चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस ने 17 जनवरी को दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाई है, जिसमें लोकसभा चुनावों की रणनीति तैयार की जाएगी। संभावना इस बात की है कि उस बैठक में राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया जाए। पर पार्टी के विचारकों के सामने सबसे बड़ा संकट अलग-अलग राज्यों का गणित है। लोकपाल विधेयक को पास कराने की जल्दबाज़ी और इस मामले में भी राहुल गांधी की पैराट्रुपर राजनीति का मतलब यही है कि पार्टी को संजीवनी चाहिए। एआईसीसी की पिछली बैठक इस साल जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर के साथ हुई थी। इस बैठक की घोषणा जिस दिन की गई उसके एक दिन पहले डीएमके के नेता करुणानिधि ने अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का ऐलान किया है।
कांग्रेस के सामने फिलहाल तीन चुनौतियाँ हैं। पहली, कार्यकर्ता के मनोबल को बनाए रखना। नरेंद्र मोदी और आंशिक रूप से ‘आप’ की राजनीतिक चुनौती का जवाब देने के लिए उपयुक्त रणनीति को तैयार करना। और तीसरी है चुनावी गणित को तैयार करना, जिसमें गठबंधन की रणनीति शामिल है। नवंबर 2011 में सूरज कुंड संवाद बैठक के फौरन बाद पार्टी ने राहुल गांधी को चुनाव समन्वय समिति का प्रमुख बनाया था। पिछले साल जनवरी में जयपुर चिंतन बैठक में उन्हें औपचारिक रूप से पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर भावी नेता घोषित कर दिया था। हाल के चुनावों में पराजय के बावजूद उनके नेतृत्व पर किसी किस्म की आँच आती दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए फिलहाल नेतृत्व का कोई संकट नहीं है।
एके एंटनी की अध्यक्षता में बनी पार्टी की चुनाव-पूर्व गठबंधन उप समिति कुछ समय से सक्रिय हुई है। डीएमके ने घोषणा तो की है, पर इसे अंतिम सत्य नहीं मान लेना चाहिए। डीएमके किसी संभावित ‘तीसरे मोर्चे’ की संभावनाओं को देखना चाहेगी और भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना को भी तोलेगी। यों इस साल कांग्रेस की चुनाव पूर्व गठबंधन उप समिति के सदस्य मुकुल वासनिक और डीएमके के नेता टीआर बालू के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है। पिछले दिनों राज्यसभा के चुनाव में करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को सदस्यता दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। राजनीति में कुछ भी संभव है।
इस साल जनवरी 2013 में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे ने कहा था कि देश में चुनाव होने पर भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। मई में कुछ सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। इसका मतलब नहीं था कि भाजपा जीत जाएगी। जुलाई के अंतिम सप्ताह में सीएसडीएस के सर्वेक्षण का परिणाम था कि देश के दस सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से आठ में कांग्रेस संकट में है। इन दस राज्यों में 399 सीटें हैं। इनमें से 164 सीटें पिछली बार कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास थीं। इस बार इनके सिमट कर 83 से 123 के बीच रह जाने का खतरा है।
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्यों में महाराष्ट्र (48), आंध्र (42), बंगाल (42), बिहार (40), तमिलनाडु (39), मप्र (29), कर्नाटक (28), गुजरात (26), राजस्थान (25), उड़ीसा (21), केरल (20), असम (14), झारखंड (14), पंजाब (13), छत्तीसगढ़ (11), हरियाणा (10) हैं। इनमें से कर्नाटक के अलावा किसी अन्य राज्य में कांग्रेस की स्थिति में सुधार की उम्मीद नहीं है। कर्नाटक में येदियुरप्पा की भाजपा में वापसी की संभावनाएं हैं, जिनसे भाजपा अपने नुकसान को कम कर सकती है या कांग्रेस के लाभ को सीमित करने की कोशिश करेगी। पर आंध्र, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश में पिछली बार के मुकाबले में नुकसान होने का अंदेशा है। कांग्रेस बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में अपनी स्थिति सुधारने की कोशिश करना चाहेगी।
पिछले एक-डेढ़ साल में यूपीए के दो महत्वपूर्ण घटकों, तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने उसका साथ छोड़ा है। प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति पद पर चले जाने के बाद बंगाल में कांग्रेस का कोई कद्दावर नेता नहीं है। पार्टी वहाँ अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती। उसे हर हाल में ममता बनर्जी को मनाना होगा। बावजूद इसके कि दोनों के रिश्तों में जबरदस्त ऊँच-नीच होती रही है। ममता बनर्जी के लिए भी अकेले लड़ने के मुकाबले यह बेहतर होगा। सरकार चलाने और चुनाव में जाने की परिस्थितियाँ अलग-अलग होती हैं। हाल में ममता ने संघीय मोर्चे का एक प्रस्ताव हवा में छोड़ा था, पर उसे खास समर्थन नहीं मिला। यों भी तीसरे मोर्चे के कर्णधारों में वाम मोर्चा सबसे आगे है।
पिछले साल जनवरी में जयपुर का शिविर कांग्रेस का चौथा चिंतन शिविर था। इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 का शिमला शिविर गठबंधन की राजनीति में प्रवेश का द्वार खोलने वाला साबित हुआ। उसका फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में मिला। बावजूद इसके कांग्रेस अभी गठबंधन के प्रबंधन की कला में सिद्धहस्त नहीं है। फिलहाल पार्टी के पास एनसीपी और नेशनल कांफ्रेस दो सहयोगी बचे हैं। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष और बहुजन विकास अघाड़ी नाम के दो छोटे सहयोगी और हैं जिनके पास एक-एक सीट है।
सबसे ज्यादा जरूरत आंध्र प्रदेश में गठबंधन की है। कांग्रेस ने आंध्र से पिछली बार 33 सीटें जीतीं थीं। पर वह तेलंगाना के हवन में हाथ जला बैठी है। वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी से दुश्मनी मोल लेकर भी उसने अपना काफी नुकसान कर लिया है। फिर भी उसके पास गठबंधन के लिए या तो जगनमोहन रेड्डी हैं या तेलंगाना राष्ट्र समिति। क्या उनसे गठबंधन संभव है? राजनीति में कुछ भी संभव है। जगनमोहन की पार्टी ने राष्ट्रपति के चुनाव में प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था।
गठबंधन की बुनियाद पड़ी है बिहार में। लालू यादव के जेल से बाहर आते ही कांग्रेस ने राजद और राम विलास पासवान की लोजपा के साथ गठबंधन बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। पिछले मंगलवार को लालू की सोनिया गांधी इस मामले पर विस्तार से बात हुई थी। हालांकि इसके पहले राम विलास पासवान ने भी सोनिया गांधी से मुलाकात की थी, पर तब कांग्रेस आश्वस्त नहीं थी कि जेल के भीतर रहकर लालू चुनाव का संचालन कर पाएंगे या नहीं। कांग्रेस बिहार के इस गठबंधन में राकांपा को भी शामिल रखना चाहती है। राकांपा के तारिक अनवर कटिहार से चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। यह गठबंधन हुआ तो जेडीयू को धक्का लगेगा। राहुल गांधी अभी तक गठबंधन को लेकर उत्साहित नहीं थे। पर चार राज्यों की पराजय ने कांग्रेस नेतृत्व को जमीन पर खड़ा कर दिया है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस अकेले उतरी थी। उसे 40 में से दो पर जीत हासिल हुई, जबकि सन 2004 में कांग्रेस, राजद और लोजपा के गठबंधन को 29 सीटें मिली थीं। यह गठजोड़ झारखंड में भी चलेगा। 2004 में झारखंड में इस गठबंधन को 14 में से आठ सीटें मिलीं थीं। वहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को 14 में से 9 सीटें मिलीं और अकेले लड़ी कांग्रेस एक सीट पर रह गई। उसने 2010 का विधानसभा चुनाव भी अकेले लड़ा। उसे 243 सीटों में से केवल चार पर जीत मिली। तब भी राजद और लोजपा दोनों गठबंधन के इच्छुक थे। लेकिन कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था।
चार राज्यों के परिणामों का असर गठबंधन के लिए तैयार पार्टियों पर भी पड़ेगा। गठबंधन करने वाली पार्टियाँ भी देखना चाहती हैं कि किसके साथ जाने में जोखिम है। नरेंद्र मोदी के हल्ले में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो गईं हैं। यूपीए-2 को सपा और बसपा दोनों ने बाहरी समर्थन दिया है। क्या अब कांग्रेस इनकी शरण में जाएगी? पार्टी कह रही है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी, क्योंकि, मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के बाद सपा की छवि खराब हुई है। पर इस सफाई की जरूरत महसूस क्यों हुई? पार्टी का एक धड़ा बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का हिमायत कर रहा है। केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा भी इनमें शामिल हैं। पार्टी के कई नेताओं की दलील है कि कांग्रेस और बसपा मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो यूपी की तस्वीर बदल जाएगी। सवाल है कि क्या बसपा उसके साथ गठबंधन को तैयार हो जाएगी? बसपा के इनसाइर कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस के पास कोई वोट नहीं है। कांग्रेस का अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन है, पर मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से इस इलाके के जाट भाजपा के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के सामने असम, पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक हर जगह जटिल चुनौतियाँ हैं।
कांग्रेस के सामने फिलहाल तीन चुनौतियाँ हैं। पहली, कार्यकर्ता के मनोबल को बनाए रखना। नरेंद्र मोदी और आंशिक रूप से ‘आप’ की राजनीतिक चुनौती का जवाब देने के लिए उपयुक्त रणनीति को तैयार करना। और तीसरी है चुनावी गणित को तैयार करना, जिसमें गठबंधन की रणनीति शामिल है। नवंबर 2011 में सूरज कुंड संवाद बैठक के फौरन बाद पार्टी ने राहुल गांधी को चुनाव समन्वय समिति का प्रमुख बनाया था। पिछले साल जनवरी में जयपुर चिंतन बैठक में उन्हें औपचारिक रूप से पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर भावी नेता घोषित कर दिया था। हाल के चुनावों में पराजय के बावजूद उनके नेतृत्व पर किसी किस्म की आँच आती दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए फिलहाल नेतृत्व का कोई संकट नहीं है।
एके एंटनी की अध्यक्षता में बनी पार्टी की चुनाव-पूर्व गठबंधन उप समिति कुछ समय से सक्रिय हुई है। डीएमके ने घोषणा तो की है, पर इसे अंतिम सत्य नहीं मान लेना चाहिए। डीएमके किसी संभावित ‘तीसरे मोर्चे’ की संभावनाओं को देखना चाहेगी और भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना को भी तोलेगी। यों इस साल कांग्रेस की चुनाव पूर्व गठबंधन उप समिति के सदस्य मुकुल वासनिक और डीएमके के नेता टीआर बालू के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है। पिछले दिनों राज्यसभा के चुनाव में करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को सदस्यता दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। राजनीति में कुछ भी संभव है।
इस साल जनवरी 2013 में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे ने कहा था कि देश में चुनाव होने पर भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। मई में कुछ सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। इसका मतलब नहीं था कि भाजपा जीत जाएगी। जुलाई के अंतिम सप्ताह में सीएसडीएस के सर्वेक्षण का परिणाम था कि देश के दस सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से आठ में कांग्रेस संकट में है। इन दस राज्यों में 399 सीटें हैं। इनमें से 164 सीटें पिछली बार कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास थीं। इस बार इनके सिमट कर 83 से 123 के बीच रह जाने का खतरा है।
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्यों में महाराष्ट्र (48), आंध्र (42), बंगाल (42), बिहार (40), तमिलनाडु (39), मप्र (29), कर्नाटक (28), गुजरात (26), राजस्थान (25), उड़ीसा (21), केरल (20), असम (14), झारखंड (14), पंजाब (13), छत्तीसगढ़ (11), हरियाणा (10) हैं। इनमें से कर्नाटक के अलावा किसी अन्य राज्य में कांग्रेस की स्थिति में सुधार की उम्मीद नहीं है। कर्नाटक में येदियुरप्पा की भाजपा में वापसी की संभावनाएं हैं, जिनसे भाजपा अपने नुकसान को कम कर सकती है या कांग्रेस के लाभ को सीमित करने की कोशिश करेगी। पर आंध्र, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश में पिछली बार के मुकाबले में नुकसान होने का अंदेशा है। कांग्रेस बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में अपनी स्थिति सुधारने की कोशिश करना चाहेगी।
पिछले एक-डेढ़ साल में यूपीए के दो महत्वपूर्ण घटकों, तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने उसका साथ छोड़ा है। प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति पद पर चले जाने के बाद बंगाल में कांग्रेस का कोई कद्दावर नेता नहीं है। पार्टी वहाँ अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती। उसे हर हाल में ममता बनर्जी को मनाना होगा। बावजूद इसके कि दोनों के रिश्तों में जबरदस्त ऊँच-नीच होती रही है। ममता बनर्जी के लिए भी अकेले लड़ने के मुकाबले यह बेहतर होगा। सरकार चलाने और चुनाव में जाने की परिस्थितियाँ अलग-अलग होती हैं। हाल में ममता ने संघीय मोर्चे का एक प्रस्ताव हवा में छोड़ा था, पर उसे खास समर्थन नहीं मिला। यों भी तीसरे मोर्चे के कर्णधारों में वाम मोर्चा सबसे आगे है।
पिछले साल जनवरी में जयपुर का शिविर कांग्रेस का चौथा चिंतन शिविर था। इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 का शिमला शिविर गठबंधन की राजनीति में प्रवेश का द्वार खोलने वाला साबित हुआ। उसका फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में मिला। बावजूद इसके कांग्रेस अभी गठबंधन के प्रबंधन की कला में सिद्धहस्त नहीं है। फिलहाल पार्टी के पास एनसीपी और नेशनल कांफ्रेस दो सहयोगी बचे हैं। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष और बहुजन विकास अघाड़ी नाम के दो छोटे सहयोगी और हैं जिनके पास एक-एक सीट है।
सबसे ज्यादा जरूरत आंध्र प्रदेश में गठबंधन की है। कांग्रेस ने आंध्र से पिछली बार 33 सीटें जीतीं थीं। पर वह तेलंगाना के हवन में हाथ जला बैठी है। वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी से दुश्मनी मोल लेकर भी उसने अपना काफी नुकसान कर लिया है। फिर भी उसके पास गठबंधन के लिए या तो जगनमोहन रेड्डी हैं या तेलंगाना राष्ट्र समिति। क्या उनसे गठबंधन संभव है? राजनीति में कुछ भी संभव है। जगनमोहन की पार्टी ने राष्ट्रपति के चुनाव में प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था।
गठबंधन की बुनियाद पड़ी है बिहार में। लालू यादव के जेल से बाहर आते ही कांग्रेस ने राजद और राम विलास पासवान की लोजपा के साथ गठबंधन बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। पिछले मंगलवार को लालू की सोनिया गांधी इस मामले पर विस्तार से बात हुई थी। हालांकि इसके पहले राम विलास पासवान ने भी सोनिया गांधी से मुलाकात की थी, पर तब कांग्रेस आश्वस्त नहीं थी कि जेल के भीतर रहकर लालू चुनाव का संचालन कर पाएंगे या नहीं। कांग्रेस बिहार के इस गठबंधन में राकांपा को भी शामिल रखना चाहती है। राकांपा के तारिक अनवर कटिहार से चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। यह गठबंधन हुआ तो जेडीयू को धक्का लगेगा। राहुल गांधी अभी तक गठबंधन को लेकर उत्साहित नहीं थे। पर चार राज्यों की पराजय ने कांग्रेस नेतृत्व को जमीन पर खड़ा कर दिया है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस अकेले उतरी थी। उसे 40 में से दो पर जीत हासिल हुई, जबकि सन 2004 में कांग्रेस, राजद और लोजपा के गठबंधन को 29 सीटें मिली थीं। यह गठजोड़ झारखंड में भी चलेगा। 2004 में झारखंड में इस गठबंधन को 14 में से आठ सीटें मिलीं थीं। वहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को 14 में से 9 सीटें मिलीं और अकेले लड़ी कांग्रेस एक सीट पर रह गई। उसने 2010 का विधानसभा चुनाव भी अकेले लड़ा। उसे 243 सीटों में से केवल चार पर जीत मिली। तब भी राजद और लोजपा दोनों गठबंधन के इच्छुक थे। लेकिन कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था।
चार राज्यों के परिणामों का असर गठबंधन के लिए तैयार पार्टियों पर भी पड़ेगा। गठबंधन करने वाली पार्टियाँ भी देखना चाहती हैं कि किसके साथ जाने में जोखिम है। नरेंद्र मोदी के हल्ले में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो गईं हैं। यूपीए-2 को सपा और बसपा दोनों ने बाहरी समर्थन दिया है। क्या अब कांग्रेस इनकी शरण में जाएगी? पार्टी कह रही है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी, क्योंकि, मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के बाद सपा की छवि खराब हुई है। पर इस सफाई की जरूरत महसूस क्यों हुई? पार्टी का एक धड़ा बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का हिमायत कर रहा है। केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा भी इनमें शामिल हैं। पार्टी के कई नेताओं की दलील है कि कांग्रेस और बसपा मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो यूपी की तस्वीर बदल जाएगी। सवाल है कि क्या बसपा उसके साथ गठबंधन को तैयार हो जाएगी? बसपा के इनसाइर कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस के पास कोई वोट नहीं है। कांग्रेस का अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन है, पर मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से इस इलाके के जाट भाजपा के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के सामने असम, पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक हर जगह जटिल चुनौतियाँ हैं।
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