दिल्ली में शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल ने गीत गाया, ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम
हमारा.’ ऐसे तमाम गीत पचास के दशक की हमारी फिल्मों में होते
थे. नए दौर और नए इंसान की नई कहानी लिखने का आह्वान उन फिल्मों में था. पर साठ
साल में राजनीति के ही नहीं, फिल्मों, नाटकों, कहानियों और सीरियलों के स्वर बदल
गए. सन 1952 के चुनाव में आम आदमी पार्टी की ज़रूरत नहीं थी. सारी पार्टियाँ ‘आप’ थीं. तब से अब में पहिया पूरी तरह घूम चुका है.
जो हीरो थे, वे विलेन हैं.
सूरज अपनी जगह आग का गोला है. हमारी निगाहें उसे अलग-अलग
रूप में देखती हैं. डूबते को बाय-बाय और उगते को सलाम. सन 2013 का सूरज नौजवानों,
खासकर महिलाओं की नाराजगी के साथ उगा था. दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ वह आंदोलन
राजनीतिक नहीं था. पर उसने युवाओं और महिलाओं को राजनीति में जाने की चुनौती दी. पिछले
साल का सूरज ‘ग़म की शाम’ में विदा हुआ था. इस साल वह उम्मीदें जगाता हुआ जा रहा है. सूरज वही है, हमारी
निगाहें बदली हैं.
सरकारी जड़ता और आम आदमी के प्रति बेरुखी को भारत में ही
नहीं सारी दुनिया में चुनौती मिल रही है. अमेरिका की ताकतवर सरकार एडवर्ड स्नोडेन
और जूलियन असांज के सामने असहाय है. पिछले डेढ़ साल से वह लंदन में इक्वेडोर के
दूतावास में शरणार्थी बनकर अमेरिकी ताकत को चुनौती दे रहा है. भारत में जिन दिनों
अन्ना हजारे का आंदोलन उभार था उन दिनों अमेरिका में ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’
आंदोलन चल रहा था. उस आंदोलन का नारा है ‘वी आर नाइंटी नाइन
परसेंट.’ एक के खिलाफ निन्यानबे फीसदी का आंदोलन. उसकी
वैबसाइट दावा करती है कि हम अमेरिका के 100 और दुनिया के 1500 शहरों में फैल चुके
हैं. ‘आप’ के तौर-तरीकों और खासतौर से
उसकी डायरेक्ट डेमोक्रेसी पर इस आंदोलन की छाप है. इसकी तर्ज पर यूरोप के अनेक
देशों में आंदोलन खड़े हैं. ग्रीस, आयरलैंड, इटली, स्पेन से लेकर पुर्तगाल तक. ये आंदोलन वैश्विक
वित्तीय संरचना और कल्याणकारी राज्य के बीच टकराव जैसे लगते हैं. जबकि भारत में यह
बुनियादी राजनीतिक सुधार और शिक्षण का आंदोलन है. यह दो समाजों का फर्क भी है. हमें
अभी शैक्षिक क्रांति की ज़रूरत है.
कुछ साल पहले तक हमारे यहां राजनीति शब्द गाली का पर्याय
था. आज यह विश्वास है कि इसे बदलना है तो इसमें शामिल हो जाओ. मुख्यधारा की
राजनीति मुफ्त में आटा-चावल से लेकर टीवी-कम्प्यूटर और मंगलसूत्र तक देकर जनता को
झाँसा दे रही है. जनता को समझना है कि मालिक वह है. ‘आप’ किसी सकारात्मक
राजनीति का परिणाम न होकर विरोध की देन है. लोकतंत्र भी बादशाहों के खिलाफ बगावत
के रूप में उभरा था. दिसंबर 2011 में लोकपाल विधेयक को जिस तरह राज्यसभा में अटका
दिया गया, उससे देश की जनता को ठेस लगी थी. इस साल मार्च में पवन बंसल और अश्विनी
कुमार को जब पद छोड़ने पड़े तब भी ज़ाहिर हुआ कि जनता के मन में ख़लिश है. सुप्रीम
कोर्ट ने सीबीआई को ‘तोता’ नाम से
विभूषित किया. यह एक संवैधानिक संस्था का दूसरे पर तंज़ था. हम निरंतर मंथन की
प्रक्रिया में हैं. परिणति है अमृत और विष दोनों. भ्रष्टाचार राजनीति में नहीं
हमारे भीतर है. हमें ही इसे दूर करना होगा.
भारतीय जनता पार्टी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलकर
राजनीतिक लाभ जरूर कमाया, पर सवालों के घेरे में वह भी है. यह खेल पूरी तरह
कांग्रेस का नहीं है. इस साल कर्नाटक में जनता ने भाजपा को तमाचा मारा था. राजनीति
ने अपने ‘कंफर्ट ज़ोन’ बना लिए
हैं. उसे उनसे बाहर निकाला जा रहा है. इस साल जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों के
चुनाव लड़ने पर रोक लगाने के बाबत दो फैसले किए और मुख्य सूचना आयुक्त ने छह
राष्ट्रीय दलों से चंदे का हिसाब माँगा तो उन्होंने उसे नापसंद किया. पार्टियाँ
मानती हैं कि एक बार चुनाव जीत जाने के बाद वे बादशाह हैं.
लोकतांत्रिक दबाव के कारण दागी सांसदों का अध्यादेश राहुल
गांधी को फाड़कर फेंकना पड़ा. इसके कारण ही लोकपाल विधेयक हाथों-हाथ पास हुआ. इसी
कारण उन्हें अपने पैसे-पाई का हिसाब जनता को देना होगा. प्रशासनिक भ्रष्टाचार के
पीछे बड़ा कारण यह चंदा और चुनाव लड़ने की भारी कीमत है. इस साल वोटर को नोटा मिला,
जिसका खास प्रभाव पाँच राज्यों की विधानसभा के परिणामों में नज़र नहीं आया. इसका
मतलब यह नहीं कि असर दिखाई नहीं पड़ेगा. अभी काफी लोगों को नोटा का मतलब मालूम भी
नहीं है. अंततः किसी न किसी रूप में ‘राइट टु रिकॉल’ यानी चुने हुए प्रतिनिधि को हटाने का
अधिकार भी वोटर को मिलेगा. पर उससे पहले वोटर को समझदार भी बनना होगा, वरना यह
बंदर के हाथ में उस्तरे जैसा होगा.
यह पूरा साल ‘राहुल बनाम मोदी’ के नाम था. नरेंद्र मोदी का नाम
अनेक कारणों से लोगों की जबान पर है. पिछले साल का सूरज ढलने तक कोई निश्चय पूर्वक
नहीं कह सकता था कि वे भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी
घोषित होंगे. इस साल जनवरी में कांग्रेस पार्टी पर्याप्त संगठित और चुनाव की
दृष्टि से तैयार नजर आती थी. भारतीय जनता पार्टी अंदरूनी कलह से घिरी हुई थी. इसी
अनिश्चय के माहौल में जनवरी में नितिन गडकरी को पद छोड़ना पड़ा. राजनाथ सिंह ने
पार्टी अध्यक्ष का पद सँभाला. मई में कर्नाटक में पार्टी की जबरदस्त हार हुई.
कांग्रेस के हौसले बढ़े. इसके बाद जून में भाजपा कार्यकारिणी की गोवा में हुई बैठक
के बाद नाटकीय घटनाएं हुईं. इनकी परिणति 14 सितंबर को पार्टी के संसदीय बोर्ड की
बैठक में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ हुई.
कांग्रेस के पास नौजवान को अपने साथ लाने का कोई जुगाड़
नहीं है. बावजूद इसके कि उसका नेता मोदी के मुकाबले है. वर्ष 2012 के नवंबर में
कांग्रेस ने राहुल गांधी को सन 2014 के चुनाव संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी थी.
जनवरी में जयपुर के चिंतन शिविर में राहुल को बाकायदा पार्टी उपाध्यक्ष घोषित करके
उन्हें दूसरे नंबर का नेता औपचारिक रूप से घोषित कर दिया था. पर वे अचानक नरेंद्र
मोदी के मुकाबले में आ गए. अप्रैल के पहले हफ्ते में सीआईआई की एक गोष्ठी में उनके
और श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स तथा फिक्की की महिला शाखा में नरेंद्र मोदी के भाषणों
की तुलना होने लगी. इन भाषणों से ही यह स्थापित हो गया कि मंच कला में मोदी राहुल
से बेहतर हैं.
पर बात इतनी भर नहीं थी. कांग्रेस अपनी परंपरागत खानदानी
राजनीति पर कायम है. उधर मोदी गेट क्रैश करके शिखर पर आए हैं. उनके पीछे पार्टी का
सामान्य कार्यकर्ता था, बड़े नेता नहीं. उनके मीडिया मैनेजरों ने संजीदा राहुल को ‘पप्पू’ बना डाला. जवाब
में मोदी ने ‘फेंकू’ नाम कमाया. पर
उन्होंने अपनी आक्रामकता में सब कुछ छिपा लिया. बड़ी-बड़ी तथ्यात्मक गलतियों को भी.
बीजेपी में नरेंद्र मोदी का आगमन पार्टी के पुराने हिंदुत्व का उदय नहीं है, बल्कि
नौजवानों की उम्मीदों का जागना है. इसीलिए ‘आप’ का आविष्कार भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. वही नौजवान जो नरेंद्र मोदी
का समर्थक है, ‘आप’ के साथ भी है.
बहरहाल आज का सूर्यास्त ‘आप’ के नाम
होगा और कल का सूर्योदय आपके नाम.
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