लोकपाल विधेयक अब पास हो
जाएगा. इसे मुख्य धारा के लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है. समाजवादी
पार्टी को छोड़ दें तो बाकी सब इसके पक्ष में आ गए हैं, भाजपा भी. उसकी केवल दो
आपत्तियाँ हैं. जाँच के दौरान सीबीआई अधिकारियों के तबादले को लेकर और दूसरी
सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के पहले उन्हें सूचना देने के बाबत.
लोकसभा से पास हुए विधेयक में राज्यसभा में इतने संशोधन आए कि उसे प्रवर समिति को
सौंपना पड़ा था. प्रवर समिति ने सुझाव दिया है कि लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों पर
लोकपाल की निगरानी रहेगी. इसके अलावा जिन मामलों की जाँच चलेगी उनसे जुड़े अफसरों
का तबादला लोकपाल की सहमति से ही हो सकेगा. पर सरकार चाहती है कि उसके पास तबादला
करने का अधिकार रहे. सरकार यह भी चाहती है कि किसी अफसर के खिलाफ कार्रवाई करने के
पहले उसे सूचित किया जाए. झूठी शिकायतें करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने की
व्यवस्था भी विधेयक में हैं. इसके अंतर्गत अधिकतम एक साल की सज़ा और एक लाख रुपए
तक के जुर्माने की व्यवस्था है. भारतीय दंड संहिता में व्यवस्था है कि शिकायत झूठी
पाई जाने पर भी यदि उसके पीछे सदाशयता है तो यह नियम लागू नहीं होता. प्रवर समिति
की अनुशंसा है कि यह बात इस कानून में दर्ज की जाए.
इसके पास होने
या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसकी राजनीति. दिल्ली में ‘आप’ की सफलता के बाद अचानक इसे
पास कराने में जितनी तेजी आई है वह विस्मयकारक है. राहुल गांधी ने इस सवाल को कभी
महत्वपूर्ण नहीं माना. अब अचानक उन्होंने विशेष प्रेस कांफ्रेस बुला ली. कांग्रेस
ही नहीं भाजपा समेत सभी पार्टियाँ इसे पास कराने पर ज़ोर दे रहीं हैं. कानून संसद
से ही पास हो सकता है, जिसके लिए बड़े स्तर पर राजनीतिक सहमति की जरूरत है. गौर से
देखें तो किसी भी राजनीतिक दल को ‘अन्ना आंदोलन’ के दबाव में कानून बनाना पसंद नहीं आया था. यह बात 30 अगस्त
और दिसंबर 2011 तथा 13 मई 2012 के संसद के विशेष अधिवेशनों में कुछ राजनेताओं के
वक्तव्यों से प्रकट भी हुई थी.
अन्ना हजारे की 15 अगस्त
2011 को गिरफ्तारी और उसके बाद रिहाई के समय एक प्रकार की राजनीतिक सहमति बनी थी
कि कानून बनाया जाना चाहिए. तीस अगस्त को संसद के एक विशेष सत्र में दोनों सदनों
ने एक मंतव्य को स्वीकार किया था. इसमें अन्ना की तीन शर्तें शामिल थीं. निचले स्तर की नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में
लाना, सिटीजन चार्टर और हर
राज्य में लोकायुक्त नियुक्त करना. सीबीआई को सरकारी कैद से मुक्ति दिलाना भी इस
आंदोलन का लक्ष्य था. दिसंबर 2011 में लोकसभा ने जिस विधेयक को पास किया उसमें इन
शर्तों की आंशिक पूर्ति ही हो पाई है. कई जगह सांविधानिक दिक्कतें हैं और कहीं सरकारी
मंशा नहीं है. सिटिजन चार्टर पर एक बिल सरकार ने लोकपाल विधेयक से भी पहले पेश कर
दिया था. इस बिल के प्रावधानों के तहत एक तय समय में सभी संस्थाओं को जनता के काम
पूरे करने होंगे. सभी संस्थाओं में शिकायत निवारण अधिकारी होंगे. राज्यों में
पब्लिक ग्रीवांस रीड्रेसल कमीशन बनेंगे. हालांकि अन्ना सिटिजन चार्टर को पूरी तरह
लोकपाल के दायरे में चाहते थे, लेकिन इस बिल में व्यवस्था है कि कोई भी पीड़ित
व्यक्ति लोकपाल या लोकायुक्त के सामने अपील कर सकेगा. यह विधेयक सिर्फ पेश ही हुआ.
इस पर न तो बहस हुई और न कुछ और.
अन्ना हजारे
लोकपाल विधेयक से संतुष्ट हैं. रालेगण सिद्धि में अनशन के छठे दिन उन्होंने कहा कि
जो विधेयक पेश किया गया है, मैं उससे संतुष्ट हूं. हमारी कई उम्मीदें इससे पूरी हो गई हैं.
लोकायुक्त के गठन और सिटिजन चार्टर जैसी मांगें भी जल्द पूरी हो जाएंगी, ऐसी उम्मीद है. पर अरविंद केजरीवाल का कहना है कि
सीबीआई को इंडिपेंडेट नहीं किया तो इस बिल का कोई मतलब नहीं है. इस बिल से एक
मंत्री तो क्या कोई चूहा भी जेल नहीं जा सकता. इस बिल से सिर्फ राहुल गांधी को
फायदा होता नजर आ रहा है बाकी दूर-दूर तक इस बिल से कोई फायदा नहीं है. परंपरागत
राजनीति के एकजुट होने और अन्ना-अवधारणा में सेंध लगने के कारणों पर अब गंभीरता से
विचार करने की जरूरत है. पर यह साफ है कि इस आंदोलन ने मुख्य धारा की राजनीति को
हिलाकर रख दिया है. इसका पहला उदाहरण दिल्ली से मिला है. देखना यह है कि यह ‘नई राजनीति’ कोई बेहतर शक्ल
लेगी या पानी के बुलबुले की तरह खत्म हो जाएगी.
दिल्ली में मिली सफलता के
फौरन बाद दो ऐसे मोर्चे खुले हैं, जिनके कारण ‘आप’ को विवादों ने घेर लिया है. सरकार बनाने की संभावनाओं से
भाजपा ने हाथ खींचकर और फिर कांग्रेस ने ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन की गुगली फेंक कर उसे असमंजस में डाल
दिया है। ‘आप’ ने 18 शर्तें पेश करके उसका जवाब देने की कोशिश ज़रूर की, पर उसके अंतर्विरोध
भी सामने आने लगे हैं. सत्ता की राजनीति असंभव बातों को संभव बनाने की कला है. ‘आप’ के पास आंदोलन का अनुभव
है, सरकार चलाने का नहीं. भाजपा और कांग्रेस को इतना ही साबित करना है. ‘आप’ जहाँ मुख्य धारा का
राजनीति की पोल खोलना चाहती है, वहीं मुख्य धारा की राजनीति उसके बचकानेपन को
रेखांकित कर रही है. ‘आप’ के पीछे जनता का समर्थन है और अभी तक उसकी सदाशयता को लेकर
शिकायतें नहीं हैं. पर उसे ज्यादा बड़ा धक्का अन्ना हजारे के साथ टकराव मोल लेकर
मिला है. वह टकराव से पीछे हट भी नहीं रही है. रविवार को इस ग्रुप से जुड़े कुमार
विश्वास का ट्वीट था, ‘महासमर में कभी ऐसा समय आता है कि भीष्म के मौन
और गुरु द्रोण के सिंहासन-सहमत हो जाने पर भी कंटक पथ पर 5 पांडवों को युद्ध ज़ारी रखना पड़ता है.’ यानी ‘आप’ इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक ले जाना चाहेगी, पर कैसे?
‘आप’ का उदय मुख्य धारा की राजनीति की विसंगतियों को उजागर करने
के वास्ते हुआ है. पर उसके पीछे कोई स्पष्ट विचार और कोई सुस्पष्ट सामाजिक शक्ति
नहीं है. अभी तक वह केवल कुछ व्यक्तियों के ग्रुप के रूप में सामने आई है. बेशक
जनता के बड़े वर्ग की सहानुभूति उसके साथ है. यह वर्ग मुख्यतः शहरी मध्य वर्ग है,
पर दिल्ली में जिस तरह बहुजन समाज पार्टी के वोट 14 फीसदी से घटकर 5 फीसदी रह गए
हैं, उससे ज़ाहिर है कि ‘आप’ का समर्थन करने वालों में सवर्ण शहरी मध्य वर्ग के अलावा
कोई और भी है. देखना यह है कि ‘आप’ की दृष्टि कितनी दूर तक जाती है. और यह भी कि उसकी टोली
में शामिल लोगों का इरादा क्या है. लोकपाल बिल के पास होने से उसकी राजनीति खत्म
नहीं होगी, बल्कि उसके पास बेहतर राजनीतिक हथियार होगा. अब यह साबित होगा कि केवल
लोकपाल बनने से ही सब कुछ नहीं बदल जाएगा.
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून |
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