जहाँ सालाना वर्षा 40 सेमी के आसपास होती
है. वे एक-एक बूँद पानी का इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने अपनी खेती की तकनीक बदल दी
है. इसके अलावा समुद्री खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक भी उनके पास बेहतरीन है.
एक अनुमान है कि यदि हम अपनी जमीन के 5 प्रतिशत क्षेत्र में गिरने वाले वर्षा-जल
का संग्रह कर लें, तो पूरी आबादी में प्रत्येक व्यक्ति को औसतन तकरीबन 100 लीटर पानी हर रोज मिल सकता है.
भारत में औसत वर्षा करीब 110
सेमी सालाना है. चीन और अमेरिका जैसे देशों में इसकी आधी है, पर वहाँ खेती की
पैदावार हम से बेहतर है. सवाल जल प्रबंधन का है. देश के अनेक इलाकों में जल
प्रबंधन के परम्परागत तरीके प्रचलित हैं. उन्हें संरक्षण देने की जरूरत है. इसके
अलावा जल-प्रबंधन को सामाजिक आंदोलन की शक्ल देने की जरूरत है. बच्चों को उनके
स्कूलों में जल संरक्षण की शिक्षा दी जानी चाहिए.
विडंबना है कि हम ‘रेन हार्वेस्टिंग’ के बारे में सरकारी उपदेश आए दिन सुनते हैं, पर
पिछले साल एक अखबार ने रिपोर्ट छापी कि दिल्ली की महत्वपूर्ण सरकारी इमारतों में ‘रेन हार्वेस्टिंग’ की व्यवस्था नहीं है. इनमें नीति आयोग और
सुप्रीम कोर्ट की इमारतें शामिल हैं. नीति आयोग ने देश के समुद्र
तट वाले इलाकों में खारे पानी को मीठा बनाने के कार्यक्रमों पर भी विचार किया है.
इसके लिए सौर ऊर्जा के इस्तेमाल की योजना है.
No comments:
Post a Comment