अभी तक राजनीति का मतलब
हम पार्टियों के गठबंधन, सरकार बनाने के दावों और आरोपों-प्रत्यारोपों तक सीमित
मानते थे। एक अर्थ में राजनीति के मायने चालबाज़ी, जोड़तोड़ और जालसाज़ी हो गए थे। पर राजनीति तो राजव्यवस्था से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण कर्म है। पिछले एक हफ्ते में अचानक भारतीय राजनीति की परिभाषा में कुछ नई बातें
जुड़ीं हैं। चार राज्यों के विधान सभा चुनाव का यह निष्कर्ष साफ है कि यह कांग्रेस
के पराभव का समय है। यह आने वाले तूफान की आहट है। पर इस चुनाव के कुछ और निष्कर्ष
भी हैं। पहला यह कि ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति की उदय हो रहा है। यह
राजनीति देश के शहरों और गाँवों तक जाएगी। दिल्ली की प्रयोगशाला में इसका परीक्षण हुआ।
अब बाकी देश में यह विकसित होगी।
हालांकि दिल्ली में सरकार
बनाने की गहमागहमी आश्वस्तिकारक नहीं है, पर जनता नई राजनीति की धड़कनों को बड़े
गौर से सुन रही है। नए समय की राजनीति के पीछे वोटर खड़ा है। इस अर्थ में ‘आप’ की जीत वोटर की
जीत है। आम धारणा है कि देश का मध्य वर्ग, प्रोफेशनल युवा और स्त्रियाँ ज्यादा सक्रियता के साथ राजनीति में प्रवेश कर गए
हैं, पर केवल इतनी बात नहीं है। दिल्ली के 2008 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को
14.05 फीसदी वोट मिले थे। इस बार उसे 5.35 फीसदी वोट मिले। बसपा का वोट आसानी से
खिसकता नहीं है। लगभग 9 फीसदी वोटों के खिसकने का मतलब है कि दिल्ली का सबसे गरीब
और वंचित तबके को भी ‘आप’ से उम्मीदें हैं। यह वोट न तो कांग्रेस के पास गया होगा और
न भाजपा के पास।
नई राजनीति क्या है? सन 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था, तब भी हमारी राजनीति नई
थी। जनता को उससे अपेक्षाएं थीं। ज्यादातर चेहरे नए थे। यानी जितने भी राजनीतिक दल
थे उनमें से ज्यादातर दल आम आदमी पार्टी जैसे थे। पर 1967 आते-आते वह राजनीति
असहनीय हो गई और जनता ने सात-आठ राज्यों में कांग्रेस को अपदस्थ कर दिया। और तब
फिर आम आदमी पार्टी जैसी नई ताकतें सामने आईं। सन 1971 में इंदिरा गांधी नई
उम्मीदें लेकर सामने आईं। उन्होंने सबसे बड़ा वादा किया। गरीबी हटाने का।
अपेक्षाएं इतनी बड़ी थीं कि जनता ने उन्हें समर्थन देने में देर नहीं कि। पर बदले
में क्या मिला? पाँच साल के भीतर इंदिरा
गांधी की सरकार अलोकप्रियता के गड्ढे में जा गिरी। सन 1977 में उन्हें भारी शिकस्त
ही नहीं मिली थी। एक नए राजनीतिक जमावड़े का ऐतिहासिक स्वागत हुआ। और साल भर के
भीतर इस जमावड़े के अंतर्विरोध सामने आने लगे। सन 1984 में जब राजीव गांधी जीते,
तब वे ईमानदार और भविष्य की ओर देखने वाले राजनेता के रूप में सामने आए थे। यह वह
दौर था जब अरुण शौरी इसी तरह की ‘ईमानदार राजनीति’ की बात कर रहे थे जैसे आज अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि राजनीति
बदलना नहीं चाहती। या वह बदली नहीं जा सकती। उसे बदलने के लिए वोटर के तमाचे की
जरूरत है। अभी तक हम मानते रहे हैं कि वोट देने के बाद जनता की भूमिका खत्म। जैसे-जैसे
वोटर की भूमिका बदल रही है, राजनीति बदल रही है। सारा बदलाव भीतर से ही नहीं है।
बाहर से भी है। चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के दबाव
से हुआ। राजनीतिक दलों ने यथा संभव इन सुधारों का विरोध किया। हाल में दागी
सांसदों की सदस्यता जारी रखने वाले अध्यादेश की किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया
था। राहुल गांधी को भी इसकी देर से याद आई, अन्यथा वह अध्यादेश राष्ट्रपति के पास
जाता ही क्यों? लोकपाल विधेयक को लेकर
सन 2011 अप्रैल से लेकर दिसंबर के आखिरी हफ्ते तक जद्दोजहद चलती रही। सिटिजन
चार्टर विधेयक पेश कर दिया। लोकपाल विधेयक लोकसभा से पास हो गया। ह्विसिल ब्लोवर कानून
की तैयारी कर ली गई। पर किया कुछ नहीं।
अच्छी बात यह है कि अब
राजनीति की दुकान अब अंधेरे कोनों में चलाना संभव नहीं। सामाजिक दृष्टि का विस्तार
हुआ है। सोशल मीडिया में ऑनलाइन राष्ट्रीय बहस निरंतर चल रही है। अभी यह बहस अराजक
है, पर जितनी भी है असरदार है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में नागरिक के मुद्दे
संप्रदाय और जाति के ऊपर चढ़कर बोले। यह एक सुखद बदलाव है। प्रशासनिक और संस्थागत,
वोटर की भागीदारी और पारदर्शिता महत्वपूर्ण मसले बनकर उभरे हैं। अब कांग्रेस भी कह
रही है कि घोषणापत्र तैयार करते वक्त नागरिकों की राय ली जाएगी। एक बात मजबूती से
रेखांकित हो रही है कि लोकतंत्र निचले से निचले स्तर तक जाए। और यह बात व्यावहारिक
हो, केवल नारों के स्तर पर ही नहीं। यानी राजनीति में नागरिक की भागीदारी बढ़े।
भ्रष्टाचार का मतलब है सुशासन की अनुपस्थिति जो जागरूक नागरिक की गैर-हाजिरी का
संकेत है। इस तरीके से यह एक चेन हैं। यह चुनाव उस चेन को मजबूती देने वाला साबित
हुआ है। यकीन है कि लोकसभा चुनाव में यह और मजबूत होगी।
किसी अख़बार में खबर थी
कि छत्तीसगढ़ के नक्सली ‘नोटा’ का सहारा लेकर अपनी पैठ बढ़ाएंगे। खबर लिखने वाले ने इसे
खतरा बताया है, पर यह खतरा नहीं है। यह लोकतांत्रिक रास्ता है। यदि नक्सली इस
चुनाव प्रक्रिया को निरर्थक साबित करना चाहते हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं। पर यह
बात उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से कहनी होगी। बंदूक की गोली से नहीं। ‘नोटा’ बटन इस लोकतंत्र
की विसंगति को रेखांकित करने के लिए ही बनाया गया है। सच यह है कि कुल मतदाताओं
में से दस फीसदी वोट पाने वाले भी अपने पक्ष में जनादेश साबित करते हैं। अब यह बात
रिकॉर्ड में रहेगी कि कितने वोटर उन्हें खारिज करते हैं। हमारे लोकतंत्र को किसी
नए रूप में परिभाषित करने में इस ‘नोटा’ बटन की भी कल कोई भूमिका होगी।
पिछले साल के दिल्ली गैंग
रेप के बाद से स्त्रियों की सुरक्षा का मसला एक राजनीतिक माँग के रूप में उभरा है।
इसके इर्द-गिर्द स्त्रियों से जुड़े दूसरे मसले भी उठेंगे। इस चुनाव में स्त्री
मतदाताओं के उत्साह से उनकी बढ़ती भूमिका भी रेखांकित हुई है। सारे समाधान राजनीति
के बस की बात नहीं हैं, पर सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव राजनीति को प्रभावित करते
हैं। यह चुनाव इस संदेश को भी लेकर आया है। ऐसे अनेक संदेश इस चुनाव के साथ जुड़े
हैं। उनका बेहतर मतलब लोकसभा चुनाव में नजर आएगा।
हरिभूमि में प्रकाशितहिंदू में सुरेंद्र का कार्टून |
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